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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    एक॑पा॒द्द्विप॑दो॒ भूयो॒ वि च॑क्र॒मे द्विपा॒त्त्रिपा॑दम॒भ्येति प॒श्चात्। द्विपा॑द्ध॒ षट्प॑दो॒ भूयो॒ वि च॑क्रमे॒ त एक॑पदस्त॒न्वं समा॑सते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑ऽपात् । द्विऽप॑द: । भूय॑: । वि । च॒क्र॒मे॒ । द्विऽपा॑त् । त्रिऽपा॑दम् । अ॒भि । ए॒ति॒ । प॒श्चात् । द्विऽपा॑त् । ह॒ । षट्ऽप॑द: । भूय॑: । वि । च॒क्र॒मे॒ । ते । एक॑ऽपद: । त॒न्व᳡म् । सम् । आ॒स॒ते॒ ॥२.२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकपाद्द्विपदो भूयो वि चक्रमे द्विपात्त्रिपादमभ्येति पश्चात्। द्विपाद्ध षट्पदो भूयो वि चक्रमे त एकपदस्तन्वं समासते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकऽपात् । द्विऽपद: । भूय: । वि । चक्रमे । द्विऽपात् । त्रिऽपादम् । अभि । एति । पश्चात् । द्विऽपात् । ह । षट्ऽपद: । भूय: । वि । चक्रमे । ते । एकऽपद: । तन्वम् । सम् । आसते ॥२.२७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 27

    पदार्थ -
    (एकपात्) एकरस व्यापक परमेश्वर (द्विपदः) दो प्रकार की स्थितिवाले [जङ्गम स्थावर जगत्] से (भूयः) अधिक आगे (वि) फैलकर (चक्रमे) चला गया, (द्विपाद्) दो [भूत भविष्यत्] में गतिवाला परमात्मा (पश्चात्) फिर (त्रिपादम्) तीन [प्रकाशमान और अप्रकाशमान और मध्य लोकों] में व्याप्तिवाले संसार में (अभि) सब ओर से (एति) प्राप्त होता है, (द्विपात्) दो [जङ्गम और स्थावर जगत्] में व्यापक ईश्वर (ह) निश्चय करके (षट्पदः) छह [पूर्व दक्षिण पश्चिम उत्तर ऊँची और नीची दिशाओं] में स्थितिवाले ब्रह्माण्ड से (भूयः) अधिक आगे (विचक्रमे) निकल गया, (ते) वे [योगी जन] (एकपदः) एकरस व्यापक परमेश्वर की (तन्वम्) उपकार क्रिया को (सम्) निरन्तर (आसते) सेवते हैं ॥२७॥

    भावार्थ - वह अकेला सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् परमात्मा जङ्गम, स्थावर, भूत भविष्यत्, प्रकाशमान और अप्रकाशमान और दोनों के मध्यस्थ लोकों और पूर्व आदि दिशाओं की सीमा से बहुत बड़ा है। ऐसे परमात्मा की उपासना से महात्मा लोग अपने आत्मा की उन्नति करते हैं ॥२७॥इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध कुछ भेद से ऋग्वेद−१०।११७।८ का पूर्वार्द्ध है, और पूरा मन्त्र ऋग्वेद का आगे अ० १३।३।२५ में है ॥

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