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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 28
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    अत॑न्द्रो या॒स्यन्ह॒रितो॒ यदास्था॒द्द्वे रू॒पे कृ॑णुते॒ रोच॑मानः। के॑तु॒मानु॒द्यन्त्सह॑मानो॒ रजां॑सि॒ विश्वा॑ आदित्य प्र॒वतो॒ वि भा॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत॑न्द्र: । या॒स्यन् । ह॒रित॑: । यत् । आ॒ऽअस्था॑त् । द्वे इति॑ । रू॒पे इति॑ । कृ॒णु॒ते॒ । रोच॑मान: । के॒तु॒ऽमान् । उ॒त्ऽयन् । सह॑मान: । रजां॑सि। विश्वा॑: । आ॒द‍ि॒त्य॒: । प्र॒ऽवत॑:। वि । भा॒सि॒॥२.२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अतन्द्रो यास्यन्हरितो यदास्थाद्द्वे रूपे कृणुते रोचमानः। केतुमानुद्यन्त्सहमानो रजांसि विश्वा आदित्य प्रवतो वि भासि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अतन्द्र: । यास्यन् । हरित: । यत् । आऽअस्थात् । द्वे इति । रूपे इति । कृणुते । रोचमान: । केतुऽमान् । उत्ऽयन् । सहमान: । रजांसि। विश्वा: । आद‍ित्य: । प्रऽवत:। वि । भासि॥२.२८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 28

    पदार्थ -
    (यत्) जब (अतन्द्रः) निरालसी वह [परमेश्वर] (यास्यन्) चलने की इच्छा करनेवाला [होता है], वह (हरितः) आकर्षक दिशाओं में (आ-अस्थात्) आकर ठहरता है, (रोचमानः) प्रकाशमान वह [जगदीश्वर] (द्वे) दो (रूपे) रूप [जड़ और चेतन जगत्] को (कृणुते) बनाता है। (आदित्य) हे अखण्ड ! [परमेश्वर] (केतुमान्) ज्ञानवान् (उद्यन्) चढ़ता हुआ, और (रजांसि) लोकों को (सहमानः) जीतता हुआ तू (विश्वाः) सब (प्रवतः) आगे बढ़ने की क्रियाओं को (वि भासि) चमका देता है ॥२८॥

    भावार्थ - बुद्धिमान् लोग खोज करके परमात्मा को प्रत्येक दिशा में व्यापक और सब सृष्टि का कर्ता साक्षात् करते हैं। मनुष्य उस जगदीश्वर की उपासना करके अपनी उन्नति का प्रयत्न करें ॥२८॥

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