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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 30
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - पञ्चपदोष्णिग्बृहतीगर्भातिजगती सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    रोच॑से दि॒वि रोच॑से अ॒न्तरि॑क्षे॒ पत॑ङ्ग पृथि॒व्यां रो॑चसे॒ रोच॑से अ॒प्स्वन्तः। उ॒भा स॑मु॒द्रौ रुच्या॒ व्यापिथ दे॒वो दे॑वासि महि॒षः स्व॒र्जित् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रोच॑से । दि॒वि । रोच॑से । अ॒न्तरि॑क्षे । पत॑ङ् । पृ॒थि॒व्याम् । रोच॑से । रोच॑से । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । उ॒भा । स॒मु॒द्रौ । रुच्या॑ । वि । आ॒पि॒थ॒ । दे॒व: । दे॒व । अ॒सि॒ । म॒हि॒ष: । स्व॒:ऽजित् ॥२.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रोचसे दिवि रोचसे अन्तरिक्षे पतङ्ग पृथिव्यां रोचसे रोचसे अप्स्वन्तः। उभा समुद्रौ रुच्या व्यापिथ देवो देवासि महिषः स्वर्जित् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रोचसे । दिवि । रोचसे । अन्तरिक्षे । पतङ् । पृथिव्याम् । रोचसे । रोचसे । अप्ऽसु । अन्त: । उभा । समुद्रौ । रुच्या । वि । आपिथ । देव: । देव । असि । महिष: । स्व:ऽजित् ॥२.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 30

    पदार्थ -
    (पतङ्ग) हे ऐश्वर्यवान् [जगदीश्वर !] तू (दिवि) प्रकाशमान [सूर्य आदि] लोक में (रोचसे) चमकता है, तू (अन्तरिक्षे) मध्य लोक में (रोचसे) चमकता है, तू (पृथिव्याम्) पृथिवी [अप्रकाशमान] लोक में (रोचसे) चमकता है, तू (पृथिव्याम्) पृथिवी [अप्रकाशमान] लोक में (रोचसे) चमकता है, तू (अप्सु अन्तः) प्रजाओं [प्राणियों] के भीतर (रोचसे) चमकता है। (उभा) दोनों (समुद्रौ) समुद्रों [जड़-चेतन समूहों] में (रुच्या) अपनी रुचि [प्रीति] से (वि आपिथ) तू व्यापा है, (देव) हे प्रकाशस्वरूप ! (देवः) तू व्यवहार जाननेवाला, (महिषः) महान् और (स्वर्जित्) सुख का जितानेवाला (असि) है ॥३०॥

    भावार्थ - जैसे परमात्मा अपने ऐश्वर्य से प्रत्येक लोक और पदार्थ में प्रकाशमान होकर सबका धारण-पोषण करता है, वैसे ही हे मनुष्यो ! तुम अपने विद्याबल से व्यवहारकुशल होकर सबको सुख पहुँचाओ ॥३०॥

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