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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    78

    एक॑पा॒द्द्विप॑दो॒ भूयो॒ वि च॑क्र॒मे द्विपा॒त्त्रिपा॑दम॒भ्येति प॒श्चात्। द्विपा॑द्ध॒ षट्प॑दो॒ भूयो॒ वि च॑क्रमे॒ त एक॑पदस्त॒न्वं समा॑सते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑ऽपात् । द्विऽप॑द: । भूय॑: । वि । च॒क्र॒मे॒ । द्विऽपा॑त् । त्रिऽपा॑दम् । अ॒भि । ए॒ति॒ । प॒श्चात् । द्विऽपा॑त् । ह॒ । षट्ऽप॑द: । भूय॑: । वि । च॒क्र॒मे॒ । ते । एक॑ऽपद: । त॒न्व᳡म् । सम् । आ॒स॒ते॒ ॥२.२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकपाद्द्विपदो भूयो वि चक्रमे द्विपात्त्रिपादमभ्येति पश्चात्। द्विपाद्ध षट्पदो भूयो वि चक्रमे त एकपदस्तन्वं समासते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकऽपात् । द्विऽपद: । भूय: । वि । चक्रमे । द्विऽपात् । त्रिऽपादम् । अभि । एति । पश्चात् । द्विऽपात् । ह । षट्ऽपद: । भूय: । वि । चक्रमे । ते । एकऽपद: । तन्वम् । सम् । आसते ॥२.२७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 27
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    (एकपात्) एकरस व्यापक परमेश्वर (द्विपदः) दो प्रकार की स्थितिवाले [जङ्गम स्थावर जगत्] से (भूयः) अधिक आगे (वि) फैलकर (चक्रमे) चला गया, (द्विपाद्) दो [भूत भविष्यत्] में गतिवाला परमात्मा (पश्चात्) फिर (त्रिपादम्) तीन [प्रकाशमान और अप्रकाशमान और मध्य लोकों] में व्याप्तिवाले संसार में (अभि) सब ओर से (एति) प्राप्त होता है, (द्विपात्) दो [जङ्गम और स्थावर जगत्] में व्यापक ईश्वर (ह) निश्चय करके (षट्पदः) छह [पूर्व दक्षिण पश्चिम उत्तर ऊँची और नीची दिशाओं] में स्थितिवाले ब्रह्माण्ड से (भूयः) अधिक आगे (विचक्रमे) निकल गया, (ते) वे [योगी जन] (एकपदः) एकरस व्यापक परमेश्वर की (तन्वम्) उपकार क्रिया को (सम्) निरन्तर (आसते) सेवते हैं ॥२७॥

    भावार्थ

    वह अकेला सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् परमात्मा जङ्गम, स्थावर, भूत भविष्यत्, प्रकाशमान और अप्रकाशमान और दोनों के मध्यस्थ लोकों और पूर्व आदि दिशाओं की सीमा से बहुत बड़ा है। ऐसे परमात्मा की उपासना से महात्मा लोग अपने आत्मा की उन्नति करते हैं ॥२७॥इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध कुछ भेद से ऋग्वेद−१०।११७।८ का पूर्वार्द्ध है, और पूरा मन्त्र ऋग्वेद का आगे अ० १३।३।२५ में है ॥

    टिप्पणी

    २७−(एकपात्) निरन्तरव्यापकः परमेश्वरः (द्विपदः) द्विप्रकारस्थितियुक्ताज् जङ्गमस्थावररूपसंसारात् (भूयः) अधिकतरम् (वि) विस्तीर्य (चक्रमे) जगाम (द्विपात्) द्वयोर्भूतभविष्यतोः पादो गतिर्यस्य सः परमेश्वरः (त्रिपादम्) प्रकाशमानाप्रकाशमानान्तरिक्षलोकेषु व्याप्तिमन्तं संसारम् (अभि) सर्वतः (एति) प्राप्नोति (पश्चात्) पुनः (द्विपाद्) जङ्गमस्थावरे जगति व्यापकः परमेश्वरः (ह) निश्चयेन (षट्पदः) ऊर्ध्वाधः पूर्वादिषड्दिक्षु गतिवतो ब्रह्माण्डात् (भूयः) अधिकतरम् (विचक्रमे) (ते) योगिनः पुरुषाः (एकपदः) निरन्तरव्यापकस्य परमेश्वरस्य (तन्वम्) उपकारक्रियाम् (सम्) सम्यक् (आसते) सेवन्ते ॥

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    विषय

    एकपाद, द्विपाद्, त्रिपाद्, षट्पाद्

    पदार्थ

    १. (एकपात्) = वायु [वायुरेकपात् तस्य आकाशं पाद:-गो०पू० २.८] (द्विपदः) = चन्द्र से [चन्द्रमा द्विपात् तस्य पूर्वपक्षा परपक्षी पादी-गो०पू०२.८] (भूयः विचक्रमे) = अधिक विक्रम व गतिवाला है। (द्विपात्) = चन्द्र (त्रिपादम्) = [आदित्यस्त्रिपात् तस्येमे लोका: पादः-गो०पू० २.८] सूर्य को (पश्चात् अभि एति) = राशिसंक्रमण में पीछे से जा पकड़ता है। २. (द्विपात् ह) = निश्चय से यह चन्द्र (षट्पद:) = [अग्रिः षट्पास्तस्य पृथिव्यान्तरिक्ष द्यौः एष ओषधिवनस्पतय इमानि भूतानि पादा:-गो०पू० २.९] अग्नि से भी (भूयः विचक्रमे) = अधिक विक्रमवाला है, चन्द्रमा से किये जा रहे रस-संचार को ओषधि-वनस्पतियों में होता हुआ भी अग्नि शुष्क नहीं कर पाता। अग्नि की उपस्थिति में चन्द्रमा उनमें रस का संचार करने में समर्थ होता है। (ते) = वे सब चन्द्र, सूर्य, अग्नि [द्विपात्, त्रिपात् व षट्पात्] (एकपदः तन्वं समासते) = वायु के शरीर में सम्यक् आसीन होते हैं। [वायोरग्निः] वायु से ही अग्नि की उत्पत्ति होती है। यह अग्नि ही धुलोक में सूर्यरूप में है तथा उसी की एक किरण अन्तरिक्ष में चन्द्रमारूप से। एवं, यह 'सूर्य, चन्द्र, अग्नि' वायु के ही शरीर में स्थित हैं।

    भावार्थ

    एक ज्ञानी पुरुष ब्रह्माण्ड में 'एकपात् [वायु], द्विपात् [चन्द्र], त्रिपात् [आदित्य] व षटपात् [अग्नि]' के कार्यक्रम को देखता हुआ प्रभु की महिमा का अनुभव करता है।

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    भाषार्थ

    (एकपाद्) एकपाद् परमेश्वर (द्विपदः) द्युलोक और पृथिवी लोक से (भूयः) अधिक (वि चक्रमे) व्यापक है। (द्विपाद्) द्युलोक और पृथिवी लोक (त्रिपाद्मभि) तीन लोकों को अभिमुख कर (पश्चात्) उन के पीछे पीछे (एति) आते हैं, अर्थात् व्याप्ति की दृष्टि से उन से कम हैं। (द्विपाद) द्युलोक और पृथिवी लोक (षट् पद्ः) ६ ऋतुओं से (भूयः) अधिक (वि चक्रमे) व्यापी हैं। (ते) वे सब (एक पदः) एक पद परमेश्वर के (तन्वम्) स्वरूप या विस्तार में (समासते) समा जाते हैं, या सम्यक्तया स्थित हैं।

    टिप्पणी

    [एकपाद् = एकपादरूप। इसी प्रकार द्विपाद, त्रिपादरूप, तथा षट्पादरूप। विचक्रमे = विशेष पाद् विक्षेप करता है, अधिक पग चलता है, अतः अधिक व्याप्त है। षट् पदः = ६ ऋतुओं का निवास केवल पृथिवी पर है, इसलिये द्युलोक और पृथिवी लोक मिल कर ६ ऋतुओं की अपेक्षया अधिक व्याप्ति वाले हैं; मन्त्र २६ में एक देव और द्युलोक और पृथिवी का वर्णन है। मन्त्र २७ में परमेश्वर और कार्य जगत् की सापेक्ष व्याप्ति का वर्णन हुआ हैं]।

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    विषय

    रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।

    भावार्थ

    (एकपाद्) ‘एकपात्’ एक चरण वाला (द्विपदः भूयः विचक्रमे) दो चरण वाले से अधिक गति करता है। और (द्विपात्) ‘द्विपात्’ दो चरण वाला (त्रिपादम्) ‘त्रिपात्’ या तीन चरण वाले को (पश्चात्) पीछे से आकर भी (अभि एति) पकड़ लेता है। (द्विपात् ह) ‘द्विपात्’ दो चरण वाला (षट्पदः भूयः विचक्रमे) ‘षट्पद’ से भी अधिक वेग से चलता है और (ते) वे सब (एकपदः) ‘एकपात्’ एक चरण वाले के (तन्वं) ‘तनु’ शरीर के आश्रय पर ही (सम् आसते) विराजते हैं। वायुरेकपात् तत्य आकाशं पादः। गो० पू० २। ८॥ आदित्यस्त्रिपात् तस्येमे लोकाः पादाः। गो० पू० २। ८॥ चन्द्रमा द्विपात् तस्य पूर्वपक्षा परपक्षौ पादौ। गो० पू० २। ८॥ द्विपाद्वा अयं पुरुषः। श० २। ३। ४। ३३॥ अग्निः षट्पादस्तस्य पृथिव्यन्तरिक्षं धौ एष ओषधिवनस्पतय इमानि भूतानि पादाः। गो० पू० २। ९॥ अर्थात् वायु चन्द्र से भी शीघ्रगामी है और चन्द्र सूर्य को राशि संक्रमण में पीछे से जा पकड़ता है। और यह द्विपात् पुरुष समस्त अग्नि को अपने वश करता है ये सब ‘एकपात्’ परमात्मा या ‘वायु’ सब प्राणों के प्राण पर आश्रित है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    The One sole, self-existent Brahma exceeds the twofold created world of Purusha and Prakrti, more and ever more. In the process of creative evolution the twofold world of Purusha and Prakrti follows up to the threefold world of Purusha, Prakrti and Jiva, more and ever more. The twofold world of Purusha and Prakrti exceeds the six dimensional world of pure Prakrti. Ultimately, the twofold threefold, sixfold, all abide within the One, sole, self-existent, all transcendent Brahma.

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    Translation

    The one-footed strode out more that the two-footed; the two footed falls upon (abhi-i) the three-footed from behind; the two-footéd strode out more than the six-footed; they sit together (about) the body of the one-footed. (See also Rg X.117.8)

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    Translation

    Single-footed one, the air moves swifter than that of biped, the moon strives more to cover its course than that of six footed, follows the triplifooted the sun; biped, the moon the fire, all these take support and are depending on single footed, the air.

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    Translation

    The sole God has surpassed the animate and inanimate worlds. God Who exists in the Past and Future is then realized everywhere in the world consisting of luminous, dark and mid-regions. God, Who pervades the animate and inanimate worlds, has certainly outstepped the world that consists of six directions. The Yogis enjoy the benevolence of the solitary God.

    Footnote

    See Rig, 10-117-8, Atharva, 13-3-25. .Luminous: The Heaven, the Sun. Dark: The Earth. Mid-region: The Atmosphere. Six directions: East, West, North, South, Nadir, Zenith.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २७−(एकपात्) निरन्तरव्यापकः परमेश्वरः (द्विपदः) द्विप्रकारस्थितियुक्ताज् जङ्गमस्थावररूपसंसारात् (भूयः) अधिकतरम् (वि) विस्तीर्य (चक्रमे) जगाम (द्विपात्) द्वयोर्भूतभविष्यतोः पादो गतिर्यस्य सः परमेश्वरः (त्रिपादम्) प्रकाशमानाप्रकाशमानान्तरिक्षलोकेषु व्याप्तिमन्तं संसारम् (अभि) सर्वतः (एति) प्राप्नोति (पश्चात्) पुनः (द्विपाद्) जङ्गमस्थावरे जगति व्यापकः परमेश्वरः (ह) निश्चयेन (षट्पदः) ऊर्ध्वाधः पूर्वादिषड्दिक्षु गतिवतो ब्रह्माण्डात् (भूयः) अधिकतरम् (विचक्रमे) (ते) योगिनः पुरुषाः (एकपदः) निरन्तरव्यापकस्य परमेश्वरस्य (तन्वम्) उपकारक्रियाम् (सम्) सम्यक् (आसते) सेवन्ते ॥

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