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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 44
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - चतुष्पदा पुरःशाक्वरा भुरिग्जगती सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    65

    पृ॑थिवी॒प्रो म॑हि॒षो नाध॑मानस्य गा॒तुरद॑ब्धचक्षुः॒ परि॒ विश्वं॑ बभूव। विश्वं॑ सं॒पश्य॑न्त्सुवि॒दत्रो॒ यज॑त्र इ॒दं शृ॑णोतु॒ यद॒हं ब्रवी॑मि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒थि॒वी॒ऽप्र: । म॒हि॒ष: । नाध॑मानस्य । गा॒तु: । अद॑ब्धऽचक्षु: । परि॑ । विश्व॑म् । ब॒भूव॑ । विश्व॑म् । स॒म्ऽपश्य॑न् । सु॒ऽवि॒दत्र॑: । यज॑त्र: । इ॒दम् । शृ॒णो॒तु॒ । यत् । अ॒हम् । ब्रवी॑मि ॥२.४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृथिवीप्रो महिषो नाधमानस्य गातुरदब्धचक्षुः परि विश्वं बभूव। विश्वं संपश्यन्त्सुविदत्रो यजत्र इदं शृणोतु यदहं ब्रवीमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृथिवीऽप्र: । महिष: । नाधमानस्य । गातु: । अदब्धऽचक्षु: । परि । विश्वम् । बभूव । विश्वम् । सम्ऽपश्यन् । सुऽविदत्र: । यजत्र: । इदम् । शृणोतु । यत् । अहम् । ब्रवीमि ॥२.४४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 44
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    (पृथिवीप्रः) पृथिवी का भरपूर करनेवाला, (महिषः) महान्, (नाधमानस्य) प्रार्थना करते हुए पुरुष के (गातुः) मार्ग, (अदब्धचक्षुः) बे-चूक दृष्टिवाले [परमेश्वर] ने (विश्वम्) सबको (परिबभूव) घेर लिया है। (विश्वम्) सबको (संपश्यन्) निहारता हुआ, (सुविदत्रः) बड़ा लाभ पहुँचानेवाला (यजत्रः) सर्वपूजनीय [परमेश्वर] (इदम्) इस [वचन] को (शृणोतु) सुने, (यत्) जो (अहम्) मैं (ब्रवीमि) कहता हूँ ॥४४॥

    भावार्थ

    सर्वान्तर्यामी, भक्तवत्सल मार्गदर्शक परमात्मा की आराधना से मनुष्य तत्त्वदर्शी, परोपकारी होकर परस्पर सुख बढ़ावें ॥४४॥

    टिप्पणी

    ४४−(पृथिवीप्रः) भूमिपूरकः (महिषः) महान् (नाधमानस्य) प्रार्थयमानस्य (गातुः) मार्गः (अदब्धचक्षुः) अहिंसितदृष्टिः। सर्वदर्शी (विश्वम्) सर्वम् (परिबभूव) आच्छादितवान् (विश्वम्) (सम्पश्यन्) सर्वथावलोकयन् (सुविदत्रः) सुविदेः कत्रन्। उ० ३।१०८। सु+विद्लृ लाभे-कत्रन्। महालाभप्रापकः (यजत्रः) अमिनक्षियजि०। उ० ३।१०५। यजतेः-अत्रन्। सर्वपूजनीयः (इदम्) (शृणोतु) आकर्णयतु (यत्) (अहम्) (ब्रवीमि) कथयामि ॥

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    विषय

    'सुविदत्रो यज्ञत्रः' प्रभु

    पदार्थ

    १. (पृथिवीप्र:) = इस पृथिवी को विविध ओषधि-वनस्पतियों से पूरण करनेवाले (महिषः) = पूजनीय (नाधमानस्य गातु:) = प्रार्थना करनेवाले के मार्गदर्शक (अदब्धचक्षुः) = अहिंसित दृष्टिवाले, सर्वद्रष्टा वे प्रभु (विश्वं परिबभूव) = सारे विश्व को व्याप्त किये हुए हैं। २. (विश्वं संपश्यन) = सारे संसार का सम्यक् निरीक्षण व धारण करते हुए वे प्रभु (सुविदाः) = सब उत्तम वस्तुओं के प्रापण [विद् लाभे] के द्वारा हमारा त्राण करनेवाले हैं। (यजत्र:) = वे प्रभु पूजनीय हैं, संगतिकरण-योग्य हैं और समर्पणीय हैं। प्रभु के प्रति हमें अपना अर्पण कर देना चाहिए। वे प्रभु (यद् अहं ब्रवीमि) = जो मैं प्रार्थना के रूप में कहता हूँ, (इदं शृणोतु) = इस बात को सुनें। मेरी प्रार्थना को सुनने की प्रभु कृपा करें। वस्तुत: मैं इस योग्य बनूँ कि मेरी प्रार्थना सुनी जाए।

    भावार्थ

    वे प्रभु इस पृथिवी को हमारे पालन के लिए सब आवश्यक वस्तुओं से परिपूरित करते हैं। सर्वत्र व्यास वे प्रभु हम सबका ध्यान करते हैं। वे 'सुविदत्र' हैं, हमारी प्रार्थना को सुनते हैं।

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    भाषार्थ

    (पृथिवीप्रः) पृथिवी को धन-धान्यादि से भरपूर करने वाला, (महिषः) महान् (नाधमानस्य) याचना करने वाले का (गातुः) मार्गदर्शक, (अदब्धचक्षुः) अबाधित दृष्टि वाला, (विश्वं परि बभूव) विश्व के सब ओर विद्यमान है। (विश्वं सं पश्यन्) विश्व को सम्यक् देखता हुआ (सुविदत्रः) सम्यक-ज्ञानी (यजत्रः) संसार-यज्ञ का रचयिता परमेश्वर (इदं शृणोतु) इस वचन को सुने (यद) जिसे (अहं ब्रवीमि) मैं कहता हूं।

    टिप्पणी

    [पृथिवीप्रः= पृथिवी + प्रा (पूरणे)। यजत्रः= इज्यते यजति वा तद् यजत्रम् (उणा० ३।१०५)। शृणोतु= सूर्य नहीं सुनता, सूर्यस्थ ब्रह्म सुनता है (यजु० ४०।१७)]।

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    विषय

    रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।

    भावार्थ

    (महिषः) वह महान् परमात्मा (पृथिवीप्रः) समस्त पृथिवी को नाना भोग्य-पदार्थों से पूर्ण करने वाला (नाधमानस्य गातुः) याचना प्रार्थना करने वाले अपने स्तुतिकर्ता उपासक के लिये जाने योग्य मार्ग के समान और (अदब्धचक्षुः) अविनाशी, सर्वेद्रष्टा चक्षु के समान (विश्वं परि बभूव) इस विश्व में व्यापक है। वह परमेश्वर (विश्वं सम्पश्यन्) विश्व को भली प्रकार देखता हुआ (सुविदत्रः) उत्तम ज्ञान और कल्याण दानशील और (यजत्रः) उपासना करने योग्य है वह (यद्) जो कुछ (अहम्) मैं (ब्रवामि) कहूं (इदं) उसको (शृणोतु) सुने।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘बाधमानस्य’ (द्वि०) ‘अद्भुतचक्षुः परिसंबभूव’ (च०) ‘शिवाय नस्तन्वा शर्म यच्छात्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Gracious to earth, mighty generous, guide to the prayerful, inviolable, all-watchful, the Sun rules supreme over the world. Watching the world with favour, kindly knowing and accepting, adorable, may the Lord, I pray, listen to what I say in prayer and adoration.

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    Translation

    The mighty (sun), fulfiller of the earth, the guide of the implorer, one of unsuppressed vision, has encompassed the world. May he, the benevolent, worshipful, beholding all, listen to what I say.

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    Translation

    The great sun fills the earth with heat and moisture etc. This is the unobstructible eye of the person walking and the person praying. This encircles the whole world. Let the man seeing this universe, knowing the things and performing Yajna hear whatever I reveal in this connection.

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    Translation

    The Mighty God, the Filler of the Earth with all sorts of eatables, the Refuge of the distress, the Possessor of unfaltering vision, hath encompassed the whole world. May He, All-seeing, Wise, Charitable and Adorable, listen to the word I utter.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४४−(पृथिवीप्रः) भूमिपूरकः (महिषः) महान् (नाधमानस्य) प्रार्थयमानस्य (गातुः) मार्गः (अदब्धचक्षुः) अहिंसितदृष्टिः। सर्वदर्शी (विश्वम्) सर्वम् (परिबभूव) आच्छादितवान् (विश्वम्) (सम्पश्यन्) सर्वथावलोकयन् (सुविदत्रः) सुविदेः कत्रन्। उ० ३।१०८। सु+विद्लृ लाभे-कत्रन्। महालाभप्रापकः (यजत्रः) अमिनक्षियजि०। उ० ३।१०५। यजतेः-अत्रन्। सर्वपूजनीयः (इदम्) (शृणोतु) आकर्णयतु (यत्) (अहम्) (ब्रवीमि) कथयामि ॥

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