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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 2 के मन्त्र

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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 38
    ऋषि: - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    39

    स॑हस्रा॒ह्ण्यं विय॑तावस्य प॒क्षौ हरे॑र्हं॒सस्य॒ पत॑तः स्व॒र्गम्। स दे॒वान्त्सर्वा॒नुर॑स्युप॒दद्य॑ सं॒पश्य॑न्याति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒ह॒स्र॒ऽअ॒ह्न्यम् । विऽय॑तौ । अ॒स्य॒ । प॒क्षौ । हरे॑: । हं॒सस्य॑ । पत॑त: । स्व॒:ऽगम् । स: । दे॒वान् । सर्वा॑न् । उर॑सि । उ॒प॒ऽदद्य॑ । स॒म्ऽपश्य॑न् । या॒ति॒ । भुव॑नानि । विश्वा॑ ॥२.३८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्राह्ण्यं वियतावस्य पक्षौ हरेर्हंसस्य पततः स्वर्गम्। स देवान्त्सर्वानुरस्युपदद्य संपश्यन्याति भुवनानि विश्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रऽअह्न्यम् । विऽयतौ । अस्य । पक्षौ । हरे: । हंसस्य । पतत: । स्व:ऽगम् । स: । देवान् । सर्वान् । उरसि । उपऽदद्य । सम्ऽपश्यन् । याति । भुवनानि । विश्वा ॥२.३८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 38
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    हिन्दी (2)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    (स्वर्गम्) मोक्षसुख को (पततः) प्राप्त हुए (अस्य) इस [सर्वत्र वर्तमान] (हरेः) हरि [दुःख हरनेवाले] (हंसस्य) हंस [ज्ञानी वा व्यापक परमेश्वर] के (पक्षौ) दोनों पक्ष [ग्रहण करने योग्य कार्य और कारण रूप व्यवहार] (सहस्राह्ण्यम्) सहस्रों दिनोंवाले [अनन्त देशकाल] में (वियतौ) फैले हुए हैं। (सः) वह [परमेश्वर] (सर्वान्) सब (देवान्) [दिव्य गुणों को अपने] (उरसि) हृदय में (उपदद्य) लेकर (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों को (संपश्यन्) निहारता हुआ (याति) चलता रहता है ॥३८॥

    भावार्थ

    जैसे परमेश्वर अन्तर्यामी रूप से अनन्त कार्य और कारण रूप जगत् की निरन्तर सुधि रखता है, वैसे ही मनुष्य परमेश्वर का विचार करता हुआ सब कामों में सदा सावधान रहे ॥३८॥यह मन्त्र आ चुका है-अथर्व० १०।८।१८, और आगे फिर है-अ० १३।३।१४ ॥

    टिप्पणी

    ३८-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अथर्व० १०।८।१८। तत्रैव द्रष्टव्यः। (हंसस्य) वृतॄवदिवचिवसिहनि०। उ० ™३।६२। हन हिंसागत्योः-स। ज्ञानिनो व्यापकस्य परमेश्वरस्य ॥

    Vishay

    Padartha

    Bhavartha

    English (1)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Over a thousand days (infinite in dimensions) are spread the wings of the will and action of the celestial Sun, saviour spirit and redeemer from the oppressions of life, which flies over and beyond the borders of time and space on the path of eternal freedom. Having taken over all divine forces of nature and humanity unto its heart, watching all worlds of existence, it flies on and on.

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