अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
68
स्व॒स्ति ते॑ सूर्य च॒रसे॒ रथा॑य॒ येनो॒भावन्तौ॑ परि॒यासि॑ स॒द्यः। यं ते॒ वह॑न्ति ह॒रितो॒ वहि॑ष्ठाः श॒तमश्वा॒ यदि॑ वा स॒प्त ब॒ह्वीः ॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒स्ति । ते॒ । सू॒र्य॒ । च॒रसे॑ । रथा॑य । येन॑ । उ॒भौ । अन्तौ॑ । प॒रि॒ऽयासि॑ । स॒द्य: । यम् । ते॒ । वह॑न्ति । ह॒रित॑: । बर्हि॑ष्ठा: । श॒तम् । अश्वा॑: । यदि॑। वा॒ । स॒प्त । ब॒ह्वी: ॥2.६॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वस्ति ते सूर्य चरसे रथाय येनोभावन्तौ परियासि सद्यः। यं ते वहन्ति हरितो वहिष्ठाः शतमश्वा यदि वा सप्त बह्वीः ॥
स्वर रहित पद पाठस्वस्ति । ते । सूर्य । चरसे । रथाय । येन । उभौ । अन्तौ । परिऽयासि । सद्य: । यम् । ते । वहन्ति । हरित: । बर्हिष्ठा: । शतम् । अश्वा: । यदि। वा । सप्त । बह्वी: ॥2.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(सूर्य) हे सूर्य ! [लोकों के चलानेवाले पिण्डविशेष] (ते) तेरे (रथाय) रथ [गति विधान] के लिये (चरसे) चलने को (स्वस्ति) कल्याण है, (येन) जिसके कारण से तू (उभौ) दोनों (अन्तौ) अन्तों [आगे-पीछे दोनों ओर, अथवा उत्तरायण और दक्षिणायन मार्ग] को (सद्यः) तुरन्त (परियासि) घूमता चलता है। (यम्) जिस [रथ] को (ते) तेरी (सप्त) सात [शुक्ल, नील, पीत आदि वर्णवाली-मन्त्र ४] (बह्वीः) बहुतसी [भिन्न-भिन्न वर्णवाली] (वहिष्ठाः) अत्यन्त बहनेवाली [शीघ्रगामी] (हरितः) आकर्षक किरणें (यदि वा) अथवा (शतम्) सौ [असंख्य] (अश्वाः) व्यापक गुण [घोड़े समान] (वहन्ति) ले चलते हैं ॥६॥
भावार्थ
सूर्य गोल पिण्ड है, उसका प्रकाश आगे-पीछे सब ओर होता है और वह उत्तरायण और दक्षिणायन मार्ग पर चलता और किरणों द्वारा आकर्षण और वृष्टि आदि करके लोकों का धारण-पोषण करता है, उसी प्रकार मनुष्य विद्या आदि शुभ गुणों से प्रकाशमान होकर आगा-पीछा सोचकर संसार में अपना कर्तव्य पूरा करे ॥६॥
टिप्पणी
६−(स्वस्ति) कल्याणम् (ते) तव (सूर्य) हे रवे (चरसे) गमनाय (रथाय) रथो रंहतेर्गतिकर्मणः-निरु० ९।११। रंहणसामर्थ्याय। गतिविधानाय (येन) (उभौ) (अन्तौ) परं चापरं च देशौ। उत्तरायणदक्षिणायनमार्गौ (परियासि) परीत्य गच्छसि (सद्यः) तत्क्षणम् (यम्) रथम् (ते) तव (वहन्ति) गमयन्ति (हरितः) म० ४। आकर्षकाः किरणाः (वहिष्ठाः) वहितृतमाः। अतिशयेन वहनशीलाः। गन्तृतमाः (शतम्) असंख्याताः (अश्वाः) व्याप्तिगुणाः। तुरङ्गा यथा (सप्त) म० ४। (बह्वीः) बह्व्यः ॥
विषय
सूर्यरथ
पदार्थ
१.हे (सुर्य) = सूर्य। (ते चरसे रथाय) = तेरे निरन्तर चलनेवाले इस रथ के लिए (स्वस्ति) = उत्तम स्थिति हो, (येन) = जिस रथ के द्वारा उभी (अन्तौ सद्यः परियासि) = दोनों अन्तों को, पूर्व व पश्चिम को अथवा उत्तरायण व दक्षिणायन को तू शीघ्र ही जानेवाला होता है। २. (यं ते) = जिस तेरे रथ को (वहिष्ठा: हरित: वहन्ति) = वहन करने में सर्वोत्तम ये किरणरूप अश्व वहन करते हैं। ये किरणें ही (शतं अश्वा:) = तेरे रथ के सैकड़ों घोड़े हैं। (यदि वा) = अथवा (सप्त) = सात रंगोंवाली (बली:) = [बृहि वृद्धी] वृद्धि की कारणभूत किरणें तेरे रथ का वहन करती हैं।
भावार्थ
सूर्य अपने रथ से पूर्व से पश्चिम में अथवा उत्तरायण से दक्षिणायन में गतिवाला होता है। इस सूर्यरथ का वहन करनेवाली किरणे विविध प्रकार के प्राणदायी तत्त्वों को हमारे लिए प्राप्त कराती हुई हमारी वृद्धि का कारण बनती हैं।
भाषार्थ
(सूर्य१) हे सूर्य! (चरसे) चलने के निमित्त (ते रथाय) तेरे रथ के लिये (स्वस्ति) कल्याण हो, (येन) जिस रथ द्वारा (उभौ अन्तौ) दोनों अन्तों अर्थात् क्षितिजों (परि यासि सद्यः) की ओर तू शीघ्र जाता है, या एक दिन में जाता है। (ते) तेरे (यम्) जिस रथ को (हरितः) जलाहरण करने वाले, (वहिष्ठाः) तेज ले जाने वाले (शतम् अश्वाः) सैंकड़ों रश्मिरूपी अश्व, (यदि वा) अथवा (सप्त बह्वीः) बहुबली सात-सप्तरंगी सात किरण रूपी घोड़ियां (वहन्ति) ढोए लिये जाती हैं।
टिप्पणी
[सद्यः= समाने द्यवि दिने। सप्तरंगी सात किरणें= Red (लाल) Yellow (पीत), Orange (नारंगो), Green (हरी), Blue (नीली), Indigo (नील के पौधा से निकले रङ्ग वाली), Violet (बैंगनी)। इन सात किरणों को "बह्वीः” स्त्रीलिङ्ग पद द्वारा कथित किया है। ये सात किरणें मिश्रित होकर अश्वरूपी शुभ्र (सुफैद) रश्मि की जननियां होती हैं। अतः इन्हें स्त्रीलिङ्ग में, तथा "अश्वाः" को पुल्लिङ्ग में वर्णित किया है।] [१."सूर्य ते रथाय" में सूर्य और सूर्य के रथ का वर्णन हुआ है। इस से प्रतीत होता है कि सूर्य और रथ-ये दो वस्तुएं हैं। यजुर्वेद ४०।१७ में आदित्य और आदित्यस्थ पुरुष, ओ३म् और ब्रह्म का वर्णन हुआ है। सम्भवतः सूर्य द्वारा ब्रह्म और रथ द्वारा सूर्यपिण्ड अभिप्रेत हो। परन्तु "परियासि" पद द्वारा सूर्य के गति का वर्णन मन्त्र में हुआ है। परमेश्वर व्यापक है। अतः उस में गति नहीं हो सकती। अथवा "तदेजति तन्नेजति" (यजु० ४०।५) द्वारा समाधान जानना चाहिये।]
विषय
रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ
हे सूर्य ! सूर्य के समान देदीप्यमान आत्मन् ! (ते स्थाय स्वस्ति) तेरे रमणकारी उस स्वरूप के लिये ‘स्वस्ति’ है अर्थात् वह बहुत उत्तम है (येन) जिससे (उभौ अन्तौ) दोनों सीमाओं को (सद्यः) शीघ्र ही (परियासि) प्राप्त होता है। और (ते) तेरे (यम्) जिस स्वरूप को (वहिष्ठाः) वहन करने हारी (हरितः) अति शीघ्रगामिनी, रश्मियों के समान चित्त-वृत्तियां या प्राण-वृत्तियां या (शतम्) सौ, सैकड़ों (अश्वा) व्यापन शील किरणें और (बह्वीः) बड़ी विशाल (सप्त) सात दिशाएं जिस प्रकार सूर्य को धारण करती हैं उसी प्रकार उस आत्मा को (शतम् अश्वाः) सौ व्यापनशील हृदयगत नाड़ियां और (सप्त बह्वीः) सात मुख्य प्राण जिसको (वहन्ति) धारण करते हैं।
टिप्पणी
‘शतं चैका हृदयस्य नाड्यः तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका’। इति उप०। ‘सप्तास्या रेवतीरेवदूष’ इति ऋ०। (प्र०) ‘चरतुरथासि’ (द्वि०) ‘पर्यासि’ (च०) ‘तमारोह सुखयास्यश्वम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
O Sun, all well for your moving chariot by which you relentlessly go over both the bounds of your orbit. All well for you whom your varied lights of a hundred horse-power or, may be, seven abundant lights, transport on the way across space.
Translation
O sun, may it be well with your ever-moving chariot, by which you go instantly to both the ends (of the world), and which your hundred or seven golden horses, good at drawing and fine ones, Carry.
Translation
Let there be pleasant and smooth sailing in the expanding operation of the sun's light by which this swiftly encircles both the ends. The seven great moving rays or the hundred expanding rays carry this sun.
Translation
O soul, hail to thy excellent nature, wherewith thou circlest in a moment both the limits, which is supported by hundreds of attractive, active mental forces, arteries of the heart, and seven vital breaths
Footnote
‘Which’ refers to the nature of the soul. Both the limits; The eastern and western horizons.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(स्वस्ति) कल्याणम् (ते) तव (सूर्य) हे रवे (चरसे) गमनाय (रथाय) रथो रंहतेर्गतिकर्मणः-निरु० ९।११। रंहणसामर्थ्याय। गतिविधानाय (येन) (उभौ) (अन्तौ) परं चापरं च देशौ। उत्तरायणदक्षिणायनमार्गौ (परियासि) परीत्य गच्छसि (सद्यः) तत्क्षणम् (यम्) रथम् (ते) तव (वहन्ति) गमयन्ति (हरितः) म० ४। आकर्षकाः किरणाः (वहिष्ठाः) वहितृतमाः। अतिशयेन वहनशीलाः। गन्तृतमाः (शतम्) असंख्याताः (अश्वाः) व्याप्तिगुणाः। तुरङ्गा यथा (सप्त) म० ४। (बह्वीः) बह्व्यः ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal