अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - आस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
76
उ॒द्यन्र॒श्मीना त॑नुषे॒ विश्वा॑ रु॒पाणि॑ पुष्यसि। उ॒भा स॑मु॒द्रौ क्रतु॑ना॒ वि भा॑सि॒ सर्वां॑ल्लो॒कान्प॑रि॒भूर्भ्राज॑मानः ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒तऽयन् । र॒श्मीन्। आ । त॒नु॒षे॒ । विश्वा॑ । रू॒पाणि॑ । पु॒ष्य॒सि॒ । उ॒भा । स॒मु॒द्रौ । क्रतु॑ना । वि । भा॒सि॒ । सर्वा॑न् । लो॒कान् । प॒रि॒ऽभू: । भ्राज॑मान: ॥2.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
उद्यन्रश्मीना तनुषे विश्वा रुपाणि पुष्यसि। उभा समुद्रौ क्रतुना वि भासि सर्वांल्लोकान्परिभूर्भ्राजमानः ॥
स्वर रहित पद पाठउतऽयन् । रश्मीन्। आ । तनुषे । विश्वा । रूपाणि । पुष्यसि । उभा । समुद्रौ । क्रतुना । वि । भासि । सर्वान् । लोकान् । परिऽभू: । भ्राजमान: ॥2.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
[हे सूर्य !] (उद्यन्) ऊँचा होता हुआ तू (रश्मीन्) किरणों को (आ) सब ओर से (तनुषे) फैलाता है, और (विश्वा) सब (रूपाणि) रूपों [वस्तुओं] को (पुष्यसि) पुष्ट करता है। (उभौ) दोनों (समुद्रौ) समुद्रों [जड़ चेतन रूप संसार] को, (सर्वान् लोकान्) सब लोकों के (परिभूः) चारों ओर घूमता हुआ और (भ्राजमानः) चमकता हुआ तू (केतुना) अपने कर्म से (वि भासि) प्रकाशित कर देता है ॥१०॥
भावार्थ
जिस प्रकार सूर्य ऊँचा होकर सृष्टि को प्रकाशित करके पुष्ट करता है, वैसे ही सब मनुष्य विद्या से सुभूषित होकर परोपकार करें ॥१०॥
टिप्पणी
१०−(उद्यन्) उद्गच्छन् (रश्मीन्) किरणान् (आ) समन्तात् (तनुषे) विस्तारयसि (विश्वा) सर्वाणि (रूपाणि) वस्तूनि (पुष्यसि) वर्धयसि (उभा) द्वौ (समुद्रौ) जड़चेतनरूपौ संसारौ (केतुना) कर्मणा (वि) विविधम् (भासि) दीपयसि (सर्वान्) (लोकान्) (परिभूः) परिग्राहकः। परिभ्राम्यन् (भ्राजमानः) प्रकाशमानः ॥
विषय
'विश्वरूप पोषक' सूर्य
पदार्थ
१. हे सूर्य! (उद्यन्) = उदय होता हुआ तू (रश्मीन् आतनुषे) = प्रकाश की किरणों को चारों ओर विस्तृत करता है। प्रकाश की किरणों के द्वारा (विश्वा रूपाणि) = सब सौन्दयों का [beauty, elegance, grace] तू (पुष्यसि) = पोषण करता है। २. (उभा समुद्रौ) = दोनों समुद्रों को-पृथिवीस्थ समुद्र को तथा अन्तरिक्ष में मेघरूप समुद्र को (क्रतुना) = अपने कर्म के द्वारा तू (विभासि) = दीप्त करता है। सूर्य की क्रिया द्वारा ही अन्तरिक्षस्थ समुद्र की उत्पत्ति होती है तथा वृष्टि होकर नदी प्रवाहों से पृथिवीस्थ समुद्र का पूरण होता है। (सर्वान् लोकान् परिभूः) = तू सब लोकों को चारों ओर से व्यास करता है। (भ्राजमान:) = दीप्त है। सूर्य अपने प्रकाश से सब लोकों को प्रकाशित करता है।
भावार्थ
रश्मियों का विस्तार करता हुआ सूर्य सब सौन्दयों का पोषण करताहै। पृथिवीस्थ व अन्तरिक्षस्थ समुद्रों का निर्माण करता है। सब लोकों को प्रकाश से व्याप्त करता हुआ चमक है।
भाषार्थ
(उद्यन्) उदित होता हुआ (रश्मीन्) रश्मियों को (आ तनुषे) तू फैलाता है, (विश्वा रूपाणि) सब रूपों को (पुष्यसि) तू पुष्ट करता है। (क्रतुना) अपने कर्म या परमेश्वरीय प्रज्ञा द्वारा (उभा समुद्रौ) दोनों समुद्रों को (विभाति) तू प्रकाशित करता है, (भ्राजमानः) प्रदीप्त होता तू (सर्वान् लोकान्) सब लोकों को [प्रकाश द्वारा] (परिभूः) घेर लेता है।
टिप्पणी
[रात्रि में अन्धकार के कारण वस्तुओं के रूप प्रकट नहीं होते, सूर्य के उदित होते प्रकट हो जाते हैं, यह रूपों का पोषण हैं। क्रतुना; क्रतुः कर्मनाम (निघं० २।१), प्रज्ञानाम (निघं० ३।९)। समुद्रौ= अन्तरिक्षस्थ तथा पृथिवीस्थ समुद्र; प्रथा “स उत्तरस्मादधरं समुद्रमपो दिव्या असृजद्वर्ष्या अभि ॥" (ऋ० १०।९८।५), अर्थात् "उसने उत्तर समुद्र; (मेघ) से अधर समुद्र (पार्थिवसमुद्र) की और दिव्य वर्षा जल बरसाएं"। इसी प्रकार "अतूर्तेवद्धं सविता समुद्रम" (ऋ० १०।१४९।१) में "समुद्रम" का अर्थ मेघ है। निरुक्त में इस पर लिखा है कि "अन्तरिक्षेबद्धं मेघम् (१०।३।३२)]।
विषय
रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ
हे आदित्य आत्मन् ! तू (उद्यन्) उदित होता हुआ सूर्य के समान ही (रश्मीन्) रश्मियों को (आ तनुषे) चारों ओर फेंकता है और (विश्वा रूपाणि) समस्त रूपों = प्राणियों को (पुष्यसि) पुष्ट करता है और (क्रतुना) ज्ञान और कर्म सामर्थ्य से (भ्राजमानः) अति प्रदीप्त होकर (सर्वान् लोकान् परिभूः) समस्त लोकों में व्यापक या गतिमान् सूर्य के समान कामचारी होकर (उभा समुदौ) दोनों समुदों, इह और अमुक दोनों लोकों को (विभासि) प्रकाशित करता है। आदित्यो ह वै बाह्यः प्राण उदयति। एष ह्येनं चाक्षुषं प्राणमनुगृह्णानः। इत्यादि प्रश्न० उप० ३। ८॥
टिप्पणी
(द्वि०) ‘प्रजाः सर्वाः विपश्यसि’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
Rising, O divine Sun, you spread the rays of light and nourish all forms of life with energy and pranic vitality. Lord over all, shining with self-refulgence and acts of divinity, you enlighten the people and all regions of the world and vest both oceans of earth and sky with splendour.
Translation
While rising, you spread out your rays; you develop all the forms; blazing and overpowering, you illumine both the oceans and all the worlds with your might.
Translation
The sun rising spreads rays of light, nourishes all the forms and shapes, illumines both the oceans (the ocean on the earth and ocean in the atmosphere) through its Yajna the operation, encompassing all the spheres by refulgence.
Translation
O soul, rising, thou spreadest out thy grandeurs, thou nourishes! all objects. Thou with thy knowledge and action illumest bolh the oceans, encompassing all spheres with thy refulgence!
Footnote
‘Both oceans: This world and the next, or the animate and inanimate world.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(उद्यन्) उद्गच्छन् (रश्मीन्) किरणान् (आ) समन्तात् (तनुषे) विस्तारयसि (विश्वा) सर्वाणि (रूपाणि) वस्तूनि (पुष्यसि) वर्धयसि (उभा) द्वौ (समुद्रौ) जड़चेतनरूपौ संसारौ (केतुना) कर्मणा (वि) विविधम् (भासि) दीपयसि (सर्वान्) (लोकान्) (परिभूः) परिग्राहकः। परिभ्राम्यन् (भ्राजमानः) प्रकाशमानः ॥
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