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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 8
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - जगती सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    68

    स॒प्त सूर्यो॑ ह॒रितो॒ यात॑वे॒ रथे॒ हिर॑ण्यत्वचसो बृह॒तीर॑युक्त। अमो॑चि शु॒क्रो रज॑सः प॒रस्ता॑द्वि॒धूय॑ दे॒वस्तमो॒ दिव॒मारु॑हत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त । सूर्य॑: । ह॒रित॑: । यात॑वे । रथे॑ । हिर॑ण्यऽत्वचस: । बृ॒ह॒ती: । अ॒यु॒क्त॒ । अमो॑चि । शु॒क्र: । रज॑स: । प॒रस्ता॑त् । वि॒ऽधूय॑ । दे॒व: । तम॑: । दिव॑म् । आ । अ॒रु॒ह॒त्॥2.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्त सूर्यो हरितो यातवे रथे हिरण्यत्वचसो बृहतीरयुक्त। अमोचि शुक्रो रजसः परस्ताद्विधूय देवस्तमो दिवमारुहत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त । सूर्य: । हरित: । यातवे । रथे । हिरण्यऽत्वचस: । बृहती: । अयुक्त । अमोचि । शुक्र: । रजस: । परस्तात् । विऽधूय । देव: । तम: । दिवम् । आ । अरुहत्॥2.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    (सूर्यः) सूर्य [लोकों के चलानेवाले पिण्ड विशेष] ने (सप्त) सात [शुक्ल, नील, पीत आदि वर्णवाली-म० ४], (हिरण्यत्वचसः) तेज की त्वचा [ढक्कन] रखनेवाली, (बृहतीः) बड़ी [दूर-दूर जानेवाली] (हरितः) आकर्षक किरणों को (रथे) अपने रथ [गति विधान] में (यातवे) चलने के लिये (अयुक्त) जोड़ा है। (शुक्रः) तेजस्वी वह (रजसः) धुन्धलेपन से (परस्तात्) दूर (अमोचि) छोड़ा गया है और (देवः) प्रकाशमान [सूर्य] (तमः) अन्धकार को (विधूय) हिला डालकर (दिवम्) आकाश में (आ अरुहत्) ऊँचा हुआ है ॥८॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य दूर पहुँचनेवाली किरणों द्वारा अन्धकार को नाश करके अनेक लोकों को आकर्षण में रखकर ऊँचा ठहरा है, वैसे ही मनुष्य अविद्या मिटाकर विद्या का प्रकाश करके प्रतिष्ठा प्राप्त करे ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(सप्त) शुक्लनीलपीतादिवर्णयुक्ताः-म० ४ (सूर्यः) लोकानां प्रेरकः पिण्डविशेषः (हरितः) आकर्षकान् किरणान् (यातवे) गन्तुम् (रथे) म० ६। गतिविधाने (हिरण्यत्वचसः) त्वच संवरणे-असुन्। तेजोमयत्वग्युक्ताः (बृहतीः) महतीः। दूरगमनाः (अयुक्त) योजितवान् (अमोचि) अत्याजि (शुक्रः) प्रकाशमानः (रजसः) अन्धकारात्। धूम्रवर्णात् (परस्तात्) दूरे (विधूय) पृथक् कम्पयित्वा (देवः) प्रकाशमानः सूर्यः (तमः) अन्धकारम् (दिवम्) आकाशम् (आ अरुहत्) आरूढवान् ॥

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    विषय

    'समाश्व' सूर्य

    पदार्थ

    १. (सूर्य:) = सूर्य यातवे मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए (रथे) = अपने रथ में (सप्त) = सात रंगोंवाली (हिरण्यत्वचस:) = ज्योति के सम्पर्कवाली (बृहती) = वृद्धि की कारणभूत (हरित:) = किरणों को (अयुक्त) = जोतता है। सूर्य के रथ में किरणरूप अश्व जुते हैं। ये सात रंगोवाले हैं, इसी से सूर्य का नाम 'सप्ताश्व' हो गया है। इन किरणों का हिरण्य-ज्योति के साथ सम्पर्क है। हमारी वृद्धि का ये कारण बनती हैं। २. (शुक्रः) = वह दीस सूर्य (रजसः) = सब अन्धकार [gloom] से (परस्तात् अमोचि) = सुदूर छोड़ा गया है। यह (देव:) = प्रकाशमय सूर्य (तमः विधूय) = सब अन्धकार को कम्पित करके (दिवं आरोहत) = द्युलोक में आरुढ़ हुआ है।

    भावार्थ

    सूर्य समाश्व है, इसकी सात किरणें हमारे लिए प्राणदायी तत्त्वों को प्राप्त कराती हुई हमारी वृद्धि का कारण बनती हैं। अन्धकार से परे वर्तमान यह सूर्य धुलोक में आरुढ़ हुआ है।

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    भाषार्थ

    (सूर्यः) सूर्य ने (यातवे) चलने के लिये, (रथे) रथ में, (हिरण्यः त्वचसः) सुवर्णसमान चमकीली, (बृहतीः) और महाबली, (सप्त हरितः) सात किरणों को (अयुक्त) जोता है। (रजसः) अन्तरिक्ष-लोक के (परस्तात्) परे के भाग में (शुक्रः) चमकीला सूर्य (अमोचि) अन्धकार से मुक्त हो गया है, (देवः) चमकीला सूर्य (तमः विधूय) तम को हटा कर (दिवम्, आरुहत्) द्युलोक में आरूढ़ हुआ है।

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    विषय

    रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।

    भावार्थ

    (सूर्यः) सूर्य, सूर्य के समान तेजस्वी आत्मा (सप्त) सात (हिरण्यवचसः) सुवर्ण के समान तेजोमय आवरण वाली (बृहतीः) बड़ी विशाल कार्य करने में समर्थ सात (हरितः) हरण-शील प्राणशक्तियों को (यातवे) अपनी जीवन यात्रा के लिये (रथे) अपने रमण साधन देह में घोड़ों को रथी के समान (अयुक्त) जोड़ता है और वही (रजसः परस्तात्) सब लोकों के परे विद्यमान सूर्य के समान (शुक्रः) अति शुचि, दीप्तिमान् होकर (रजसः परस्तात्) रजो गुण से परे (अमोचि) मुक्त हो जाता है और वही (तमः) तमः = अन्धकार के समान तमोगुण को (विधूय) दूर करके (दिवम्) द्यौलोक या प्रकाशस्वरूप मोक्षमय धाम परमेश्वर को (आरुहत्) प्राप्त होता है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘सप्त शूरः’ (तृ०) ‘शक्रः’ (द्वि०) ‘अयुनक्त’, इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    The sun has yoked seven varied mighty radiant lights of golden hue to its chariot to move on..Pure, powerful and bright, it dispels darkness far off beyond the earth and its atmosphere and, having left it there, rises high to the Zenith in heaven.

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    Translation

    The sun has yoked in his chariot seven golden-coloured large bay steeds for his journey. The bright one has been released from dimness. Dispelling the darkness away, the divine one has ascended the sky.

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    Translation

    The sun has harnessed in its huge structure of beams seven great, of golden radiance, rays to expand and move. This brilliant gorgeous body dispelling the darkness leaves it away from the earth and mounts on the heavenly region.

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    Translation

    The soul harnesses to the body, for the journey of life, seven attractive, brilliant, mighty forces of breath. It gets distant freedom from passion, emotion. Casting aside darkness, the soul attains to God

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(सप्त) शुक्लनीलपीतादिवर्णयुक्ताः-म० ४ (सूर्यः) लोकानां प्रेरकः पिण्डविशेषः (हरितः) आकर्षकान् किरणान् (यातवे) गन्तुम् (रथे) म० ६। गतिविधाने (हिरण्यत्वचसः) त्वच संवरणे-असुन्। तेजोमयत्वग्युक्ताः (बृहतीः) महतीः। दूरगमनाः (अयुक्त) योजितवान् (अमोचि) अत्याजि (शुक्रः) प्रकाशमानः (रजसः) अन्धकारात्। धूम्रवर्णात् (परस्तात्) दूरे (विधूय) पृथक् कम्पयित्वा (देवः) प्रकाशमानः सूर्यः (तमः) अन्धकारम् (दिवम्) आकाशम् (आ अरुहत्) आरूढवान् ॥

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