अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 16
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - आर्षी गायत्री
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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उदु॒ त्यं जा॒तवे॑दसं दे॒वं व॑हन्ति के॒तवः॑। दृशे विश्वा॑य॒ सूर्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊं॒ इति॑ । त्यम् । जा॒तऽवे॑दसम् । दे॒वम् । व॒ह॒न्ति॒ । के॒तव॑: । दृ॒शे । विश्वा॑य । सूर्य॑म् ॥२.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ऊं इति । त्यम् । जातऽवेदसम् । देवम् । वहन्ति । केतव: । दृशे । विश्वाय । सूर्यम् ॥२.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(केतवः) किरणें (त्यम्) उस (जातवेदसम्) उत्पन्न पदार्थों को प्राप्त करनेवाले, (देवम्) चलते हुए (सूर्यम्) रविमण्डल को (विश्वाय दृशे) सबके देखने के लिये (उ) अवश्य (उत् वहन्ति) ऊपर ले चलती हैं ॥१६॥
भावार्थ
जिस प्रकार सूर्य किरणों के आकर्षण से ऊँचा होकर सब पदार्थों को प्रकट करता है, वैसे ही मनुष्य विद्या और धर्म से उन्नति करके सबका उपकार करें ॥१६॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१।५०।१, यजु० ७।४१, ३३।३१ तथा सामवेद पू० १।३।५। तथा निरु० १२।१५। में व्याख्यात है ॥
टिप्पणी
१६−(उत्) ऊर्ध्वम् (उ) निश्चये (त्यम्) तम् (जातवेदसम्) यो जातान् पदार्थान् विन्दति तम् (देवम्) गच्छन्तम् (वहन्ति) गमयन्ति (केतवः) किरणाः (दृशे) द्रष्टुम् (विश्वाय) सर्वस्मै जगते (सूर्यम्) रविमण्डलम् ॥
विषय
जातवेदा देवः सूर्य' का धारण
पदार्थ
१. (केतवः) = ज्ञानीपुरुष (त्यम्) = उस (जातवेदसम्) = [जातेजाते विद्यते] सर्वत्र व्याप्त [जातं जातं वेत्ति] सर्वज्ञ प्रभु को (उ) = निश्चय से (उद् वहन्ति) = हृदय में धारण करते हैं। प्रभु (देवम्) = प्रकाशमय हैं, (सूर्यम्) = सूर्यसम ज्योति हैं, अथवा सबको हृदयस्थरूपेण प्रेरणा देनेवाले हैं [सुवति]। २. ये ज्ञानी पुरुष इसलिए प्रभु को हदयों में धारण करते हैं, जिससे (दृशे विश्वाय) = सम्पूर्ण संसार का दर्शन कर सकें। प्रभु के हृदय में होने पर यह सब-कुछ ज्ञात हो ही जाता है।
भावार्थ
ज्ञानी लोग हृदयों में प्रभु का स्मरण करते हैं, जिससे सम्पूर्ण संसार का ज्ञान प्राप्त कर सकें।
भाषार्थ
(केतवः) रश्मियां (त्यम्) उस (जातवेदसम्) ऐश्वर्योत्पादक, (देवम्) द्योतमान (सूर्यम्) सूर्य को, (विश्वाय दृशे) सब को दर्शाने के लिये, (उद् उ वहन्ति) ऊपर आकाश या द्युलोक में चला रही हैं।
टिप्पणी
[(यजू० ७।४१; ८।४१; ३३।३१; अथर्व० २०।४७।१३)। इन स्थानों में कहीं-कहीं मन्त्र के आध्यात्मिक अर्थ भी हैं, प्रकरण की दृष्टि से]।
विषय
रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ
(केतवः) ज्ञान-वान् पुरुष (त्यं जातवेदसम्) उस परम सर्वज्ञ परमेश्वर ‘जातवेदा’ को (उद् वहन्ति) उत्तम लोक में प्राप्त करते हैं और (विश्वाय सूर्यम्) समस्त संसार के प्रेरक सूर्य परमात्मा को (दृशे) साक्षात् दर्शन करने का यत्न करते हैं।
टिप्पणी
(प्र०) ऋग्वेदेऽस्य सूक्तस्य प्रस्कण्वः काण्वः ऋषिः। सूर्यो देवता।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
That watchful sun, divine illuminant of all things in existence, that infinite giver, the radiations of cosmic energy bear and carry on, and that, the rays of light irradiate for all the world to see (for their own benefit).
Translation
The banners of glory speak high of God, who knows all that lives, that all may look on Him. (See also Rg. 1.50.1)
Translation
The rays for the looking of people glow this sun which is luminous and is present in all the produced objects by medium of heat.
Translation
The learned exalt the Omniscient God, and exert to visualize Him, the Urger of the whole universe.
Footnote
See Rig, 1-50-1, Yajur, 7-4-1, Atharva, 20-47-13.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(उत्) ऊर्ध्वम् (उ) निश्चये (त्यम्) तम् (जातवेदसम्) यो जातान् पदार्थान् विन्दति तम् (देवम्) गच्छन्तम् (वहन्ति) गमयन्ति (केतवः) किरणाः (दृशे) द्रष्टुम् (विश्वाय) सर्वस्मै जगते (सूर्यम्) रविमण्डलम् ॥
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