अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 31
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
77
अ॒र्वाङ्प॒रस्ता॒त्प्रय॑तो व्य॒ध्व आ॒शुर्वि॑प॒श्चित्प॒तय॑न्पत॒ङ्गः। विष्णु॒र्विचि॑त्तः॒ शव॑साधि॒तिष्ठ॒न्प्र के॒तुना॑ सहते॒ विश्व॒मेज॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्वाङ् । प॒रस्ता॑त् । प्रऽय॑त: । वि॒ऽअ॒ध्वे । आ॒शु: । वि॒प॒:ऽचित् । प॒तय॑न् । प॒त॒ङ् । विष्णु॑: । विऽचि॑त्त: । शव॑सा । अ॒धि॒ऽतिष्ठ॑न् । प्र । के॒तुना॑ । स॒ह॒ते॒ । विश्व॑म् । एज॑त् ॥२.३१॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्वाङ्परस्तात्प्रयतो व्यध्व आशुर्विपश्चित्पतयन्पतङ्गः। विष्णुर्विचित्तः शवसाधितिष्ठन्प्र केतुना सहते विश्वमेजत् ॥
स्वर रहित पद पाठअर्वाङ् । परस्तात् । प्रऽयत: । विऽअध्वे । आशु: । विप:ऽचित् । पतयन् । पतङ् । विष्णु: । विऽचित्त: । शवसा । अधिऽतिष्ठन् । प्र । केतुना । सहते । विश्वम् । एजत् ॥२.३१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(परस्तात्) दूर से लेकर (अर्वाङ्) समीप में वर्तमान, (व्यध्वे) विविध मार्ग में (प्रयतः) फैला हुआ, (आशुः) शीघ्रगामी, (विपश्चित्) बुद्धिमान्, (पतयन्) पराक्रम करता हुआ, (पतङ्गः) ऐश्वर्यवान्, (विष्णुः) सर्वव्यापक (विचित्तः) विविध प्रकार अनुभव किया गया, (शवसा) बल से (अधितिष्ठन्) अधिष्ठाता होता हुआ [परमेश्वर] (केतुना) अपनी बुद्धिमत्ता से (एजत्) चेष्टा करते हुए (विश्वम्) सब [जगत्] को (प्र सहते) जीत लेता है ॥३१॥
भावार्थ
हे विद्वानो ! उस सर्वत्र वर्तमान महाबलवान् परमात्मा की उपासना से व्यवहारकुशल होकर अपने आत्मा को बली और महान् बनाओ ॥३१॥
टिप्पणी
३१−(अर्वाङ्) अवरे समीपे वर्तमानः (परस्तात्) दूरात् (प्रयतः) यमु-क्त। विस्तृतः (व्यध्वे) उपसर्गादध्वनः। पा० ५।४।८५। इत्यच्। विविधे मार्गे (आशुः) शीघ्रगामी (विपश्चित्) मेधावी (पतयन्) पराक्रमं कुर्वन् (पतङ्गः) ऐश्वर्यवान् (विष्णुः) सर्वव्यापकः (विचित्तः) विविधं ज्ञातः (शवसा) बलेन (अधितिष्ठन्) अधिष्ठाता सन् (केतुना) प्रज्ञया (प्र सहते) पराजयते (विश्वम्) सर्वं जगत् (एजत्) चेष्टमानम् ॥
विषय
'आशु, विपश्चित्' प्रभु
पदार्थ
१. वे प्रभु (अर्वाङ् परस्तात्) = समीप-से-समीप होते हुए दूर-से-दूर हैं [तहरे तद्वन्तिके]। (व्यध्वे प्रयत:) = इस विस्तृत मार्ग में सर्वत्र फैले हुए हैं-सर्वव्यापक हैं। (आशः) = सर्वत्र व्यासिवाले (पतयन्) = सारे ब्रह्माण्ड के ऐश्वर्यवाले होते हुए वे प्रभु (विपश्चित्) = ज्ञानी हैं और (पतङ्गः) = सम्पूर्ण ऐश्वर्यों को प्राप्त हैं। २. (विष्णः) = सर्वत्र व्यास वे प्रभु (विचित्तः) = [विशिष्टं चितं यस्मात्] विशिष्ट चेतना को प्राप्त करानेवाले हैं। शवसा-अपने बल से अधितिष्ठन-सम्पूर्ण संसार के अधिष्ठाता होते हुए प्रभु एजत् विश्वम्-गति करते हुए सारे ब्रह्माण्ड को (केतुना) = अपने ज्ञान से (प्रसहते) = [bear, support, bearup] धारण करते हैं।
भावार्थ
दूर-से-दूर व समीप-से-समीप वर्तमान वे प्रभु ही सारे ब्रह्माण्ड के ईश्वर हैं। वे सर्वत्र व्याप्त, सर्वज्ञ प्रभु ही इसका धारण कर रहे हैं।
भाषार्थ
(प्रयतः) पवित्र, (विचित्तः) प्रकृति जन्य चित्त से विगत अर्थात् रहित, तो भी (विपश्चित्) मेधावी, (व्यध्वे) प्रेय मार्ग के विरुद्ध श्रेय मार्ग में वर्तमान उपासक में, (पतङ्गः) पक्षी के सदृश (परस्तात्) परे से (अर्वाङ्) उपासक की ओर (आशुः पतयन्) शीघ्र मानो उड़ कर आता हुआ, तथा (शवसा) बलपूर्वक (अधितिष्ठन्) उस का अधिष्ठाता होता हुआ (विष्णुः) सर्वव्यापक परमेश्वर, (केतुना) प्रज्ञा और कर्म द्वारा, (एजत्) गतिशील (विश्वम्) विश्व पर (प्र सहते) विजय पाए हुए है।
टिप्पणी
[मन्त्र में कविता रूप में सूर्यपिण्ड तथा परमेश्वर का सम्मिलित वर्णन हैं। “विपश्चित्" शब्द परमेश्वर में चरितार्थ होता है, सूर्य पिण्ड में नहीं। सूर्य पिण्ड मेधावी नहीं। न ही सूर्य पिण्ड केतु अर्थात् प्रज्ञा से सम्पन्न है। वेदानुसार परमेश्वर-पुरुष, सूर्य में, अधिष्ठातृरूप से वर्णित है (यजु ४०।१७)। अतः वेद में प्रायः अधिष्ठेय-सूर्य पिण्ड और अधिष्ठाता-परमेश्वर पुरुष का मिला जुला वर्णन भी होता है। इसी प्रकार सूक्त के भावी मन्त्रों में भी जानना चाहिये। मन्त्र में परमेश्वर परक अर्थ किया है सूर्यार्थ भी स्पष्टतया प्रतीत होता है। विष्णु पद सूर्य पिण्डार्थक भी है। सूर्य पक्ष में "व्यध्वे" का अर्थ है "मार्ग रहित आकाश में"]।
विषय
रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ
(पतङ्गः) योग सिद्ध ऐश्वर्य विभूति को प्राप्त होनेहारा सूर्य के समान योगी आत्मा (अर्वाङ्) नीचे या समीप, उरे या आगे (परस्तात्) दूर, परे और (व्यध्वे) विशेष मार्ग के बीच में भी (प्रयतः) उत्तम रीति से प्राणायाम, यम, नियम आदि अष्टांगों में जितेन्द्रिय होकर (आशुः) कार्य करने में शीघ्रकारी प्रबल, वेगवान् (विपश्चित्) ज्ञानसम्पन्न मेधावी होकर (पतयन्) विभूति और ऐश्वर्यवान् होता हुआ या ब्रह्म मार्ग में जाता हुआ (विष्णुः) अपने ही अन्तरात्मा में प्रविष्ट होकर विष्णुस्वरूप, ध्यानी (विचितः) विशेष रूप से संज्ञानवान्, सम्यग्दर्शी होकर (शवसा) अपने बल, सामर्थ्य से (अधितिष्ठन्) सब पर वश करता हुआ (केतुना) अपने ज्ञान तेज से (विश्वम् एजत्) समस्त गतिमान् संसार को (प्रसहते) अपने वश करता है।
टिप्पणी
(प्र०) ‘अर्वाक्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
Closest from the farthest, ever on the move on way, instant in action, all enlightened, Bird of light on cosmic wings, all pervasive, all aware, abiding by your own potential, you rule over the dynamic universe with your self-manifested power and glory.
Translation
Swift, excellent observer, the flying one, flying hitherward from afar, sqaring in the mid-course, pervading, extraordinarily thoughtful, subduing others with might, he, with his appearance, overbears all that moves.
Translation
The speedy, Yajna-like pure sun moving in its course and and striving in operation, being pervasive, wonderful and having striving in operation, being pervasive, wonderful and having control over other bodies supports by its rays or supporting power the worlds which move.
Translation
God, Who pervades all places, distant and near, is Alert, Wise, Valorous, Dignified, Omnipresent, Realizable in various ways, and the Lord of all through His power, conquers through His knowledge, all that moves.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३१−(अर्वाङ्) अवरे समीपे वर्तमानः (परस्तात्) दूरात् (प्रयतः) यमु-क्त। विस्तृतः (व्यध्वे) उपसर्गादध्वनः। पा० ५।४।८५। इत्यच्। विविधे मार्गे (आशुः) शीघ्रगामी (विपश्चित्) मेधावी (पतयन्) पराक्रमं कुर्वन् (पतङ्गः) ऐश्वर्यवान् (विष्णुः) सर्वव्यापकः (विचित्तः) विविधं ज्ञातः (शवसा) बलेन (अधितिष्ठन्) अधिष्ठाता सन् (केतुना) प्रज्ञया (प्र सहते) पराजयते (विश्वम्) सर्वं जगत् (एजत्) चेष्टमानम् ॥
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