Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 2 के मन्त्र

मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 25
    ऋषि: - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - ककुम्मत्यास्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    35

    रोहि॑तो दिव॒मारु॑ह॒त्तप॑सा तप॒स्वी। स योनि॒मैति॒ स उ॑ जायते॒ पुनः॒ स दे॒वाना॒मधि॑पतिर्बभूव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रोहि॑त: । दिव॑म् । आ । अ॒रु॒ह॒त् । तप॑सा । त॒प॒स्वी । स: । योनि॑म् । आ । ए॒ति॒ । स: । ऊं॒ इति॑ । जा॒य॒ते॒ । पुन॑: । स: । दे॒वाना॑म् । अधि॑ऽपति: । ब॒भू॒व॒ ॥२.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रोहितो दिवमारुहत्तपसा तपस्वी। स योनिमैति स उ जायते पुनः स देवानामधिपतिर्बभूव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रोहित: । दिवम् । आ । अरुहत् । तपसा । तपस्वी । स: । योनिम् । आ । एति । स: । ऊं इति । जायते । पुन: । स: । देवानाम् । अधिऽपति: । बभूव ॥२.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 25
    Acknowledgment

    हिन्दी (2)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    (तपस्वी) ऐश्वर्यवान् (रोहितः) सबका उत्पन्न करनेवाला [परमेश्वर] (तपसा) अपने सामर्थ्य से (दिवम्) प्रत्येक व्यवहार में (आ) सब ओर से (अरुहत्) प्रकट हुआ है। (सः) वह (योनिम्) प्रत्येक कारण [कारण के कारण] को (आ एति) प्राप्त होता है, (सः उ) वह ही (पुनः) फिर (जायते) बाहिर दीखता है, (सः) वही (देवानाम्) चलनेवाले लोकों का (अधिपतिः) बड़ा स्वामी (बभूव) हुआ है ॥२५॥

    भावार्थ

    परमेश्वर अपने सामर्थ्य से कारणों का आदि कारण होकर और बाहिर से भी सब कार्यरूप जगत् का नियन्ता बनकर सब लोकों का स्वामी है ॥२५॥

    टिप्पणी

    २५−(रोहितः) सर्वोत्पादकः परमेश्वरः (दिवम्) प्रत्येकव्यवहारम् (आ) समन्तात् (अरुहत्) प्रादुरभवत् (तपसा) स्वसामर्थ्येन (तपस्वी) ऐश्वर्यवान् (योनिम्) कारणम् (आ) समन्तात् (एति) प्राप्नोति (सः) (उ) एव (जायते) प्रादुर्भवति (पुनः) पश्चात् (सः) (देवानाम्) गन्तॄणां लोकानाम् (अधिपतिः) सर्वस्वामी (बभूव) ॥

    Vishay

    Padartha

    Bhavartha

    English (1)

    Subject

    Rohita, the Sun

    Meaning

    Rohita, self-refulgent light of life, the Sun, burning and blazing with its own creative and energising light and warmth of life, rises to the heavenly heights of the universe. It rises to the origin of all originative causes, takes its own self manifestive birth with things born again and again, and still remains the same highest ordainer of the divine forces of nature and noble humanity.

    Top