अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - जगती
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
72
यत्प्राङ्प्र॒त्यङ्स्व॒धया॒ यासि॒ शीभं॒ नाना॑रूपे॒ अह॑नी॒ कर्षि॑ मा॒यया॑। तदा॑दित्य॒ महि॒ तत्ते॒ महि॒ श्रवो॒ यदेको॒ विश्वं॒ परि॒ भूम॒ जाय॑से ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । प्राङ् । प्र॒त्यङ् । स्व॒धया॑ । यासि॑ । शीभ॑म् । नाना॑रूपे॒ इति॒ नाना॑ऽरूपे । अह॑नी॒ इति॑ । कर्षि॑ । मा॒यया॑ । तत् । आ॒दि॒त्य॒ । महि॑ । तत् । ते॒ । महि॑ । श्रव॑: । यत् । एक॑: । विश्व॑म् । परि॑ । भूम॑ । जाय॑से ॥2.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्प्राङ्प्रत्यङ्स्वधया यासि शीभं नानारूपे अहनी कर्षि मायया। तदादित्य महि तत्ते महि श्रवो यदेको विश्वं परि भूम जायसे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । प्राङ् । प्रत्यङ् । स्वधया । यासि । शीभम् । नानारूपे इति नानाऽरूपे । अहनी इति । कर्षि । मायया । तत् । आदित्य । महि । तत् । ते । महि । श्रव: । यत् । एक: । विश्वम् । परि । भूम । जायसे ॥2.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जिस कारण से कि तू (प्राङ्) सन्मुख [वा पूर्व में] जाता हुआ और (प्रत्यङ्) पीछे [वा पश्चिम में] जाता हुआ (स्वधया) अपनी धारण शक्ति से (शीभम्) शीघ्र (यासि) चलता है, और (मायया) अपनी बुद्धिमत्ता से (नानारूपे) विरुद्ध रूपवाले (अहनी) दोनों दिन राति को (कर्षि) तू बनाता है। (तत्) उसी कारण से, (आदित्य) हे प्रकाशस्वरूप परमेश्वर ! (तत्) वह (ते) तेरी (महि महि) बड़ी-बड़ी (श्रवः) कीर्ति है, (यत्) कि (एकः) एक ही तू (विश्वम्) सब (भूम परि) बहुतायत [संसार] में सब ओर से (जायसे) प्रकट होता है ॥३॥
भावार्थ
अद्वितीय परमात्मा सृष्टि के आदि अन्त और स्थिति में वर्तमान रहकर विरुद्ध स्वभाववाले प्रकाश और अन्धकारयुक्त दिन-राति को बनाता है, वैसे ही वह जड़ और चैतन्य जगत् को रचकर सबका पोषण करता है, उसी प्रकार मनुष्य विघ्नों को हटा कर आत्मबल बढ़ा कर पुरुषार्थ करें ॥३॥
टिप्पणी
३−(यत्) यस्मात् कारणात् (प्राङ्) आभिमुख्येन पूर्वदिशि वा गच्छन् (प्रत्यङ्) पश्चात् पश्चिमदिशि वा गच्छन् (स्वधया) स्वधारणशक्त्या (यासि) गच्छसि (शीभम्) क्षिप्रम्-निघ० २।१५। (नानारूपे) विरुद्धरूपे (अहनी) अहोरात्रे (कर्षि) करोषि (मायया) प्रज्ञया (तत्) तस्मात् कारणात् (आदित्य) हे आदीप्यमान परमेश्वर (महि) महत् (तत्) (महि) (श्रवः) कीर्तिः (यत्) (एकः) अद्वितीयः। असहायः (विश्वम्) (सर्वम्) (परि) अभितः (भूम) बहुत्वं संसारम् (जायसे) प्रादुर्भवसि ॥
विषय
'प्राङ्-प्रत्यङ्'व्याप्त प्रभु
पदार्थ
१. हे प्रभो! (यत्) = जो आप (स्वधया) = अपनी धारणशक्ति से (शीभम्) = शीघ्र ही (प्राङ्प्रत्यङ् यासि) = पूर्व से पश्चिम तक सर्वत्र गतिवाले होते हैं, वे आप (मायया) = अपनी दिव्य ज्ञानशक्ति से (नानारूपे) = भिन्न-भिन्न रूपोंवाले (अहनी कर्षि) = दिन-रात को बनाते हैं। प्रभु ने वस्तुत: दिन व रात के क्रमवाला यह सृष्टिक्रम कितना सुन्दर बनाया है। २. हे (आदित्य) = सारे ब्रह्माण्ड का अपने में आदान करनेवाले प्रभो! (ते) = आपका (तत्) = जो (महि) = महान् व पूजनीय (श्रवः) = यश है, आप (विश्वं भूम परिजायसे) = सारे ब्रह्माण्ड में चारों ओर प्रादुर्भूत हो रहे हैं, सर्वत्र आपकी महिमा का प्रकाश हो रहा है।
भावार्थ
पूर्व से पश्चिम तक सर्वत्र प्रभु व्याप्त हो रहे हैं। प्रभु ने अपनी माया से क्या ही सुन्दर दिन व रात्रि का क्रम बनाया है। प्रभु का यश महान् है। वे प्रभु सर्वत्र अपनी महिमा से प्रादुर्भूत हो रहे हैं।
भाषार्थ
(यत्) जो (प्राङ् प्रत्यङ्) पूर्व और पश्चिम की ओर, (स्वधया) स्वनिष्ठशक्ति द्वारा तथा (मायया) परमेश्वर की प्रज्ञा द्वारा (शीभम्) शीघ्र (यासि) तू जाता है, और (नानारूपे) भिन्न-भिन्न रूपों वाले (अहनी) दिन और रात्रि को (कर्षि) करता है, (आदित्य) हे आदित्य ! (तत् महि) वह महाकर्म है, (तत्) तथा वह (ते) तेरा (महि) महा (यशः) यशस्वी कर्म है (यत्) जो कि (एकः) अकेला (विश्वं भूम परि) समग्र भुवन में (जायसे) तू प्रकट होता है।
टिप्पणी
[संसार के प्रत्येक पदार्थ में स्वनिष्ठ शक्ति होती हैं, जिसे कि परमेश्वर निज प्रज्ञापूर्वक प्रदान करता है। आदित्य में भी स्वनिष्ठ शक्ति है, जो कि परमेश्वर की प्रज्ञा द्वारा मिली है। माया प्रज्ञानाम (निघं० ३।९)। माया शब्द के प्रयोग द्वारा मन्त्रार्थ अध्यात्म है। एकः = आदित्य दिन में अकेला प्रकट होता है। दिन में चांद, नक्षत्र, तारागण आकाश में नहीं होते, केवल आदित्य ही आकाश में होता हुआ दिन को प्रकट कर प्राणियों के व्यवहारों का सम्पादन करता है। रात्रि में चांद, नक्षत्र, तथा तारागण नाना ज्योतियां प्रकट होती हैं]।
विषय
रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ
हे परमात्मन् ! (यत्) जो तू (प्राङ्) पूर्व दिशा में और (प्रत्यङ्) पश्चिम दिशा में (स्वधया) अपनी धारणा शक्ति से (शीभम्) अति शीघ्रता से (यासि) सूर्य के समान गति करता या व्यापता है और (मायया) अपनी ‘माया’ दिव्य ज्ञानशक्ति से (नानारूपे) नाना प्रकार के (अहनी) दिन और रात (कर्षि) बनाता है (तत्) वही हे (आदित्य) सबके आदानकारक परमात्मन् ! (महि) तेरा महान् कार्य है। और (तत्) वह तेरी अचिन्त्य (महि) महान् (श्रवः) कीर्ति है (यत्) कि (एकः) तू अकेला ही (विश्वं भूम) समस्त संसार के ऊपर (परिजायसे) सूर्य के समान प्रकाशक और जीवनप्रद रूप में सामर्थ्यवान् होकर विराजता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Rohita, the Sun
Meaning
We celebrate you, O Sun, who swiftly go over east and west by your own essential power, create different forms of day and night with your wondrous presence. And that, O Aditya, is your great glory, and that is your high renown since by your sole self you shine over the entire world.
Translation
That you go eastward and westward quickly with your sustaining power; and that you make two days of different forms with your wonderous force; this, O sun, is your great, very great glory, that you alone are born over all this world.
Translation
This is the sun that. by its inherent power makes us know quickly the east and west. It makes day and night of various colors by its operations. It is indeed the transcendent glory of the sun that it being one has its effect on the world.
Translation
O God, Thou pervadest speedily the East and West like the Sun, Thou makest by Thy wonderful power the day and night of diverse colours. This is Thy highly transcendent glory, O God, that Thou alone are the Mightiest of all in the universe.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(यत्) यस्मात् कारणात् (प्राङ्) आभिमुख्येन पूर्वदिशि वा गच्छन् (प्रत्यङ्) पश्चात् पश्चिमदिशि वा गच्छन् (स्वधया) स्वधारणशक्त्या (यासि) गच्छसि (शीभम्) क्षिप्रम्-निघ० २।१५। (नानारूपे) विरुद्धरूपे (अहनी) अहोरात्रे (कर्षि) करोषि (मायया) प्रज्ञया (तत्) तस्मात् कारणात् (आदित्य) हे आदीप्यमान परमेश्वर (महि) महत् (तत्) (महि) (श्रवः) कीर्तिः (यत्) (एकः) अद्वितीयः। असहायः (विश्वम्) (सर्वम्) (परि) अभितः (भूम) बहुत्वं संसारम् (जायसे) प्रादुर्भवसि ॥
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