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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 11
    ऋषिः - अग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    ऊ॒र्ध्वाऽ अ॑स्य स॒मिधो॑ भवन्त्यू॒र्ध्वा शु॒क्रा शो॒चीष्य॒ग्नेः।द्यु॒मत्त॑मा सु॒प्रती॑कस्य सू॒नोः॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्वाः। अ॒स्य॒। स॒मिध॒ इति॑ स॒म्ऽइधः॑। भ॒व॒न्ति॒। ऊ॒र्ध्वा। शु॒क्रा। शो॒चीषि॑। अ॒ग्नेः। द्यु॒मत्त॒मेति॑ द्यु॒मत्ऽत॑मा। सु॒प्रती॑क॒स्येति॑ सु॒ऽप्रती॑कस्य। सू॒नोः ॥११ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ध्वाऽअस्य समिधो भवन्त्यूर्ध्वा शुक्रा शोचीँष्यग्नेः । द्युमत्तमा सुप्रतीकस्य सूनोः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्वाः। अस्य। समिध इति सम्ऽइधः। भवन्ति। ऊर्ध्वा। शुक्रा। शोचीषि। अग्नेः। द्युमत्तमेति द्युमत्ऽतमा। सुप्रतीकस्येति सुऽप्रतीकस्य। सूनोः॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 11
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! (অস্য) এই (সুপ্রতীকস্য) সুন্দর প্রতীতিকারক কর্ম্ম দ্বারা যুক্ত (সূনোঃ) প্রাণিদিগের গর্ভ বিমোচনকারী (অগ্নেঃ) অগ্নির (ঊর্ধ্বাঃ) উত্তম (সমিধঃ) সম্যক্ প্রকাশকারিণী সমিধা তথা (ঊর্ধ্বা) উপরে গমনরত (দ্যুমত্তমা) অতি উত্তম প্রকাশ যুক্ত (শুক্রা) শুদ্ধ (শোচীংষি) তেজ (ভবন্তি) হইয়া থাকে উহাকে তুমি জানো ॥ ১১ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! এই যে উপরে উত্থিত সকলের দেখিবার হেতু সকলের রক্ষার নিমিত্ত অগ্নি তাহাকে জানিয়া কার্য্যকে নিরন্তর সিদ্ধ করিতে থাক ॥ ১১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - ঊ॒র্ধ্বাऽ অ॑স্য স॒মিধো॑ ভবন্তূ্য॒র্ধ্বা শু॒ক্রা শো॒চীᳬंষ্য॒গ্নেঃ ।
    দ্যু॒মত্ত॑মা সু॒প্রতী॑কস্য সূ॒নোঃ ॥ ১১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ঊর্ধ্বা ইত্যস্যাগ্নির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । উষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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