यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 20
अन्ध॒ स्थान्धो॑ वो भक्षीय॒ मह॑ स्थ॒ महो॑ वो भक्षी॒योर्ज॒ स्थोर्जं॑ वो भक्षीय रा॒यस्पोष॑ स्थ रा॒यस्पोषं॑ वो भक्षीय॥२०॥
स्वर सहित पद पाठअन्धः॑। स्थ॒। अन्धः॑। वः॒। भ॒क्षी॒य॒। महः॑। स्थ॒। महः॑। वः॒। भ॒क्षी॒य॒। ऊ॒र्जः॑। स्थ॒। ऊर्ज्ज॑म्। वः॒। भ॒क्षी॒य॒। रा॒यः। पोषः॑। स्थ॒। रा॒यः। पोष॑म्। वः॒। भ॒क्षी॒य॒ ॥२०॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्ध स्थान्धो वो भक्षीय मह स्थ महो वो भक्षीयोर्ज स्थोर्जँवो भक्षीय रायस्पोष स्थ रायस्पोषँवो भक्षीय ॥
स्वर रहित पद पाठ
अन्धः। स्थ। अन्धः। वः। भक्षीय। महः। स्थ। महः। वः। भक्षीय। ऊर्जः। स्थ। ऊर्ज्जम्। वः। भक्षीय। रायः। पोषः। स्थ। रायः। पोषम्। वः। भक्षीय॥२०॥
विषय - रायस्पोष
पदार्थ -
१. पिछले मन्त्र की समाप्ति ‘मैं रायस्पोष से सङ्गत होऊँ’ शब्दों के साथ हुई थी। प्रस्तुत मन्त्र में इस रायस्पोष की साधनभूत गौवों का उल्लेख करते हैं। धन का संग्रह करनेवाले वैश्य लोग ‘कृषि, गोरक्षा व वाणिज्य’ से धनार्जन करते हैं। इनके इन तीनों कार्यों का केन्द्र ‘गोरक्षा’ है। प्राचीनकाल में गोधन ही वास्तविक धन था। Pecuniary शब्द में प्रारम्भिक ‘Pecu’ यह शब्दांश अब तक पशुधन के धनत्व को पुष्ट कर रहा है।
२. इस गौ के लिए कहते हैं कि तुम ( अन्धः स्थ ) = अन्न हो [ क्षीराज्यादिरूपस्यान्नस्य जनकत्वात् अन्नत्वोपचारः—म० ], क्षीर, आज्य [ घृत ] आदि अन्न की जनक हो। मैं ( वः ) = आपके ( अन्धः ) = क्षीराज्यादिरूप इस अन्न का ( भक्षीय ) = सेवन करूँ।
३. ( महःस्थ ) = ‘मह’ शब्दवाच्य दस शक्तिजनक पदार्थों को पैदा करने से तुम ‘मह’ हो। वे दस वीर्यजनक पदार्थ निम्न हैं— [ क ] प्रतिधक् = तत्काल दूहा = ताजा दूध, [ ख ] शृतम् = गरम किया हुआ दूध, [ ग ] शरः = दुग्धमण्ड [ घ ] दधि, [ ङ ] मस्तु = दधिरस [ च ] आतञ्च = दधिपिण्ड [ छ ] नवनीत = मक्खन [ ज ] घृतम्, [ झ ] आमिक्षा = स्फुटित दुग्ध [ ञ् ] वाजिनम् = आमिक्षा जल। मैं ( वः ) = आपके ( महः ) = वीर्यजनक इन दस पदार्थों का ( भक्षीय ) = सेवन करूँ।
४. ( ऊर्जः स्थ ) = बलहेतु क्षीर की जनक होने से तुम बलरूप हो। मैं ( वः ) = तुम्हारे ( ऊर्जम् ) = बलजनक दुग्धादि का ( भक्षीय ) = सेवन करूँ।
५. ( रायस्पोष स्थ ) = तुम रायस्पोष हो। वैश्य लोग आपके ही क्षीर-घृतादि के विक्रय से धन का पोषण करते हैं। मैं ( वः ) = आपके इस ( रायस्पोषम् ) = रायस्पोष का ( भक्षीय ) = सेवन करनेवाला बनूँ।
६. इस प्रकार आपके दूध आदि के प्रयोग से जहाँ वीर्यवान्, बलवान् व धनवान् बनूँगा, वहाँ उत्तम मनोवृत्तिवाला बनकर यज्ञादि उत्तम कार्यों में व्याप्त होनेवाला प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘याज्ञवल्क्य’ बनूँगा। यज्ञ के संवरणवाला [ वल्क-संवरण ]। याज्ञवल्क्य वह है जिसके दिन का प्रारम्भ भी यज्ञ से होता है और समाप्ति भी यज्ञ से। एवं, इसका जीवन यज्ञ का ही सम्पुट बना रहता है।
भावार्थ -
भावार्थ — गौवें ‘अन्ध, मह, ऊर्ज व रायस्पोष’ हैं। अन्नदात्री, वीर्यदात्री, बल व प्राणदात्री तथा धन का पोषण करनेवाली हैं।
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal