यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 5
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - अग्निवायुसूर्य्या देवताः
छन्दः - दैवी बृहती,निचृत् बृहती,
स्वरः - मध्यमः
4
भूर्भुवः॒ स्वर्द्यौरि॑व भू॒म्ना पृ॑थि॒वीव॑ वरि॒म्णा। तस्या॑स्ते पृथिवि देवयजनि पृ॒ष्ठेऽग्निम॑न्ना॒दम॒न्नाद्या॒याद॑धे॥५॥
स्वर सहित पद पाठभूः। भुवः॑। स्वः॑। द्यौरि॒वेति॒ द्यौःऽइ॑व। भू॒म्ना। पृ॒थि॒वीवेति॑ पृथि॒वीऽइ॑व। व॒रि॒म्णा॒। तस्याः॑। ते॒। पृ॒थि॒वि॒। दे॒व॒य॒ज॒नीति॑ देवऽयजनि। पृ॒ष्ठे। अ॒ग्निम्। अ॒न्ना॒दमित्य॑न्नऽअ॒दम्। अ॒न्नाद्या॒येत्य॑न्न॒ऽअद्या॑य। आ। द॒धे॒ ॥५॥
स्वर रहित मन्त्र
भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेग्निमन्नादमन्नाद्याया दधे ॥
स्वर रहित पद पाठ
भूः। भुवः। स्वः। द्यौरिवेति द्यौःऽइव। भूम्ना। पृथिवीवेति पृथिवीऽइव। वरिम्णा। तस्याः। ते। पृथिवि। देवयजनीति देवऽयजनि। पृष्ठे। अग्निम्। अन्नादमित्यन्नऽअदम्। अन्नाद्यायेत्यन्नऽअद्याय। आ। दधे॥५॥
विषय - अग्निहोत्र
पदार्थ -
१. गत मन्त्र का ऋषि ‘प्रजापति’ लोकहित के उद्देश्य से ‘प्राजापत्य यज्ञ’ करने का निश्चय करता है। अग्निहोत्र के द्वारा वह अकेले खाने की वृत्ति से ऊपर उठता है। देवताओं से दिये गये अन्नों को देवों के लिए देकर ही वह खाता है, वायु आदि देवों की शुद्धि से समय पर वृष्टि के द्वारा अन्नोत्पादन का कारण बनता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि इस यज्ञियवृत्ति के परिणामस्वरूप उसका जीवन विलासमय नहीं बनता और परिणामतः वह ( ‘भूः’ ) = स्वस्थ बना रहता है। भू = होना = बने रहना = अस्वस्थ न हो जाना। स्वस्थ शरीर में उसका मस्तिष्क भी स्वस्थ रहता है और ( भुवः ) = वह ज्ञान प्राप्त करता है। [ भुवोऽवकल्कने, अवकल्कणं चिन्तनम् ]। स्वस्थ व ज्ञानी बनकर वह ( स्वः ) = [ स्वयं राजते ] स्वयं राजमान व जितेन्द्रिय बनता है। यह इन्द्रियों का दास नहीं होता। वस्तुतः यज्ञियवृत्ति के मूल में ही इन्द्रियों की दासता समाप्त हो जाती है। यह व्यक्ति विलास से ऊपर उठकर— केवल अपने लिए न जीता हुआ सभी के लिए जीता है। यह ( भूम्ना ) = बहुत्व के दृष्टिकोण से ( द्यौः इव ) = द्युलोक के समान हो जाता है। जैसे द्युलोक अनन्त नक्षत्रों को अपने में समाये हुए है उसी प्रकार यह भी सारे प्राणियों को अपनी ‘मैं’ में समाविष्ट करने का प्रयत्न करता है। यह ( वरिम्णा ) = विशालता के दृष्टिकोण से ( पृथिवी इव ) = इस विस्तृत पृथिवी के समान होता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ = सभी वसुधा को यह अपना कुटुम्ब बना लेता है।
२. यह निश्चय करता है कि हे पृथिवी मातः = भूमे! ( देवयजनि ) = जो तू देवताओं के यज्ञ करने का स्थान है ( तस्याः ) = उस ( ते ) = तेरे ( पृष्ठे ) = पृष्ठ पर मैं ( अग्निम् ) = इस अग्नि को ( आदधे ) = अग्निकुण्ड में अवहित करता हूँ, जो अग्नि ( अन्नादम् ) = अन्न को खानेवाली है। इस अग्नि में उत्तमोत्तम हव्य अन्नों की आहुति देता हूँ। यह अग्नि उन्हें सूक्ष्मतम कणों में विभक्त करके सारे वायुमण्डल में फैला देता है। यह सूक्ष्मकण श्वासवायु के साथ कितने ही प्राणियों से अपने अन्दर ग्रहण किये जाते हैं। अग्निहोत्र हमें ( अन्नाद्याय ) = खानेयोग्य अन्न प्राप्त कराता है। इस ‘अन्नाद्याय’ खाद्य अन्न के लिए ही मैं अग्नि का आधान करता हूँ और इस आद्य अन्न की उत्पत्ति में कारण बनकर अपने ‘प्रजापति’ नाम को चरितार्थ करता हूँ।
भावार्थ -
भावार्थ — अग्निहोत्र के लाभ निम्न हैं—[ क ] स्वास्थ्य [ भूः ] [ ख ] ज्ञान [ भुवः ], [ ग ] जितेन्द्रियता [ स्वः ], [ घ ] विशालता [ द्यौः इव, पृथिवी इव ] [ ङ ] आद्य अन्न की प्राप्ति—इन लाभों का ध्यान करते हुए हमें अग्निहोत्र करना चाहिए।
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal