Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 55
    ऋषिः - बन्धुर्ऋषिः देवता - मनो देवता छन्दः - निचृत् गायत्री, स्वरः - षड्जः
    1

    पुन॑र्नः पितरो॒ मनो॒ ददा॑तु॒ दैव्यो॒ जनः॑। जी॒वं व्रात॑ꣳसचेमहि॥५५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुनः॑। नः॒। पि॒त॒रः॒। मनः॑। ददा॑तु। दैव्यः॑। जनः॑। जी॒वम्। व्रा॑तम्। स॒चे॒म॒हि॒ ॥५५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनर्नः पितरो मनो ददातु दैव्यो जनः । जीवँ व्रातँ सचेमहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुनः। नः। पितरः। मनः। ददातु। दैव्यः। जनः। जीवम्। व्रातम्। सचेमहि॥५५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 55
    Acknowledgment

    पदार्थ -

    १. मन के विषय में बन्धु की प्रार्थना आगे इस प्रकार होती है कि ( पितरः ) = आचार्य व ( दैव्यः जनः ) = सब दिव्य वृत्तियोंवाले लोग ( नः ) = हमें ( पुनः ) = फिर ( मनः ) = मन को ( ददातु ) = दें। यह हमारा मन सांसारिक विषयों में भटककर ‘हमारा’ न रह गया था। आचार्यों से व दिव्य वृत्तिवाले जनों से उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त करके हम अपने मन को विषय-व्यावृत्त करके फिर से प्राप्त करनेवाले बनें। 

    २. इस मन को विषयों से लौटाकर हम ( व्रातम् ) = [ व्रतसमूहसमन्वितम् ] व्रतों से युक्त ( जीवम् ) = जीवन को ( सचेमहि ) = प्राप्त करें। हमारा मन व्रतों की रुचिवाला हो। ये व्रत ही हमारे जीवन को सुन्दर बनाते हैं। व्रत ही मन को दृढ़ करते हैं और तब वह दृढ़ मनरूपी लगाम ही इन्द्रियरूप घोड़ों को सुसारथि की भाँति वश में कर सकेगी।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हमारा मन दिव्य वृत्तिवाला हो और उत्कृष्ट ज्ञान की प्राप्ति में लगा हो।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top