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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 15
सूक्त - आत्मा
देवता - भुरिक् अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
प्रति॑ तिष्ठवि॒राड॑सि॒ विष्णु॑रिवे॒ह स॑रस्वति। सिनी॑वालि॒ प्र जा॑यतां॒ भग॑स्यसुम॒ताव॑सत् ॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । ति॒ष्ठ॒ । वि॒ऽराट् । अ॒सि॒ । विष्णु॑ऽइव । इ॒ह । स॒र॒स्व॒ति॒ । सिनी॑वालि । प्र । जा॒य॒ता॒म् । भग॑स्य । सु॒ऽम॒तौ । अ॒स॒त् ॥१.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति तिष्ठविराडसि विष्णुरिवेह सरस्वति। सिनीवालि प्र जायतां भगस्यसुमतावसत् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रति । तिष्ठ । विऽराट् । असि । विष्णुऽइव । इह । सरस्वति । सिनीवालि । प्र । जायताम् । भगस्य । सुऽमतौ । असत् ॥१.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 15
विषय - सरस्वती सिनीवाली
पदार्थ -
१. हे (सरस्वति) = ज्ञानजल को धारण करनेवाली गृहपत्नि! तू (इह प्रतितिष्ठ) = इस गृह में प्रतिष्ठित हो, तू सबसे मान प्राप्त कर । (विराट् असि) = तू विशिष्ट ही दीतिबाली है-तेरी शोभा निराली है। तु (विष्णः इव) = देदीप्यमान सूर्य की भाँति है [आदित्यानामहं विष्णुः]। २. हे सिनीवालि प्रशस्त अन्नोंवाली-सदा सात्त्विक अन्नों का सेवन करनेवाली गृहपनि! तेरी सुव्यवस्था से यह गृहपति (प्रजायताम्) = सन्तान के रूप में जन्म लेनेवाला हो [तद्धि जायाया जायात्वं यदस्यां जायते पुनः।] इसका पति (भगस्य) = ऐश्वर्यशाली भजनीय प्रभु की (सुमतौ असत्) = कल्याणी मति में सदा निवास करे। प्रभु-प्रेरणा को प्रास करता हुआ, सुपथ से धर्नाजन करनेवाला हो।
भावार्थ -
घर में गृहपत्नी का समुचित मान हो। वह घर में सूर्य की भाँति दीस हो। प्रशस्त अत्रों का सेवन करनेवाली हो, उत्तम सन्तान को जन्म दे। इसका गृहपति भी प्रभु-प्रेरणा को सुनता हुआ सुपथ से धर्नाजन करनेवाला हो।
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