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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 46
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
सू॒र्यायै॑दे॒वेभ्यो॑ मि॒त्राय॒ वरु॑णाय च। ये भू॒तस्य॒ प्रचे॑तस॒स्तेभ्य॑ इ॒दम॑करं॒ नमः॑॥
स्वर सहित पद पाठसू॒र्यायै॑ । दे॒वेभ्य॑: । मि॒त्राय॑ । वरु॑णाय । च॒ । ये । भू॒तस्य॑ । प्रऽचे॑तस: । तेभ्य॑: । इ॒दम् । अ॒क॒र॒म् । नम॑: ॥२.४६॥
स्वर रहित मन्त्र
सूर्यायैदेवेभ्यो मित्राय वरुणाय च। ये भूतस्य प्रचेतसस्तेभ्य इदमकरं नमः॥
स्वर रहित पद पाठसूर्यायै । देवेभ्य: । मित्राय । वरुणाय । च । ये । भूतस्य । प्रऽचेतस: । तेभ्य: । इदम् । अकरम् । नम: ॥२.४६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 46
विषय - कन्या के प्रस्थानकाल में 'नमस्कार'
पदार्थ -
१. विदा के समय कन्या के पिता सर्वप्रथम अपनी कन्या को ही नमस्कार करते हैं। (सूर्यायै नमः अकरम्) = सूर्या को मैं नमस्कार करता हूँ। सूर्या को मैं यही कहना चाहता हूँ कि तुने कुल की लाज रखने के लिए शुभ व्यवहार ही करना, नमस्करणीय ही बने रहना। (देवेभ्यः) = बारात में आये हुए देवों के लिए भी मैं नमस्कार करता हूँ। आप सबने यहाँ आकर इस प्रसंग की शोभा बढ़ाकर मुझे कृतकृत्य किया है। (मित्राय वरुणाय च) = वर के माता-पिता के लिए जोकि स्नेह व निषता की भावना से ओत-प्रोत हैं, मैं नमस्कार करता ही हूँ। आप इस नवदम्पती में भी स्नेह व निट्टेषता के भावों को भरने का अनुग्रह करना। २. (ये) = जो (भूतस्य) = प्राणियों के (प्रचेतसः) = प्रकृष्ट ध्यान करनेवाले देव हैं, उन सब देवों के लिए (इदं नमः अकरम्) = इस नमस्कार को करता हूँ। सब देव इस नवदम्पती का रक्षण करें, इसकी समृद्धि का कारण बनें।
भावार्थ -
कन्यापक्षवालों को चाहिए कि विदा के समय अपनी कन्या को उत्तम प्रेरणा करते हुए सबको नमस्कारपूर्वक उचित आदर के साथ विदा करें।
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