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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 8
    सूक्त - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    एमंपन्था॑मरुक्षाम सु॒गं स्व॑स्ति॒वाह॑नम्। यस्मि॑न्वी॒रो न रिष्य॑त्य॒न्येषां॑वि॒न्दते॒ वसु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒मम् । पन्था॑म् । अ॒रु॒क्षा॒म॒ । सु॒ऽगम् । स्व॒स्ति॒ऽवाह॑नम् । यस्मि॑न् । वी॒र: । न । रिष्य॑ति । अ॒न्येषा॑म् । वि॒न्दते॑ । वसु॑ ॥२.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एमंपन्थामरुक्षाम सुगं स्वस्तिवाहनम्। यस्मिन्वीरो न रिष्यत्यन्येषांविन्दते वसु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इमम् । पन्थाम् । अरुक्षाम । सुऽगम् । स्वस्तिऽवाहनम् । यस्मिन् । वीर: । न । रिष्यति । अन्येषाम् । विन्दते । वसु ॥२.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    (इमम्) = इस (सुगम्) = शुभ की ओर ले जानेवाले (स्वस्तिवाहनम्) = कल्याण प्राप्त करानेवाले (पन्थाम् आ अरुक्षाम) = मार्ग पर ही आरोहण करें। हम सदा शुभ मार्ग पर ही चलें, उस मार्ग पर चलें, जिसपर चलता हुआ (वीर: न रिष्यति) = वीरपुरुष हिंसित नहीं होता तथा (अन्येषाम्) = विलक्षण पुरुषों [Extra-ordinary] के (वसु विन्दते) = धन को प्राप्त करता है।

    भावार्थ -

    हम उत्तम मार्ग पर चलते हुए वीर बनें, रोगादि से हिंसित न हों तथा विशिष्ट धनों को प्राप्त करें।

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