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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 49
    सूक्त - आत्मा देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    याव॑तीः कृ॒त्याउ॑प॒वास॑ने॒ याव॑न्तो॒ राज्ञो॒ वरु॑णस्य॒ पाशाः॑। व्यृद्धयो॒ या अस॑मृद्धयो॒या अ॒स्मिन्ता स्था॒णावधि॑ सादयामि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याव॑ती: । कृ॒त्या: । उ॒प॒ऽवास॑ने । याव॑न्त: । राज्ञ॑: । वरु॑णस्य । पाशा॑: । विऽऋ॑ध्दय: । या: । अस॑म्ऽऋध्दय: । या: । अ॒स्मिन् । ता: । स्था॒णौ । अधि॑ । सा॒द॒या॒मि॒ ॥२.४९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यावतीः कृत्याउपवासने यावन्तो राज्ञो वरुणस्य पाशाः। व्यृद्धयो या असमृद्धयोया अस्मिन्ता स्थाणावधि सादयामि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यावती: । कृत्या: । उपऽवासने । यावन्त: । राज्ञ: । वरुणस्य । पाशा: । विऽऋध्दय: । या: । असम्ऽऋध्दय: । या: । अस्मिन् । ता: । स्थाणौ । अधि । सादयामि ॥२.४९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 49

    पदार्थ -

    १. अग्निहोत्र की प्रज्वलित अग्नि में कई कृमियों का नाश तो होता ही है, अत: कहते हैं कि (उपवासने) = यज्ञादि की अग्नि के प्रज्वलन [Kindling a sacred fire] में (यावती: कृत्या) = जो भी हिंसाएँ हो जाती हैं, (यावन्त:) = जितने भी अनृतवादी के लिए (राज्ञः वरुणस्य पाशा:) = राजा वरुण के पाश हैं, (याः व्यूद्धयः) = जो भी अनेश्वर्य हैं, (याः असमृद्धयः) = [समृद्धि power] जो शक्तिशून्यताएँ हैं, (ता:) = उन सबको (अस्मिन् स्थाणौ) = इस स्थिर और अविचल प्रभु में स्थित होता हुआ मैं (अधिसादयामि) = विनष्ट करता हूँ।

    भावार्थ -

    प्रभुस्मरण द्वारा 'हिंसा, असत्य, दौर्भाग्य व शक्तिशून्यता' को दूर करके हम उत्तम जीवनवाले बनते हैं। प्रभुस्मरण हमें अहिंसक, सत्यवादी, सौभाग्यसम्पन्न व समृद्ध बनाता है।

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