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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
सूक्त - आत्मा
देवता - जगती
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
आवा॑मगन्त्सुम॒तिर्वा॑जिनीवसू॒ न्यश्विना हृ॒त्सु कामा॑ अरंसत। अभू॑तं गो॒पामि॑थु॒ना शु॑भस्पती प्रि॒या अ॑र्य॒म्णो दुर्याँ॑ अशीमहि ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वा॒म् । अ॒ग॒न् । सु॒ऽम॒ति: । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । नि । अ॒श्वि॒ना॒ । ह॒त्ऽसु । कामा॑: । अ॒रं॒स॒त॒ । अभू॑तम् । गो॒पा । मि॒थु॒ना । शु॒भ॒: । प॒ती॒ इति॑ । प्रि॒या: । अ॒र्य॒म्ण: दुर्या॑न् । अ॒शी॒म॒हि॒ ॥२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
आवामगन्त्सुमतिर्वाजिनीवसू न्यश्विना हृत्सु कामा अरंसत। अभूतं गोपामिथुना शुभस्पती प्रिया अर्यम्णो दुर्याँ अशीमहि ॥
स्वर रहित पद पाठआ । वाम् । अगन् । सुऽमति: । वाजिनीवसू इति वाजिनीऽवसू । नि । अश्विना । हत्ऽसु । कामा: । अरंसत । अभूतम् । गोपा । मिथुना । शुभ: । पती इति । प्रिया: । अर्यम्ण: दुर्यान् । अशीमहि ॥२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
विषय - 'न कामातुर न कृपण' गृहपति
पदार्थ -
१. पति-पत्नी अश्विनीदेवों से प्रार्थना करते हैं कि (वाजिनीवसु) = अन्नरूप धनवाले (अश्विना) = प्राणापानो! (वाम्) = आप दोनों की (सुमति:) = कल्याणीमति (आ अगन्) = हमें सर्वथा प्रास हो। प्राणापान को 'अन-धनवाले' इसीलिए कहा है कि इन्हीं से अन्न का पाचन होता है। वैश्वनर अग्नि [जाठराग्नि] प्राणापान से युक्त होकर सब अन्नों का पाचन करती है। अन्न का ठीक पाचन होकर इस सात्विक अन्न से सात्विक ही बुद्धि प्रास होती है। हे प्राणापानो! आपकी कृपा से (कामा:) = वासनाएँ (हत्सु) = हृदयों में (नि अरंसत) = पूर्णरूप से नियमित हों। कामवासना का नियमन ही गृहस्थ का सर्वमहान् कर्तव्य है। इसके नियमन से सन्तान भी उत्तम होते हैं और पति पत्नी की शक्ति भी स्थिर रहती है, इसप्रकार इससे नीरोगता व दीर्घजीवन सिद्ध होते है। २. हे प्राणापानो! आप (गोपा अभूतम्) = हमारी इन्द्रियों का रक्षण करनेवाले होओ। आप (मिथुना) = द्वन्द्वरूप में मिलकर कार्य करनेवाले होते हुए (शुभस्पती) = सब शुभों के पति होते हो। 'शुभ' का अर्थ [Water] शरीरस्थ रेत:कण भी है। प्राणसाधना के द्वारा शरीर में इनकी ऊर्ध्वगति होकर शरीर में ही रक्षण होता है। ३. पत्नी प्रार्थना करती है कि (प्रिया:) = पतियों की प्रिय होती हुई हम अथवा प्रियरूपवाली होती हुई हम (अर्यम्णा:) = कामादि को वश में करनेवाले, नियन्त्रित वासनावाले [अरीन् यच्छति] तथा उदार [अर्थमेति तमाहुयों ददातीति] पति के (दुर्यान्) = घरों को (अशीमहि) = प्राप्त करें। हमें ऐसा पति प्राप्त हो जो न तो कामातुर हो और न ही कृपण।
भावार्थ -
गृहस्थ में प्राणसाधना द्वारा हम 'अन्न के समुचित पाचनवाले, सुमति-सम्पन्न, नियमित वासनावाले, सुरक्षित इन्द्रियोंवाले व ऊयरतस्वाले' बनें। गृहपति न कामातुर हों, न कृपण।
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