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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 43
सूक्त - आत्मा
देवता - त्रिष्टुब्गर्भा पङ्क्ति
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
स्यो॒नाद्योने॒रधि॒ बुध्य॑मानौ हसामु॒दौ मह॑सा॒ मोद॑मानौ। सु॒गू सु॑पु॒त्रौसु॑गृ॒हौ त॑राथो जी॒वावु॒षसो॑ विभा॒तीः ॥
स्वर सहित पद पाठस्यो॒नात् । योने॑: । अधि॑ । बुध्य॑मानौ । ह॒सा॒मु॒दौ । मह॑सा । मोद॑मानौ । सु॒गू इति॑ सु॒ऽगू । सु॒ऽपु॒त्रौ । सु॒ऽगृ॒हौ । त॒रा॒थ॒: । जी॒वौ । उ॒षस॑: । वि॒ऽभा॒ती: ॥२.४३॥
स्वर रहित मन्त्र
स्योनाद्योनेरधि बुध्यमानौ हसामुदौ महसा मोदमानौ। सुगू सुपुत्रौसुगृहौ तराथो जीवावुषसो विभातीः ॥
स्वर रहित पद पाठस्योनात् । योने: । अधि । बुध्यमानौ । हसामुदौ । महसा । मोदमानौ । सुगू इति सुऽगू । सुऽपुत्रौ । सुऽगृहौ । तराथ: । जीवौ । उषस: । विऽभाती: ॥२.४३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 43
विषय - सुगू सुपुत्रौ सुगृहौ
पदार्थ -
१. (स्योनात् योने: अधिबुध्यमानौ) = सुखकर घर के हेतु से आधिक्येन प्रबुद्ध [जागरित], सावधान होते हुए, अर्थात् प्रमाद, आलस्य व निद्रा से ऊपर उठकर घर को सुखमय बनाते हुए (हसामुदौ) = हँसी के साथ प्रसन्न होते हुए (महसा मोदमानौ) = तेजस्विता से आनन्दित होते हुए सग-उत्तम इन्द्रियोंवाले व उत्तम गौओंवाले (सुपुत्रौ) = उत्तम सन्तानोंवाले और इसप्रकार (सुग्रहौ) = उत्तम गृहोंवाले (जीवौ) = जीवनीशक्ति से परिपूर्ण आप दोनों पति-पत्नी (विभाती: उषस: तराथ:) = देदीप्यमान उषाकालों को तैरनेवाले बनो।
भावार्थ -
घर को उत्तम बनाने के लिए आवश्यक है कि पति-पत्नी प्रबुद्ध हों, प्रसन्न हों, तेजस्विता से प्रफुल्लित हों। उत्तम गौओं, उत्तम सन्तानों व उत्तम घरोंवाले होकर जीवनीशक्ति से परिपूर्ण होते हुए उषाकालों को तैरनेवाले बनें।
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