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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 67
सूक्त - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
सं॑भ॒ले मलं॑सादयि॒त्वा क॑म्ब॒ले दु॑रि॒तं व॒यम्। अभू॑म य॒ज्ञियाः॑ शु॒द्धाः प्र ण॒ आयूं॑षितारिषत् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒म्ऽभ॒ले । मल॑म् । सा॒द॒यि॒त्वा । क॒म्ब॒ले । दु॒:ऽइ॒तम् । व॒यम् । अभू॑म । य॒ज्ञिया॑: । शु॒ध्दा: । प्र । न॒: । आयूं॑षि । ता॒रि॒ष॒त् ॥२.६७॥
स्वर रहित मन्त्र
संभले मलंसादयित्वा कम्बले दुरितं वयम्। अभूम यज्ञियाः शुद्धाः प्र ण आयूंषितारिषत् ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽभले । मलम् । सादयित्वा । कम्बले । दु:ऽइतम् । वयम् । अभूम । यज्ञिया: । शुध्दा: । प्र । न: । आयूंषि । तारिषत् ॥२.६७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 67
विषय - यज्ञिय व शुद्ध दीर्घजीवन
पदार्थ -
१. (सम्भले) = सम्यक् परिभाषण में (मलं सादयित्वा) = सब मल को विनष्ट करके (वयम्) = हम (कम्बले) = मधुरवाणीरूप जल में (दुरितम्) = सब दुरित को दूर करके यज्ञियाः यज्ञ करने के योग्य (शुद्धा अभूम) = शुद्ध हो जाते हैं। प्रभु (न: आयूँषि प्रतारिषत्) = हमारे जीवनों को दीर्घ करें।
भावार्थ -
हम सम्यक् परिभाषणरूप जलों में सब मल व दुरितों को दूर करके पवित्र जीवनवाले बनें और प्रभु के अनुग्रह से दीर्घजीवी हों।
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