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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 34
सूक्त - आत्मा
देवता - परानुष्टुप् त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
अ॑प्स॒रसः॑सधमादं मदन्ति हवि॒र्धान॑मन्त॒रा सूर्यं॑ च। तास्ते॑ ज॒नित्र॑म॒भि ताः परे॑हि॒नम॑स्ते गन्धर्व॒र्तुना॑ कृणोमि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प्स॒रस॑: । स॒ध॒ऽमाद॑म् । म॒द॒न्ति॒ । ह॒वि॒:ऽधान॑म् । अ॒न्त॒रा । सूर्य॑म् । च॒ । ता: । ते॒ । ज॒नित्र॑म् । अ॒भि । ता: । परा॑ । इ॒हि॒ । नम॑: । ते॒ । ग॒न्ध॒र्व॒ऽऋ॒तुना॑ । कृ॒णो॒मि॒ ॥२.३४॥
स्वर रहित मन्त्र
अप्सरसःसधमादं मदन्ति हविर्धानमन्तरा सूर्यं च। तास्ते जनित्रमभि ताः परेहिनमस्ते गन्धर्वर्तुना कृणोमि ॥
स्वर रहित पद पाठअप्सरस: । सधऽमादम् । मदन्ति । हवि:ऽधानम् । अन्तरा । सूर्यम् । च । ता: । ते । जनित्रम् । अभि । ता: । परा । इहि । नम: । ते । गन्धर्वऽऋतुना । कृणोमि ॥२.३४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 34
विषय - अप्सरसः
पदार्थ -
१. (अप्सरस:) = [अप+सर] उत्तम कर्मों में संचार करनेवाली ये नारियाँ (हविर्थानम) = जहाँ हवि का धारण किया जाना है, उस पृथिवी, सूर्य च और जहाँ सूर्य उदय होता है उस द्युलोक के अन्तरा-मध्य में-अन्तरिक्ष में (सधमादं मदन्ति) = उस प्रभु के साथ उपासना में बैठकर आनन्दित होती हैं। इनका पृथिवीलोकरूप शरीर यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहता है तथा ये शरीररूप वेदि में हविरूप पवित्र भोजन को ही प्राप्त कराती है। मस्तिष्करूप घुलोक में ज्ञान के सूर्य को उदित करती हैं और हृदयान्तिरक्ष में प्रभु का उपासन करती हुई प्रभु के साथ आनन्दित होती हैं। २.हे वर! (ता:) = वे नारियाँ ही (ते जनित्रम्) = तेरी जाया है-तेरी सन्तान को जन्म देनेवाली हैं (ता: अभि गन्धर्वत्रस्तुना परेहि) = उनकी ओर [परा-towards] ज्ञानी पुरुष की नियमित गति से तू प्राप्त हो। उनके साथ तेरा सम्पर्क शास्त्रविधि के अनुसार उचित ऋतु पर हो। ते इसप्रकार ऋतुगामी तेरे लिए (नमः कृणोमि) = मैं नमस्कार करता हूँ। ऐसे पुरुष को प्रत्येक व्यक्ति आदर देता है।
भावार्थ -
अप्सरारूप गृहनारियाँ यज्ञ करनेवाली हों, उनका भोजन भी यज्ञरूप हो। मस्तिष्करूप घलोक में ये ज्ञानसर्य को उदित करें। हृदय में प्रभु का उपासन करती हुई आनन्दित हों। ज्ञानी पति इनके प्रति ऋतुगामी होता हुआ उत्तम सन्तान प्राप्त करे और आदरणीय जीवनवाला हो।
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