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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 40
सूक्त - आत्मा
देवता - जगती
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
आ वां॑ प्र॒जांज॑नयतु प्र॒जाप॑तिरहोरा॒त्राभ्यां॒ सम॑नक्त्वर्य॒मा। अदु॑र्मङ्गली पतिलो॒कमावि॑शे॒मं शं नो॑ भव द्वि॒पदे॒ शं चतु॑ष्पदे ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वा॒म् । प्र॒ऽजाम् । ज॒न॒य॒तु॒ । प्र॒जाऽप॑ति: । अ॒हो॒रा॒त्राभ्या॑म् । सम् । अ॒न॒क्तु॒ । अ॒र्य॒मा। अदु॑:ऽमङ्गली । प॒ति॒ऽलो॒कम् । आ । वि॒श॒ । इ॒मम् । शम् । न॒: । भ॒व॒ । द्वि॒ऽपदे॑ । शम् । चतु॑:ऽपदे ॥२.४०॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वां प्रजांजनयतु प्रजापतिरहोरात्राभ्यां समनक्त्वर्यमा। अदुर्मङ्गली पतिलोकमाविशेमं शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ॥
स्वर रहित पद पाठआ । वाम् । प्रऽजाम् । जनयतु । प्रजाऽपति: । अहोरात्राभ्याम् । सम् । अनक्तु । अर्यमा। अदु:ऽमङ्गली । पतिऽलोकम् । आ । विश । इमम् । शम् । न: । भव । द्विऽपदे । शम् । चतु:ऽपदे ॥२.४०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 40
विषय - अदुर्मङ्गली
पदार्थ -
१. (प्रजापति:) = सब प्रजाओं का रक्षक प्रभु (वां प्रजाम्) = आप दोनों की सन्तति को (आजनयतु) = प्रादुर्भूत करे। प्रभु-कृपा से आप दोनों को उत्तम सन्तति प्राप्त हो। (अर्यमा) = शत्रुओं का नियमन करनेवाला प्रभु (अहोरात्राभ्यां समनक्तु) = दिन-रात से आपको संगत करे, अर्थात् आपके जीवन को प्रभु दीर्ष करें। वस्तुतः काम-क्रोधादि शत्रुओं को जीतना ही दीर्घजीवन का साधन है। हे युवति! तू (अदुर्मङ्गली) = सब अशुभों से रहित हुई-हुई (इमं पतिलोकं आविश) = उस पतिलोक को प्राप्त कर । पतिलोक को प्राप्त होकर तू उसे मंगलमय बनानेवाली हो । (न:) = हमारे (द्विपदे शं भव) = दो पाँववाले मनुष्यादि के लिए शान्ति प्राप्त करानेवाली हो, (चतुष्पदे शम्) = चार पाँववाले गवादि पशुओं के लिए भी तु शान्ति प्राप्त करा।
भावार्थ -
प्रभु-कृपा से पति-पत्नी को उत्तम सन्तान व दीर्घजीवन प्राप्त हो। पतिलोक में आती हुई युवति इस पतिलोक को मंगलमय बनाए। इस पतिलोक में मनुष्यों व पशुओं सभी को शान्ति प्राप्त हो।
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