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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 48
    सूक्त - आत्मा देवता - सतः पङ्क्ति छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    अपा॒स्मत्तम॑उच्छतु॒ नीलं॑ पि॒शङ्ग॑मु॒त लोहि॑तं॒ यत्।नि॑र्दह॒नी या पृ॑षात॒क्यस्मिन्तांस्था॒णावध्या स॑जामि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । अ॒स्मत् । तम॑: । उ॒च्छ॒तु॒ । नील॑म् । पि॒शङ्ग॑म् । उ॒त । लोहि॑तम् । यत् । नि॒:ऽद॒ह॒नी । या । पृ॒षा॒त॒की । अ॒स्मिन् । ताम् । स्था॒णौ । अधि॑ । आ । स॒जा॒मि॒ ॥२.४८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपास्मत्तमउच्छतु नीलं पिशङ्गमुत लोहितं यत्।निर्दहनी या पृषातक्यस्मिन्तांस्थाणावध्या सजामि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । अस्मत् । तम: । उच्छतु । नीलम् । पिशङ्गम् । उत । लोहितम् । यत् । नि:ऽदहनी । या । पृषातकी । अस्मिन् । ताम् । स्थाणौ । अधि । आ । सजामि ॥२.४८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 48

    पदार्थ -

    १. हे प्रभो! (अस्मत्) = हमसे (तमः अपउच्छतु) = अविद्यान्धकार दूर हो, (यत्) = जो अविद्यान्धकार (नीलम्) = अत्यन्त कृष्णवर्ण का है-अँधेरे को लाकर जो हमें प्रमाद, आलस्य व निद्रा में ले जानेवाला है, वह अविद्यान्धकार भी दूर हो [यत्] जो (पिशङ्गम्) = पिशङ्ग, कपिलवर्ण का है, जो हमें प्रत्येक वस्तु के विश्लेषण में प्रवृत्त करनेवाला है, जिसके कारण वस्तु का विश्लेषण करते हुए हम कर्तव्यकर्मों को भी विस्मृत कर देते हैं. यह भी एक आसंग ही है। इसे ही 'ज्ञानसंग' कहा गया है। (उत) = और यह अविद्यान्धकार भी (यत्) = जोकि (लोहितम्) = लालवर्ण का है। जो तेजस्विता के अतिरेक में हमें निरन्तर इधर-उधर भटकाता है, जो हमें यश व धन की कामना से बाँधकर कर्तव्यविमुख कर देता है। २. (निर्दहनी) = निश्चय से जलन को उत्पन्न करनेवाली (या) = जो (पृषातकी) = [पृष् vese, pain, veary] अन्ततः पीड़ित करनेवाली यह अविद्या है, (ताम्) = इस अविद्या को (अस्मिन् स्थाणी) = इस वृक्ष के दूंठ में (अध्यासजामि) = आसक्त करता हूँ। उस अविद्या को इन स्थानों को अर्पित करके मैं अविद्या से मुक्त होता हूँ। 'स्थाणु' शब्द का अर्थ प्रभु भी है। उस प्रभु में स्थित हुआ-हुआ मैं इस अविद्या को अपने से दूर करता हूँ और इन वृक्षों में उसे स्थापित करता हूँ।

    भावार्थ -

    हम सब प्रकार के अज्ञान को अपने से दूर करें । प्रभु का स्मरण हमारे जीवन को प्रकाशमय बनाएगा।

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