Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 52
सूक्त - आत्मा
देवता - विराट् परोष्णिक्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
उ॑श॒तीः क॒न्यला॑इ॒माः पि॑तृलो॒कात्पतिं॑ य॒तीः। अव॑ दी॒क्षाम॑सृक्षत॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒श॒ती: । क॒न्यला॑: । इ॒मा: । पि॒तृ॒ऽलो॒कात् । पति॑म् । य॒ती॒: । अव॑ । दी॒क्षाम् । अ॒सृ॒क्ष॒त॒ । स्वाहा॑ ॥२.५२॥
स्वर रहित मन्त्र
उशतीः कन्यलाइमाः पितृलोकात्पतिं यतीः। अव दीक्षामसृक्षत स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठउशती: । कन्यला: । इमा: । पितृऽलोकात् । पतिम् । यती: । अव । दीक्षाम् । असृक्षत । स्वाहा ॥२.५२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 52
विषय - दीक्षा अवसर्जन
पदार्थ -
१. (उशती:) = पतिलोक की कामना करती हुई (इमाः कन्यला:) = ये कन्याएँ-दीस जीवनवाली युवतियों [कन दीसौ], (पितृलोकात् पतिं यती:) = पितृलोक से पति की ओर जाती हुई (दीक्षाम्) = व्रत संग्रह को (अव असृक्षत्) = [to form, to create]-निर्मित करती हैं। गृह के उत्तम निर्माण के लिए व्रत के बन्धन में अपने को बाँधकर पतिगृह की ओर जाती हैं। २. इसके लिए (स्वाहा) = वे महान् स्वार्थ-त्याग करती हैं। वस्तुतः 'वर्षों एक गृह से सम्बद्ध रहकर उसे छोड़कर अन्यत्र जाना' त्याग तो है ही और अपने कन्धों पर एक नवगृह-निर्माण के भार को उठाना भी त्याग ही है। इस उत्तरदायित्व को समझने पर विलास में डूबने की आशंका नहीं रहती।
भावार्थ -
एक दीप्त जीवनवाली युवति पितगृह से पतिगृह की ओर जाती है। इस समय यह व्रतों को आधार बनाकर उत्तम गृह के निर्माण में अपनी आहुति दे डालती है। इसी से जीवन की पवित्रता बनी रहती है।
इस भाष्य को एडिट करें