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अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 2/ मन्त्र 11
सूक्त - दम्पती परिपन्थनाशनी
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
मावि॑दन्परिप॒न्थिनो॒ य आ॒सीद॑न्ति॒ दम्प॑ती। सु॒गेन॑ दु॒र्गमती॑ता॒मप॑द्रा॒न्त्वरा॑तयः ॥
स्वर सहित पद पाठमा । वि॒द॒न् । प॒रि॒ऽप॒न्थिन॑: । ये । आ॒ऽसीद॑न्ति । दंप॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । सु॒ऽगेन॑। दु॒:ऽगम् । अति॑ । इ॒ता॒म् । अप॑ । द्रा॒न्तु॒ । अरा॑तय: ॥१.११॥
स्वर रहित मन्त्र
माविदन्परिपन्थिनो य आसीदन्ति दम्पती। सुगेन दुर्गमतीतामपद्रान्त्वरातयः ॥
स्वर रहित पद पाठमा । विदन् । परिऽपन्थिन: । ये । आऽसीदन्ति । दंपती इति दम्ऽपती । सुऽगेन। दु:ऽगम् । अति । इताम् । अप । द्रान्तु । अरातय: ॥१.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 11
विषय - चोर आदि के भय का अभाव
पदार्थ -
१. (ये परिपन्थिन:) = जो भी चोरादि विरोधी व्यक्ति-रास्ते में लूट लेनेवाले व्यक्ति (आसीदन्ति) = इधर-उधर छिपकर बैठे होते हैं, वे इन (दम्पती) = पति-पत्नी को (मा विदन्) = प्राप्त न हों। २. हम सब बराती, बरात के लोग दुर्गम्-कठिनता से गन्तव्य प्रदेशों को भी (सुगेन अतिताम्) = सुगमता से लाँघ जाएँ। (अरातयः अपद्रान्तु) = शत्रु सुदूर नष्ट हो जाएँ।
भावार्थ -
बारात के मार्ग में किसी प्रकार का भय न हो। चोरादि के विनों से बचकर हम दुर्गम स्थलों को भी निर्विघ्नता से पार कर सकें।
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