अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 11
ऋषिः - दम्पती परिपन्थनाशनी
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
71
मावि॑दन्परिप॒न्थिनो॒ य आ॒सीद॑न्ति॒ दम्प॑ती। सु॒गेन॑ दु॒र्गमती॑ता॒मप॑द्रा॒न्त्वरा॑तयः ॥
स्वर सहित पद पाठमा । वि॒द॒न् । प॒रि॒ऽप॒न्थिन॑: । ये । आ॒ऽसीद॑न्ति । दंप॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । सु॒ऽगेन॑। दु॒:ऽगम् । अति॑ । इ॒ता॒म् । अप॑ । द्रा॒न्तु॒ । अरा॑तय: ॥१.११॥
स्वर रहित मन्त्र
माविदन्परिपन्थिनो य आसीदन्ति दम्पती। सुगेन दुर्गमतीतामपद्रान्त्वरातयः ॥
स्वर रहित पद पाठमा । विदन् । परिऽपन्थिन: । ये । आऽसीदन्ति । दंपती इति दम्ऽपती । सुऽगेन। दु:ऽगम् । अति । इताम् । अप । द्रान्तु । अरातय: ॥१.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो (परिपन्थिनः)बटमार लोग (दम्पती) पति-पत्नी के (आसीदन्ति) घात में आकर बैठते हैं, (मा विदन्)वे न मिलें। (सुगेन) सुगम [मार्ग] से (दुर्गम्) कठिन स्थान को (अति) पार करके (इताम्) दोनों चले जावें और (अरातयः) शत्रु लोग (अप द्रान्तु) भाग जावें ॥११॥
भावार्थ
मार्ग चलने में स्त्री-पुरुष सावधानी से प्रबन्ध करलें कि डाकू लुटेरे आदि के उपद्रवों से बचकर कुशल सेठिकाने पर पहुँचे ॥११॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।३२, और महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में चोर आदि से भय वा भयङ्कर स्थान होने परबोलने के लिये उद्धृत है। इस मन्त्र का चौथा पाद ऊपर आ चुका है-अ० ६।१२९।१-३॥
टिप्पणी
११−(मा विदन्) मा प्राप्नुवन्तु (परिपन्थिनः) अ० १।२७।२। प्रतिकूलाचारिणः (आसीदन्ति) आगत्य घाते तिष्ठन्ति (दम्पती) पतिपत्न्यौ (सुगेन) सुगमनीयेन मार्गेण (दुर्गम्) दुर्गम्यस्थानम् (अति) अतीत्य (इताम्) गच्छताम् (अ द्रान्तु)पलायन्ताम् (अरातयः) शत्रवः ॥
विषय
चोर आदि के भय का अभाव
पदार्थ
१. (ये परिपन्थिन:) = जो भी चोरादि विरोधी व्यक्ति-रास्ते में लूट लेनेवाले व्यक्ति (आसीदन्ति) = इधर-उधर छिपकर बैठे होते हैं, वे इन (दम्पती) = पति-पत्नी को (मा विदन्) = प्राप्त न हों। २. हम सब बराती, बरात के लोग दुर्गम्-कठिनता से गन्तव्य प्रदेशों को भी (सुगेन अतिताम्) = सुगमता से लाँघ जाएँ। (अरातयः अपद्रान्तु) = शत्रु सुदूर नष्ट हो जाएँ।
भावार्थ
बारात के मार्ग में किसी प्रकार का भय न हो। चोरादि के विनों से बचकर हम दुर्गम स्थलों को भी निर्विघ्नता से पार कर सकें।
भाषार्थ
हे जाया और पति ! (परिपन्थिन) गृहस्थ-पथ के विरोधी, - (ये) जोकि (दम्पती) जाया और पति पर (आ सीदन्ति) आ बैठते हैं, या उन का विनाश कर देते हैं,–वे (मा विदन्) तुम्हें प्राप्त न हों, तुम्हें जाने तक नहीं। तुम दोनों (दुर्गम्) दुर्गम पथ को (सुगेन) सुगम पथ द्वारा (अतीताम्) लांघ जाओ। इस प्रकार तुम्हारे (अरातयः) शत्रु (अप द्रान्तु) दूर भाग जायें]
टिप्पणी
[परिपन्थिनः = गृहस्थ-पथ के विरोधी हैं, काम, क्रोध, लोभ, मोह, परस्पर के कलह आदि। पथ का अभिप्राय सड़कों या Roads से नहीं। पथ के सम्बन्ध में देखो (मन्त्र १४।१।६३; १४।२।६,८)। ये परिपन्थी जब पति-पत्नी पर सवार हो जाते हैं, उन पर काबू पा लेते हैं, तब पति-पत्नी विनाश की ओर पग बढ़ाते हैं। सुमति का मार्ग "सुग" मार्ग है [मन्त्र १४।२।६८], सुगम मार्ग है, और दुर्मति का मार्ग दुर्ग है, दुर्गम है। सुमति द्वारा दुर्मति के विनाश हो जाने पर अराति अर्थात् कंजूसी और अदान भावनाएं आदि शत्रु भाग जाते हैं। अराति= अ (न) + राति (दान) "रा" दाने। आ सीदन्ति = सद् (बैठना), तथा विनाश, विशरण।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
(ये) जो (परिपन्थिनः) मार्ग के चोर, लुटेरे लोग (आसीदन्ति) समीप आफटकें वे (दम्पती) पति पत्नी वरवधू को (मा विदन्) जान भी न पावें। (दम्पती) वर वधू दोनों (सुगेन) उत्तम मार्ग से (दुर्गम्) दुर्गम वन पर्वत के प्रदेश को (अति इताम्) पार कर जाय। और (अरातयः) शत्रु लोग (अप द्रान्तु) दूर भाग जाय।
टिप्पणी
(तृ०) ‘सुगेभिः’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
Let the forces counter to the ways of Grhastha which afflict and mislead the wedded couple never come their way. O wedded couple, cross over the difficult paths and problems of life by simple, straight and clear ways of life, and let enemies, wants and adversities flee away from you.
Translation
Let not the robbers, who lie in ambush and approach the husband and wife, reach them; may they (the couple) by easy roads escape from all expected dangers. May all adversities keep aloof. (Rg. X.85.32; Variation).
Translation
Let not those highway robbers who *************** find this married couple. Let this couple smoothly overcome the difficulties and let the enemies flee away.
Translation
Let not the highway freebooters who lie in. ambush find the wedded pair. Let husband and wife easily cross the dangerous Zone, Let their enemies run away in fear.
Footnote
See Rig, 10-85-32. Maharshi Dayananda has commented upon this verse in Sanskar Vidhi in the chapter on marriage
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(मा विदन्) मा प्राप्नुवन्तु (परिपन्थिनः) अ० १।२७।२। प्रतिकूलाचारिणः (आसीदन्ति) आगत्य घाते तिष्ठन्ति (दम्पती) पतिपत्न्यौ (सुगेन) सुगमनीयेन मार्गेण (दुर्गम्) दुर्गम्यस्थानम् (अति) अतीत्य (इताम्) गच्छताम् (अ द्रान्तु)पलायन्ताम् (अरातयः) शत्रवः ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal