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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 25
    ऋषिः - आत्मा देवता - परानुष्टुप् त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    64

    वि ति॑ष्ठन्तांमा॒तुर॒स्या उ॒पस्था॒न्नाना॑रूपाः प॒शवो॒ जाय॑मानाः। सु॑मङ्ग॒ल्युप॑सीदे॒मम॒ग्निं संप॑त्नी॒ प्रति॑ भूषे॒ह दे॒वान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । ति॒ष्ठ‌॒न्ता॒म् । मा॒तु: । अ॒स्या: । उ॒पऽस्था॑त् । नाना॑ऽरूपा: । प॒शव॑: । जाय॑माना: । सु॒ऽम॒ङ्ग॒ली । उप॑ । सी॒द॒ । इ॒मम् । अ॒ग्निम् । सम्ऽप॑त्नी । प्रति॑ । भू॒ष॒ । इ॒ह ।दे॒वान् ॥२.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि तिष्ठन्तांमातुरस्या उपस्थान्नानारूपाः पशवो जायमानाः। सुमङ्गल्युपसीदेममग्निं संपत्नी प्रति भूषेह देवान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । तिष्ठ‌न्ताम् । मातु: । अस्या: । उपऽस्थात् । नानाऽरूपा: । पशव: । जायमाना: । सुऽमङ्गली । उप । सीद । इमम् । अग्निम् । सम्ऽपत्नी । प्रति । भूष । इह ।देवान् ॥२.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 25
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहआश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    (अस्याः मातुः) इसमाता की (उपस्थात्) गोद से (नानारूपाः) नाना स्वभाववाले, (जायमानाः) प्रसिद्धहोते हुए (पशवः) दृष्टिवाले विद्वान् लोग (वि) विविध प्रकार (तिष्ठन्ताम्)उपस्थित हों। (सुमङ्गली) बड़ी मङ्गलवाली तू (इमम्) इस (अग्निम्) अग्नि [व्यापकपरमेश्वर वा भौतिक अग्नि] की (उप सीद) सेवा कर, और (संपत्नी) पतिसहित तू (इह)यहाँ [गृहाश्रम में] (देवान् प्रति) विद्वानों के लिये (भूष) शोभायमान हो ॥२५॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग उपायपूर्वक आशीर्वाद दें कि उस वधू की पूरी ध्यानक्रिया के कारण अनेक दूरदर्शी वीरकीर्तिमान् सन्तान उत्पन्न होवें, और वह सौभाग्यवती विद्वानों का मान करके शोभाप्राप्त करे ॥२५॥

    टिप्पणी

    २५−(वि) विविधम् (तिष्ठन्ताम्) वर्तन्ताम् (मातुः) जनन्याः (अस्याः) (उपस्थात्) क्रोडात् (नानारूपाः) बहुस्वभावाः (पशवः) बहुदर्शिनो देवाविद्वांसः (जायमानाः) प्रादुर्भवन्तः (सुमङ्गली) बहुमङ्गलवती (उप सीद) परिचर (इमम्) (अग्निम्) व्यापकं परमात्मानं भौतिकाग्निं वा (संपत्नी) पतिसहिता (प्रति) (भूष) शोभस्व (इह) गृहाश्रमे (देवान्) विदुषः पुरुषान् ॥

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    विषय

    श्रीर्वै पशवः

    पदार्थ

    १. यहाँ घर में (अस्याः मातुः उपस्थात्) = इस भूमिमाता की गोद से (जायमाना:) = प्रादुर्भुत होते हुए (नानारूपाः पशवः) = विविधरूपोंवाले पशु (वितिष्ठन्ताम्) = विशेषरूप से स्थित हों। 'सन: पवस्व शं गवे शं जनाय शं अर्वते', इस मन्त्र के अनुसार घर में गौ हो तथा घर में घोड़े का भी स्थान हो । गौ सात्त्विक दूध के द्वारा हमारे शरीर-पोषण के साथ हमारी बुद्धि का भी वर्धन करती है तथा घोड़ा व्यायाम का साधन बनकर शक्तिवर्धन का हेतु बनता है। घर में पुरुष के एक ओर गौ और घोड़े का स्थान है तो दूसरी ओर अजा [बकरी] और अवि [भेड़] का। घर में इन पशुओं के होने पर 'श्री, यश व शान्ति' बनी रहती है। विवाह-संस्कार पर वर वधू से प्रारम्भ में ही कहता है कि 'शिवा पशुभ्यः'तूने घर में इन पशुओं का भी कल्याण करनेवाली बनना। इसे 'बलिवैश्वदेवयज्ञ' समझना। २. इसप्रकार (सुमंगली) = उत्तम मंगल करनेवाली इम (अग्निं उपसीद) = इस अग्नि का उपासन कर-प्रभु-स्मरणपूर्वक अग्निहोत्र करनेवाली बन । देवयज्ञ द्वारा तू घर को स्वस्थ व दिव्यगुणसम्पन्न बनानेवाली हो और (संपत्नी) = सदा पति का साथ देनेवाली, पति के साथ निवास करनेवाली तु (इह) = इस घर में (देवान् प्रति भूष) = [भुष to spread] विद्वान् अतिथियों का लक्ष्य करके आसन को बिछानेवाली हो, अर्थात् अतिथियज्ञ को सम्यक् सम्पन्न करनेवाली बन। घर में आये-गये का यथोचित्त सत्कार आवश्यक ही है।

    भावार्थ

    घर की श्री, यश व शर्म का साधन बननेवाले, 'गौ, अश्व, अजा, अवि' रूप पशुओं का भी गृहपत्नी ध्यान करे। अग्निहोत्र को नियम से करे, अतिथियज्ञ को भी उपेक्षित न करे।

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    भाषार्थ

    (अस्याः) इस (मातुः) माता के (उपस्थात्) गर्भ से (जायमानाः) जन्म धारण करते हुए (नानारूपाः) नानागुणों और आकृतियों वाले (पशवः) पशुतुल्य सन्तानें, (वि तिष्ठन्ताम्) विविध स्थितियों को प्राप्त करें। (सुमङ्गली) उत्तम-मङ्गल वाली तू हे वधु ! (इमम्) इस (अग्निम्) यज्ञाग्नि के (उप सीद) समीप तू बैठा कर, और (सं पत्नी) पति के साथ मिल कर (इह) इस घर में (देवान्) वायु आादि देवों को, देवयज्ञ अर्थात् अग्निहोत्र द्वारा (प्रतिभूष) सुगन्धि से अलंकृत किया कर।

    टिप्पणी

    [व्याख्या-उत्पत्ति काल में सन्तानें पशुसादृश ही होती है। सद्गुणों के प्रकट होने पर और मननशील होने पर वे वस्तुतः मनुष्य होती हैं। तभी कहा है कि "जन्मना जायते शुद्रः"। अथर्व० ११।२।९ भी इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य है। यथा "तवेमे पञ्च पशवो विभक्ता गावो अश्वाः पुरुषा अजावयः" इसमें पुरुषों को पशु कहा है। सद्गुणों से रहित, केवल आहार, निद्रा, भय और मैथुन वाले पुरुष पशु सदृश ही हैं। जन्मना पुरुष सन्तानों को पशु कहते हुए वेद ने जन्मजात वर्णव्यवस्था को अमाननीय ठहराया है। उत्पत्ति के समय बीजरूप अर्थात् अव्यक्तरूप में सन्तानें भिन्न-भिन्न गुणों से सम्पन्न रहती हैं, जिनकी कि अभिव्यक्ति, सत्संगों तथा शिक्षा द्वारा शनैः शनैः होती है, और सन्तानें अपने अपने पेशों तथा कामधन्धों द्वारा विविध स्थितियों को प्राप्त करती हैं। पत्नी निज व्यवहारों तथा कर्तव्यों द्वारा अपने आप को मङ्गलमयी बनाएं, किसी भी अमङ्गल भावना को मन में न आने दे और न कोई अमङ्गल काम करे। जिस गुण की सन्तान चाहे उसी सद्गुण का वह चिन्तन और मनन करती रहे। पति के साथ मिल कर पत्नी दैनिक अग्निहोत्र द्वारा घर के वायुमण्डल को सुगन्धित किया करे।

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    विषय

    पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (अस्याः) इस (मातुः) माता पृथ्वी के (उपस्थात्) गोद से (नानारूपाः) नाना प्रकार के (जायमानाः) उत्पन्न होनेहारे (पशवः) जीव उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार इस वधू रूप माता के गर्भ से भी नाना सन्ततियां उत्पन्न होकर (वि तिष्ठन्ताम्) नाना जीवन-पथों पर प्रस्थान करें। हे नववधु ! तू (सुमङ्गली) शुम मङ्गलयुक्त होकर (इमम्) इस (अग्निम्) गार्हपत्य अग्नि, तत्प्रतिनिधिरूप पति एवं परमेश्वर को (उप सीद) उपासना कर, सेवा कर और (सम्पत्नी) उत्तम गृहपत्नी होकर (इह) इस गृह में (देवान्) देवों, विद्वान् अतिथियों को (प्रति भूष) सेवा कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    May the noble progeny born of the womb of this mother, all of good health and vision, of versatile noble form, character and function, live long and abide by her. May the woman of good fortune, noble wife of her husband, sit on the mattress and serve the holy fire, and may she honour the divinities in the home.

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    Translation

    May the children of various forms come forth from the lap of this mother as they are born. O propitious one, sit by this fire. Along with your husband, may you serve the enlightened ones here.

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    Translation

    Let the children (men) of various statures and status born from the womb of this mother spread out (in various fields of activity). O auspicious bride you enkindle this fire with your husband and do service of learned men and guests.

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    Translation

    Let many babes of varied form and nature spring in succession from this fruitful mother. Worship God, thou bringer of good fortune. Here, acting as a good household-lady serve the learned guests.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २५−(वि) विविधम् (तिष्ठन्ताम्) वर्तन्ताम् (मातुः) जनन्याः (अस्याः) (उपस्थात्) क्रोडात् (नानारूपाः) बहुस्वभावाः (पशवः) बहुदर्शिनो देवाविद्वांसः (जायमानाः) प्रादुर्भवन्तः (सुमङ्गली) बहुमङ्गलवती (उप सीद) परिचर (इमम्) (अग्निम्) व्यापकं परमात्मानं भौतिकाग्निं वा (संपत्नी) पतिसहिता (प्रति) (भूष) शोभस्व (इह) गृहाश्रमे (देवान्) विदुषः पुरुषान् ॥

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