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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 65
    ऋषिः - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    94

    यदा॑स॒न्द्यामु॑प॒धाने॒ यद्वो॑प॒वास॑ने कृ॒तम्। वि॑वा॒हे कृ॒त्यां यांच॒क्रुरा॒स्नाने॒ तां नि द॑ध्मसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । आ॒ऽस॒न्द्योम् । उ॒प॒ऽधाने॑ । यत् । वा॒ । उ॒प॒ऽवास॑ने । कृ॒तम् । वि॒ऽवा॒हे । कृ॒त्याम । याम् । च॒क्रु: । आ॒ऽस्नाने॑ । ताम् । नि । द॒ध्म॒सि॒ ॥२.६५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदासन्द्यामुपधाने यद्वोपवासने कृतम्। विवाहे कृत्यां यांचक्रुरास्नाने तां नि दध्मसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । आऽसन्द्योम् । उपऽधाने । यत् । वा । उपऽवासने । कृतम् । विऽवाहे । कृत्याम । याम् । चक्रु: । आऽस्नाने । ताम् । नि । दध्मसि ॥२.६५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 65
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहआश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जिस (कृतम्)हिंसित कर्म को (आसन्द्याम्) सिंहासन में, (उपधाने) गद्दी में, (वा) अथवा (यत्)जिस [हिंसित कर्म] को (उपवासने) छत्र में, ओर (याम्) जिस (कृत्याम्) दुष्टक्रियाको (आस्नाने) स्नानगृह में (विवाहे) विवाह के बीच (चक्रुः) [वे दुष्ट लोग] करें, (ताम्) उस [दुष्टक्रिया] को (नि दध्मसि) हम नीचे धरें ॥६५॥

    भावार्थ

    यदि विवाहकर्म मेंकोई दुष्ट पुरुष विघ्न डालें, चतुर लोग उस का प्रतीकार करके विवाह को निर्विघ्नसमाप्त करें ॥६५॥

    टिप्पणी

    ६५−(यत्) (आसन्द्याम्) आसम् आसनं ददातीति आसन्दी, आसउपवेशने-क्विप्+दा-ड, ङीप्। सिंहासने (उपधाने) उपवस्त्रे (यत्) (वा) (उपवासने)छत्रे (कृतम्) हिंसितं कर्म (विवाहे) विवाहोत्सवे (कृत्याम्) हिंसाक्रियाम् (याम्) (चक्रुः) कुर्युर्दुष्टपुरुषाः (आस्नाने) स्नानगृहे (ताम्) हिंसाम् (नि)नीचैः (दध्मसि) धारयामः ॥

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    विषय

    आ-स्नान

    पदार्थ

    १. (यत्) = जो (आसन्धाम्) = कुर्सी में बैठने के उपकरणभूत आसन में, (उपधाने) = तकिये में, (यत् वा) = अथवा उपवासने अग्नि के प्रचलन में [kindling of fire] (कृतम्) = दोष उत्पन्न कर दिया गया है अथवा (विवाहे) = विवाह के सारे कार्यक्रम में (यां कृत्यां चक:) = जिस छेदन-भेदन की क्रिया को दुष्ट लोग कर देते हैं (ताम्) = उस सबको (आस्नाने निदध्मसि) = [षण शौचे] सर्वत: शोधन प्रक्रिया के द्वारा [निधा-put down. remove. end] समास करते हैं। २. कुर्सी को एकबार हाथ से ठीक प्रकार हिलाकर तभी उसपर बैठना चाहिए इससे उसमें कुछ विकार होगा तो उसका पता लग जाएगा। सिरहाने व बिस्तरे को भी एकबार झाड़ लेना ठीक है। अग्नि प्रज्वलन में तो सावधानी नितान्त आवश्यक है ही। विवाह के अवसर पर जागरूकता के अभाव में अधिक हानि हो जाने की सम्भावना होती ही है।

    भावार्थ

    कुर्सी पर बैठने, तकिये पर सिर रखने, अग्नि के प्रज्वलन व विवाह-कार्य के समय जागरूक होते हुए शोधन आवश्यक है, अन्यथा हानि की सम्भावना बनी रहती है।

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    भाषार्थ

    (आसन्द्याम्) कुर्सी आदि बैठने की वस्तुओं पर, (उपधाने) सिरहानों, तकियों तथा गद्दियों पर, (उपवासने) उपवास व्रत की अवस्था में या (वासने, उप) बसे घर में उपस्थित वस्तुओं पर (यत्) जो मलिनता का कृत्य (कृतम्) कर दिया गया है उसे, तथा (विवाहे) विवाहकाल में (याम्) जिस (कृत्याम्) काट-छाँट रूपी क्रिया को (चक्रुः) कर्मचारियों आदि ने किया है (ताम्) उसे, (आस्नाने) पूर्ण स्नान द्वारा शुद्ध कर (नि दध्मसि) उन उन वस्तुओं को उन के नियत स्थानों में हम रख देते हैं।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में “यत्” द्वारा “कृत्यम्” का निर्देश किया है, और “याम्” द्वारा “त्या” का “कृत्या” शब्द “कृ” धातु द्वारा निष्पन्न होने पर “कर्म” अर्थ का वाचक है, और “कृत्” धातु द्वारा निष्पन्न होने पर काट-छांट अर्थ का भी वाचक है। विवाह काल में सब्जी आदि के काटने, तथा अन्य कारणों से मल एकत्रित हो जाता है, तथा विवाहेत्तर काल में भी घर की वस्तुओं पर मल चढ़ जाता है, उन्हें जल द्वारा धो कर और शुद्ध कर पुनः उन्हें नियत स्थानों में रखने का उपदेश मन्त्र में दिया है।]

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    विषय

    पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।

    भावार्थ

    (यत्) जो (आसन्द्याम्) आसन्दी, या खाट या पलङ्ग पर (यद्) जो (उपधाने) सिरहाने और (यद् वा) जो (उपवासने) वस्त्रों पर और (विवाहे) विवाह के समय (यां कृत्याम्) जिस घातक विषम प्रयोग को करते हैं (तां) उसको हम (खाने) स्नान कराने वाले द्वारा ही (नि दध्मसि) दूर करते हैं। चौकी, गद्दा, विछौना, वस्त्र पहनाना आदि सब कार्यों की जिम्मेदारी नाई पर रखनी चाहिये।

    टिप्पणी

    ‘आसन्या उप’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    Whatever wrong was done on the chair, on the cushion or on the wrapping cover or ceremonial wear, and whatever was wrongly done during fast time, and whatever evil was committed during the wedding ceremony, all that we wash away in the cleansing ceremony and keep the evil down.

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    Translation

    What evil design they have put in the chair, on the cushion and what on the covering; what evil design they have put in the wedding ceremony, all that we sink in the bath.

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    Translation

    Whatever evil was done on the cushion, chair and whatever on bed and wrapping cloth and whatever fatal things were done by others at the time of marriage we wash away by taking bath.

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    Translation

    Whatever mischief hath been wrought on couch, cushion or canopy, every sort of disturbance created by mischief mongers to mar the wedding rites, all this we remove through our spiritual force.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६५−(यत्) (आसन्द्याम्) आसम् आसनं ददातीति आसन्दी, आसउपवेशने-क्विप्+दा-ड, ङीप्। सिंहासने (उपधाने) उपवस्त्रे (यत्) (वा) (उपवासने)छत्रे (कृतम्) हिंसितं कर्म (विवाहे) विवाहोत्सवे (कृत्याम्) हिंसाक्रियाम् (याम्) (चक्रुः) कुर्युर्दुष्टपुरुषाः (आस्नाने) स्नानगृहे (ताम्) हिंसाम् (नि)नीचैः (दध्मसि) धारयामः ॥

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