अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
ऋषिः - आत्मा
देवता - जगती
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
80
सा म॑न्दसा॒नामन॑सा शि॒वेन॑ र॒यिं धे॑हि॒ सर्व॑वीरं वच॒स्यम्। सु॒गं ती॒र्थं सु॑प्रपा॒णंशु॑भस्पती स्था॒णुं प॑थि॒ष्ठामप॑ दुर्म॒तिं ह॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठसा । म॒न्द॒सा॒ना । मन॑सा । शि॒वेन॑ । र॒यिम् । धे॒हि॒ । सर्व॑ऽवीरम् । व॒च॒स्य᳡म् । सु॒ऽगम् । ती॒र्थम् । सु॒ऽप्र॒पा॒नम् । शु॒भ॒: । प॒ती॒ इति॑ । स्था॒णुम् । पथि॑ऽस्थाम् । अप॑ । दु॒:ऽम॒तिम् । ह॒त॒म् ॥२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
सा मन्दसानामनसा शिवेन रयिं धेहि सर्ववीरं वचस्यम्। सुगं तीर्थं सुप्रपाणंशुभस्पती स्थाणुं पथिष्ठामप दुर्मतिं हतम् ॥
स्वर रहित पद पाठसा । मन्दसाना । मनसा । शिवेन । रयिम् । धेहि । सर्वऽवीरम् । वचस्यम् । सुऽगम् । तीर्थम् । सुऽप्रपानम् । शुभ: । पती इति । स्थाणुम् । पथिऽस्थाम् । अप । दु:ऽमतिम् । हतम् ॥२.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
[हे वधू !] (सा) सो तू (मन्दसाना) आनन्द करती हुई, (शिवेन) कल्याणयुक्त (मनसा) मन के साथ (सर्ववीरम्)सब वीरोंवाले (वचस्यम्) स्तुतियोग्य (रयिम्) धन को (धेहि) धारण कर। (शुभः पती)हे शुभ क्रिया के रक्षक तुम दोनों ! (सुगम्) सुख से जाने योग्य, (सुप्रपाणम्)सुन्दर पानीवाले (तीर्थम्) तीर्थ [उतरने के घाट] को [धारण करो]और (पथिष्ठाम्)मार्ग में खड़े हुए (स्थाणुम्) ठूठ [झाड़ झंकड़ आदि समान] (दुर्मतिम्) दुर्मतिको (अप हतम्) नाश करो ॥६॥
भावार्थ
जहाँ पर गुणवती स्त्रीप्रसन्न होकर धन का प्रबन्ध करके सन्तानों को शूर, वीर, यशस्वी बनाती है, वहाँपर दोनों पति-पत्नी विघ्नों को हटाकर गृहाश्रम को ऐसा सुखदायी करते हैं, जैसेविद्वान् शिल्पी मार्ग के कण्टक आदि मेंटकर नदी का सुगम तीर्थ अर्थात् घाट बनाताहै, जिस पर होकर सब सुख से उतरते और जल से स्नान-पान करके आनन्द पाते हैं ॥६॥यहमन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।४०।१३ ॥
टिप्पणी
६−(सा) सा त्वम् (मन्दसाना)ऋञ्जिवृधिमन्दिसहिभ्यः कित्। उ० २।८७। मदि आमोदस्तुतिदीप्त्यादिषु-असानच् कित्।आमोदयित्री (मनसा) चित्तेन (शिवेन) कल्याणयुक्तेन (रयिम्) धनम् (धेहि) धारय (सर्ववीरम्) सर्ववीरोपेतम् (वचस्यम्) प्रशंसनीयम् (सुगम्) सुखेन गन्तव्यम् (तीर्थम्) पातॄतुदिवचि०। उ० २।७। तॄ प्लवनतरणयोः-थक्। तरणस्थानम् (सुप्रपाणम्)स्वच्छप्रकृष्टपानयुक्तम् (शुभः पती) हे शुभक्रियायाः पालकौ (स्थाणुम्)शाखाशून्यवृक्षादिकम् (पथिष्ठाम्) मार्गस्थम् (दुर्मतिम्) कुबुद्धिम् (अप हतम्)दूरे नाशयतम् ॥
विषय
सुर्ग तीर्थ सुप्रपाणं पथिष्ठां स्थाणुम्
पदार्थ
१. घर में (सा) = वह पत्नी भी (मन्दसाना) = घर के सारे वातावरण में हर्ष पैदा करती हुई (शिवेन मनसा) = शुभ मन से (सर्ववीरम्) = सब वीर सन्तानोंवाले (वचस्यम्) = प्रसंशनीय [न अवद्य] (रयिं धेहि) = धन को धारण करे। पत्नी की प्रसन्नता व मन:प्रसाद घर को उत्तम सन्तानों व उत्तम धनवाला बनाता है। हे (शुभस्पती) = शरीर में [शुभ water-रेत:कण] रेत:कणों के रक्षण के द्वारा सब शुभों का रक्षण करनेवाले पति-पत्नी! आप दोनों (सुगं तीर्थम्) = सुख से जाने योग्य घाटयुक्त जलाशय को, (सप्रपाणम्) = उत्तम प्याऊ को तथा (पथिष्ठां स्थाणुम्) = मार्ग में स्थित होनेवाले वृक्षों को धारण करो, अर्थात् वापि, कूप, तड़ाग आदि बनानेवाले बनो तथा मार्ग के दोनों ओर वृक्ष लगानेवाले होओ। ये कर्म ही तो 'आपूर्त' हैं। (दुर्मतिं अपहतम्) = विषय-वासना में प्रवृत्त करनेवाली दुर्मति को अपने से दूर रक्खो।
भावार्थ
गृह में पत्नी मन:प्रसाद द्वारा उत्तम सन्तान व उत्तम धन का धारण करनेवाली हो। पति-पत्नी घाटों, प्याऊ तथा वृक्षों की स्थापनारूप आपूर्त कर्मों को करनेवाले हों। विषय वासना की ओर झुकाववाली दुर्मति को अपने से दूर रक्खें।
भाषार्थ
हे पत्नी! (सा) वह तू (मन्दसाना) मुदित-प्रमुदित होती हुई, (शिवेन) शिवसंकल्पों वाले (मनसा) मन से, (वचस्यम्) प्रशंसनीय तथा (सर्ववीरम्) जिस मे सब सन्तानें वीर उत्पन्न हों ऐसे (रयिम्) वीर्य को (धेहि) अपने में धारण कर और उस का परिपोषण कर। (शुभस्पती) शुभकर्मों के रक्षक हे माता-पिता ! आप दोनों (तीर्थम्) हमारे गृहस्थतीर्थ को (सुगम्) सुगमता से तैरने योग्य, तथा (प्रपाणम्) खान-पान से युक्त करो, और (पथिष्ठाम्) गृहस्थ-मार्ग में स्थित (स्थाणुम) ठूण्ठरूप से बाधक (दुर्मतिम्) दुर्मति को (अपहतम्) दूर कर दो।
टिप्पणी
[मन्दसाना = मदि स्तुतिमोदमद इत्यादि। मदि + असानच् (उणा० २।८७ बाहुलकात्)। रयि = वीर्य। "वीर्य वै रयि" (श० ब्रा० १३।४।२।१३)। धेहि = इस का प्रयोग गर्भाधान के लिए भी हुआ है। यथा "गर्भ धेहि सिनीवालि गर्भ धेहि सरस्वति" (अथर्व० ५।२५।३)। तीर्थम्= यह शब्द "तॄ" धातु से बना है जिस का अर्थ है "तैरना"। "तरन्ति येन यत्र वा तत् तीर्थम्" (उणा० २।७)। तथा "तीर्थैस्तरन्ति" (अथर्व० १८।४।७)] [व्याख्या-मन्त्र के प्रथमार्ध भाग में पति अपनी पत्नी से कहता है कि तू सदा और विशेषरूप से गर्भकाल में मुदित-प्रमुदित रहा कर तथा मन को शिवसंकल्पी किया कर। इस विधि से तू प्रशंसनीय तथा वीर सन्तान प्राप्त करेगी। माता की प्रसन्नता, उस के शिवसंकल्प,–वास्तव में सन्तति को उत्तम तथा वीर बना सकते हैं। मन्त्र के द्वितीयार्ध भाग में पति अपने माता-पिता से प्रार्थना करता है कि आप दोनों हमारे गृहस्थ को तीर्थ बनाइये, ताकि गृहस्थ के नियमों का पालन करते हुए हम तीर्थों का फल प्राप्त कर सकें और इस द्वारा हम दुःख सागर को तैर जांय। साथ ही यह भी प्रार्थना करता है कि आप के निर्देशानुसार हमारा गृह खान-पान की सामग्री से भरा रहे, तथा आप दोनों सदुपदेशों द्वारा हमारी दुर्मति को दूर कीजिये। दुर्मति,–मार्ग में स्थित ठूंठ के सदृश–गृहस्थजीवन को सुगमता से चलाने में बाधक होती है। आप शुभस्पती है, शुभकर्मों के रक्षक तथा पालक हैं, हमें भी शुभकर्मों के रक्षक तथा पालक बनाइये।
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
(सा) वह स्त्री (शिवेन) सुखी, कल्याण से पूर्ण (मनसा) चित्त में (मन्दसाना) स्तुति और गुणानुवाद करती हुई (वचस्यम्) प्रशंसनी (सर्ववीरं) समस्त पुत्रों से युक्त (रयिम्) बल और धन को (धेहि) धारण कर। हे (शुभस्पती) नगर की शोभा युक्त पदार्थों के स्वामी स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (तीर्थं सुगम्) सुख से विहार करने योग्य जलाशय और (सुप्रपाणम्) सुख से जलपान करने योग्य घाट बनवाओ और (पथिष्ठाम्) मार्ग में खड़े (स्थाणुम्) वृक्षों को लगवाओ और (दुर्मतिम्) दुष्ट बुद्धि या दुःख के अनुभव को, शरीर के, दुःख की दशा को (हतम्) दूर करो।
टिप्पणी
(प्र० द्वि०) ‘ता मन्दसाना मनुषोदुरोण आधत्तारयि सहवीरं वचस्यवे’ (तृ०) ‘कृतं तीर्थ’ (च०) ‘पथेष्ठाम्’ इति ऋ०। तत्रैव (द्वि०) ‘दशवीरं’ इति आपस्त०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
O bride, happy at heart with a noble auspicious mind, be the mistress of adorable wealth worthy of the brave without any weakness. O wedded couple, worthy guardians of noble values and actions, we wish you a clear path of holy matrimony, a noble destination in life and full satisfaction of your desires and ambitions in life, and we exhort you that you drive out all misunderstanding, suspicion and negative thinking from your life which, otherwise, might stand as a rock in your way and block your passage to advancement.
Translation
Delighted, with good intent, (O maiden), bring to us riches with all brave sons worthy of raise. O Lords of benignancy, may we have an easy crossing (of river), with a good approach to drinking water. May you drive away the unfriendly persons who stand as road- block or on our way (Rg. X.85.13; Variation).
Translation
O bride that you happy, with auspicious mind bear the wealth worthy to me famed with all the heroes. O wife and husband, you both become the protectors of good, The swimming place be easily accessible for us, let there be good arrangement for drinking water for our sake, you will the enemy having bed design coming in our way.
Translation
Thou, Dame, rejoicing with blissful mind take laudable wealth, with all thy children! O husband and wife, lords of nice beautiful objects, construct a fair ford, good to drink at; plant trees on the pathway, and remove all mental agony!
Footnote
See Rig, 10-40-13
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(सा) सा त्वम् (मन्दसाना)ऋञ्जिवृधिमन्दिसहिभ्यः कित्। उ० २।८७। मदि आमोदस्तुतिदीप्त्यादिषु-असानच् कित्।आमोदयित्री (मनसा) चित्तेन (शिवेन) कल्याणयुक्तेन (रयिम्) धनम् (धेहि) धारय (सर्ववीरम्) सर्ववीरोपेतम् (वचस्यम्) प्रशंसनीयम् (सुगम्) सुखेन गन्तव्यम् (तीर्थम्) पातॄतुदिवचि०। उ० २।७। तॄ प्लवनतरणयोः-थक्। तरणस्थानम् (सुप्रपाणम्)स्वच्छप्रकृष्टपानयुक्तम् (शुभः पती) हे शुभक्रियायाः पालकौ (स्थाणुम्)शाखाशून्यवृक्षादिकम् (पथिष्ठाम्) मार्गस्थम् (दुर्मतिम्) कुबुद्धिम् (अप हतम्)दूरे नाशयतम् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal