अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 24
ऋषिः - आत्मा
देवता - परानुष्टुप् त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
64
आ रो॑ह च॒र्मोप॑सीदा॒ग्निमे॒ष दे॒वो ह॑न्ति॒ रक्षां॑सि॒ सर्वा॑। इ॒ह प्र॒जां ज॑नय॒ पत्ये॑अ॒स्मै सु॑ज्यै॒ष्ठ्यो भ॑वत्पु॒त्रस्त॑ ए॒षः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । रो॒ह॒ । चर्म॑ । उप॑ । सी॒द॒ । अ॒ग्निम् । ए॒ष: । दे॒व: । ह॒न्ति॒ । रक्षां॑सि । सर्वा॑ । इ॒ह । प्र॒ऽजाम् । ज॒न॒य॒ । पत्ये॑ । अ॒स्मै । सु॒ऽज्यै॒ष्ठ्य: । भ॒व॒त् । पु॒त्र: । ते॒ । ए॒ष: ॥२.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
आ रोह चर्मोपसीदाग्निमेष देवो हन्ति रक्षांसि सर्वा। इह प्रजां जनय पत्येअस्मै सुज्यैष्ठ्यो भवत्पुत्रस्त एषः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । रोह । चर्म । उप । सीद । अग्निम् । एष: । देव: । हन्ति । रक्षांसि । सर्वा । इह । प्रऽजाम् । जनय । पत्ये । अस्मै । सुऽज्यैष्ठ्य: । भवत् । पुत्र: । ते । एष: ॥२.२४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
[हे वधू !] (चर्म)चर्म [मृग सिंह आदि के चर्म] पर (आ रोह) ऊँची बैठ, (अग्निम्) अग्नि [व्यापकपरमात्मा वा भौतिक अग्नि] की (उप सीद) सेवा कर (एषः देवः) यह देवता (सर्वा) सब (रक्षांसि) राक्षसों [विघ्नों] को (हन्ति) नाश करता है। (इह) यहाँ [गृहाश्रममें] (अस्मै पत्ये) इस पति के लिये (प्रजाम्) सन्तान (जनय) उत्पन्न कर, (एषः) यह (ते पुत्रः) तेरा पुत्र (सुज्यैष्ठ्यः) बड़े ज्येष्ठपनवाला [आयु में वृद्ध और पदमें श्रेष्ठ] (भवत्) होवे ॥२४॥
भावार्थ
वधू सावधान और प्रसन्नचित्त होकर परमेश्वर की उपासना और हवन आदि क्रिया करे और विद्वान् लोग चिरजीवीपुरुषार्थी सन्तान उत्पन्न करने के लिये वधू को हित शिक्षा और आशीर्वाद देवें॥२४॥
टिप्पणी
२४−(आ रोह) आतिष्ठ (चर्म) म० २२ (उप सीद) उपतिष्ठ (अग्निम्) व्यापकंपरमात्मानं भौतिकाग्निं वा (एषः) (देवः) (हन्ति) नाशयति (रक्षांसि) विघ्नान् (सर्वा) सर्वाणि (इह) गृहाश्रमे (प्रजाम्) सन्तानम् (जनय) उत्पादय (पत्ये)स्वामिने (अस्मै) (सुज्यैष्ठ्यः) ज्येष्ठ-भावे ष्यञ्। आयुषा सुवृद्धः पदेनसुश्रेष्ठो वा (भवत्) भवेत् (पुत्रः) (ते) तव (एषः) ॥
विषय
अग्निहोत्र से रोगकृमि-विनाश
पदार्थ
१. हे गृहपनि! तू (चर्म आरोह) = इस मृगचर्म के आसन पर आरोहण कर। (अग्निं उपसीद्) = इसपर बैठकर तु अग्नि की उपासना कर। प्रभु-स्मरणपूर्वक अग्निहोत्र करनेवाली बन। (एषः देवः) = यह रोगों को पराजित करने की भावनावाला [दिव् विजिगीषायाम्] अग्निदेव सर्वा रक्षांसि हन्ति सब रोगकृमियों का निवारण कर डालता है। २. (इह) = इस रोगशून्यगृह में (अस्मै पत्यै) = इस पति के लिए-इस पति के वंश के अविच्छेद के लिए (प्रजां जनय) = सन्तानों को जन्म देनेवाली हो। (एषः ते पुत्र:) = यह तेरा पुत्र (सुज्यैष्ठयः भवत्) = उत्तम ज्येष्ठतावाला हो [शोभनं ज्यैष्ठयम्] यह ज्ञान, बल व धन की दृष्टि से आगे बढ़ा हुआ हो।
भावार्थ
गृहपत्नी घर में नियमितरूप से अग्निहोत्र करती हुई घर को रोगकृमिरहित बनाए। वहाँ पर उत्तम सन्तान को जन्म दे। वह सन्तान ज्ञान, बल व धन' की दृष्टि से अच्छी प्रकार से बढ़नेवाला हो।
भाषार्थ
हे पत्नी ! (चर्म) चर्म पर (आरोह) तू आरोहण कर, चढ़। (अग्निम्) अग्नि के (उप, सीद) समीप बैठ। (एष) यह (देवः) द्योतमान अग्निः (सर्वा रक्षांसि) सब राक्षसों अर्थात् रोगों और रोगकृमियों का (हन्ति) हनन करती है। (इह) यहां पर (अस्मै, पत्ये) इस पति के लिये (प्रजाम्) सन्तान को (जनय) उत्पन्न कर। (ते) तेरा (एषः) यह (पुत्रः) पुत्र (सुज्यैष्ठ्यः) बड़ी आयु वाला, उत्तम तथा महान् (भवत्) हो।
टिप्पणी
[देवः = द्योतनाद् वा दीपनाद् वा (निरु० ७।४।१५)। मन्त्र में निरावृत चर्म पर बैठने का विधान है, आवृत चर्म पर नहीं]।
भावार्थ
हे सुभगे ! (चर्म आरोह) रोहित, मृगचर्म पर चढ़। उस पर बैठ और (अग्निम् आसीद) परमेश्वर की उपासना कर। (एषः देवः) यह उपास्यदेव प्रकाशस्वरूप (सर्वा) समस्त (रक्षांसि) विघ्नकारियों को (हन्ति) विनाश करता है। (इह) इस गृह में (अस्मै पत्ये) इस पति के लिये (प्रजां जनय) प्रजा उत्पन्न कर। (ते एषः पुत्रः) यह तेरा पुत्र (सुज्यैष्ठ्यः) उत्तम श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न (भवत्) हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
O wife, rise on this mattress cover, sit thereon, serve this fire, this divine fire destroys all evil elements of life and health. Here give birth to the progeny for the husband, and may this progeny of yours enjoy long and noble healthy life.
Translation
Mount upon (this) hide. Sit by the fire. This divinity kills all the destroyers of life. May you give birth to children here for this husband. May this son of yours enjoy the prominence of the eldest.
Translation
O bride take your seat on this skin (spreaded) and enkindle this fire to perform Yajna. This powerful Yajna fire destroy all the diseases and disease-creating germs. In this house you bear progeny for this husband, and may this son of yours become excellent.
Translation
Step on the deer-skin, and worship God, Who removes all obstacles. Here bear thou children to this man thy husband: let this thy son be endowed with noble traits.
Footnote
Here: In domestic life.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२४−(आ रोह) आतिष्ठ (चर्म) म० २२ (उप सीद) उपतिष्ठ (अग्निम्) व्यापकंपरमात्मानं भौतिकाग्निं वा (एषः) (देवः) (हन्ति) नाशयति (रक्षांसि) विघ्नान् (सर्वा) सर्वाणि (इह) गृहाश्रमे (प्रजाम्) सन्तानम् (जनय) उत्पादय (पत्ये)स्वामिने (अस्मै) (सुज्यैष्ठ्यः) ज्येष्ठ-भावे ष्यञ्। आयुषा सुवृद्धः पदेनसुश्रेष्ठो वा (भवत्) भवेत् (पुत्रः) (ते) तव (एषः) ॥
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