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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 9
    ऋषिः - आत्मा देवता - त्र्यवसाना षट्पदा विराट् अत्यष्टि छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    59

    इ॒दं सु मे॑ नरःशृणुत॒ यया॒शिषा॒ दंप॑ती वा॒मम॑श्नु॒तः। ये ग॑न्ध॒र्वा अ॑प्स॒रस॑श्च दे॒वीरे॒षुवा॑नस्प॒त्येषु॒ येऽधि॑ त॒स्थुः। स्यो॒नास्ते॑ अ॒स्यै व॒ध्वै॑ भवन्तु॒ माहिं॑सिषुर्वह॒तुमु॒ह्यमा॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । सु । मे॒ । न॒र॒: । शृ॒णु॒त॒ । यया॑ । आ॒ऽशिषा॑ । दंप॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । वा॒मम् । अ॒श्नु॒त: । ये । ग॒न्ध॒र्वा: । अ॒प्स॒रस॑: । च॒ । दे॒वी: । ए॒षु । वा॒न॒स्प॒त्येषु॑ । ये । अधि॑ । त॒स्थु: । स्यो॒ना: । ते॒ । अ॒स्यै । व॒ध्वै । भ॒व॒न्तु॒ । मा । हिं॒सि॒षु॒: । व॒ह॒तुम् । उ॒ह्यमा॑नम् ॥२.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं सु मे नरःशृणुत ययाशिषा दंपती वाममश्नुतः। ये गन्धर्वा अप्सरसश्च देवीरेषुवानस्पत्येषु येऽधि तस्थुः। स्योनास्ते अस्यै वध्वै भवन्तु माहिंसिषुर्वहतुमुह्यमानम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । सु । मे । नर: । शृणुत । यया । आऽशिषा । दंपती इति दम्ऽपती । वामम् । अश्नुत: । ये । गन्धर्वा: । अप्सरस: । च । देवी: । एषु । वानस्पत्येषु । ये । अधि । तस्थु: । स्योना: । ते । अस्यै । वध्वै । भवन्तु । मा । हिंसिषु: । वहतुम् । उह्यमानम् ॥२.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    गृहआश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    (नरः) हे नरो ! (इदम्)अब (मे) मेरी [बात] (सु) अच्छे प्रकार (शृणुत) सुनो, (यया आशिषा) जिस आशीर्वादसे (दम्पती) पति-पत्नी दोनों, (वामम्) श्रेष्ठ पदार्थ (अश्नुतः) पाते हैं। (ये)जो (गन्धर्वाः) गन्धर्व [वेदवाणी के धारण करनेवाले पुरुष] (च) और (अप्सरसः)कामों में व्यापक रहनेवाली (देवीः) देवियाँ [बड़ी गुणवती स्त्रियाँ] हैं, और (ये) जो पुरुष (एषु) इन (वानस्पत्येषु) सेवनीय शास्त्र के रक्षक जन सेसंबन्धवाले पुरुषों में (अधि) ऊँचे (तस्थुः) ठहरते हैं। वे सब [हे वधू !] (तेअस्यै वध्वै) तुझ इस वधू के लिये (स्योनाः) सुखदायक (भवन्तु) होवें, वे (उह्यमानम्) चलते हुए (वहतुम्) रथ [रथसमान गृहकार्य] को (मा हिंसिषुः) न हानिपहुँचावें ॥९॥

    भावार्थ

    सब निपुण विद्वान्पुरुष और गृहकार्य में चतुर स्त्रियाँ मिलकर ऐसा प्रयत्न करें कि वे दोनोंस्त्री-पुरुष गृहाश्रम में यथावत् सिद्धि प्राप्त करें, और कभी उनके चलते हुएगृहकार्य में विघ्न न पड़ने पावे ॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(इदम्) इदानीम् (सु) सुविचारेण (मे) ममवाणीम् (नरः) हे नेतारः (शृणुत) आकर्णयत (यया) (आशिषा) आशीर्वादेन (दम्पती)जायापती (वामम्) श्रेष्ठं पदार्थम् (अश्नुतः) प्राप्नुतः (ये) (गन्धर्वाः) गांवेदवाणीं धरन्ति ते विद्वांसः (अप्सरसः) अपः कर्मनाम-निघ० २।१।सर्तेरप्पूर्वादसिः। उ–० ४।२३७। अपः+सृ गतौ-असि। अपांसि कर्माणि सरन्तिप्राप्नुवन्ति यास्ताः। कर्मकुशलाः स्त्रियः (देवीः) उत्तमगुणवत्यः (एषु)प्रसिद्धेषु (वानस्पत्येषु) वन्यते सेव्यते स वनः, तस्य पतिर्वनस्पतिः। [वनस्पते] वनस्य संभजनीयस्य शास्त्रस्य पालक-दयानन्दभाष्ये, यजु० २७।२१। ततः।दित्यदित्यादित्य०। पा० ४।१।८५। ण्य। संभजनीयस्य शास्त्रस्य पालकस्य जनस्यसम्बन्धिषु पुरुषेषु (ये) (अधि) उपरि (तस्थुः) तिष्ठन्ति (स्योनाः) सुखदायकाः (ते) तुभ्यम् (अस्यै) प्रसिद्धायै (वध्वै) पत्न्यै (भवन्तु) (मा हिंसिषुः) मानाशयन्तु (वहतुम्) वहनसाधनं रथतुल्यं गृहकार्यम् (उह्यमानम्) गम्यमानम् ॥

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    विषय

    गन्धर्वः व देवीः अप्सरसः

    पदार्थ

    १. हे (नरः) = मनुष्यो ! (मे) = मेरे (इदम्) = इस वचन को (सुशृणत) = सम्यक् श्रवण करो। इस बचन में उस आशीर्वाद का प्रतिपादन है, (यया आशिषा) = जिस आशीर्वाद से (दम्पती) = पति-पत्नी (वामम्) = सुन्दर गृहस्थ-जीवन को (अश्नुत:) = व्यास करनेवाले होते हैं। (ये गन्धर्वा:) = जो ज्ञान की वाणियों का धारण करनेवाले ज्ञानी पुरुष हैं (च) = और देवी (अप्सरसः) = दिव्य व्यवहारों को सिद्ध करनेवाली [अप्सर] क्रियाशील देवियाँ हैं, (ये) = जो (एषु वानस्पत्येषु) = इन वनस्पतिजनित पदार्थों पर ही (अधितस्थुः) = स्थित होते हैं, अर्थात् जो कभी भी मांसाहार की ओर नहीं झुकते (ते) = वे (अस्यै वध्वै) = इस वधू के लिए (स्योना: भवन्तु) = सुख देनेवाले हों। नवदम्पती के लिए इससे उत्तम आशीर्वाद और क्या हो सकता है कि उनके सास-श्वसुर ज्ञान की हविवाले व क्रियाशील जीवनवाले हों। ये वानस्पतिक पदार्थों का सेवन करनेवाले हों। इसप्रकार 'सास-श्वसुर' कभी भी कटुता को उत्पन्न नहीं होने देते। २. उल्लिखित 'गन्धर्व और देवी' अप्सराएँ (उह्यमानम्) = युवक व युवति से धारण किये जाते हुए इस गृहस्थ को (मा हिंसिष:) = हिंसित न होने दें। उनका व्यवहार वधूको उत्साहित करनेवाला हो। उत्साहयुक्त हृदयवाली वधू ही गृहस्थ-रथ का सम्यक् वहन कर पाएगी।

    भावार्थ

    जिस युवक और युवति को उत्तम सास-श्वसुर प्राप्त होते हैं, वे उत्साहमय जीवनवाले होते हुए गृहस्थ-रथ का सम्यक् वहन कर पाते हैं। श्वसुर ज्ञानरुचिवाला हो, सास यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त हो। दोनों ही मांसभोजन से दूर रहें। इससे बढ़कर वधू का सौभाग्य नहीं। इन 'गन्धवों व अप्सराओं' को पाकर युवतियाँ गृहस्थ का सम्यक् वहन कर पाती हैं।

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    भाषार्थ

    (नरः) हे नर-नारियो ! (मे) मेरे (इदम्) इस कथन को (सुशृणुत) ध्यानपूर्वक सुनो कि (यया आशिषा) जिस प्रकार की इच्छा द्वारा (दम्पती) पति-पत्नी (वामम्) सुन्दर तथा श्रेष्ठ सन्तान (अश्नुतः) प्राप्त करते हैं। (ये) जो (गन्धर्वाः) वेदों के विद्वान् (च) और (अप्सरसः) रूपवती (देवीः) देवियां, (ये) तथा जो अन्य सज्जन (वानस्पत्येषु) वृक्षों की काष्ठाओं से निर्मित गद्दियों पर (अधितस्थुः) अधिष्ठित हैं, (ते) वे सब (अस्यै, वध्वै) इस वधू के लिए (स्योनाः) सुखदायक (भवन्तु) हों, अर्थात सुखी रहने के आशीर्वाद दें, और (उह्यमानम्) पितृगृह से ली जाती हुई (वहतुम्) रथस्थ-वधू को (हिंसिषुः, मा) हिंसित न करें, अवाञ्छनीय आलोचना द्वारा मानसिक कष्ट न पहुँचाए।"

    टिप्पणी

    [नरः="नृ" शब्द, सम्बुद्धि में बहुवचनः एकशेष अर्थात् नरनारियो!" आशिषा=आङः शासु इच्छायाम्। दम्पती= दमे गृहनाम (निघं० ३।४)। अंग्रेजी का "Dome"शब्द भी "दम" शब्द का रूपान्तर है। "Domestic Sicence" का अर्थ है गृहविज्ञान। सम्भवतः दम्पती शब्द का वास्तविक अर्थ हो "गृह के दो पति"। इस द्वारा गृह पर पति-पत्नी का समान अधिकार सूचित होता है। व्याकरण के अनुसार जाया को "दम्" आदेश माना जाता है। वामम् = जननीयम् (पुत्रम्)। गन्धर्वाः=गाम् वेदवाणीं धारयन्तीति श। गौः वाङ्नाम (निघं० १।११)। अप्सरसः = अप्स इति रूपनाम, तद्रा रूपवती अप्सराः (निरु० ५।३।१३)। उह्यमानम्= उह्यमानाम् (आपस्तम्ब सूत्र)। वहतुम् = वहतु (रथ) स्थिताम्, वधूम्। यथा "मञ्चाः क्रोशन्ति" = मञ्चस्थाः पुरुषाः क्रोशन्ति। तात्स्थ्यात् ताच्छब्द्यम्] [व्याख्या सुन्दर और श्रेष्ठ सन्तानों को प्राप्त करने के लिए चाहिये सुमति की इच्छा [मन्त्र ५], दुर्मति की विनाशेच्छा [मन्त्र ६], तथा गृहस्थ को सच्चा-तीर्थ बनाने की इच्छा मन्त्र ६]। श्रेष्ठ सन्तानों को प्राप्त करना विवाह का मुख्य उद्देश्य है। मन्त्र में अप्सरसः शब्द का प्रयोग हीन-स्त्रियों के लिये नहीं हुआ, मन्त्र में उन्हें देवीः कहा है, दिव्य गुणों से सुशोभित कहा है। "वानस्पत्येषु अधितस्थुः" का यह अभिप्राय भी सम्भव है कि वनस्पतियों तथा बड़े बड़े वृक्षों के वनों में जो निवास करते हैं ऐसे वानप्रस्थी भी, जोकि विवाह में उपस्थित हुए हैं, निज आशीर्वादों द्वारा वधू के लिए सुखदायक हों।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    Listen, ye men and women, the word of prayer and good wishes by which the wedded couple may attain the best and sweetest pleasure of life: May all devotees of Vedic speech, divine women busy in their daily chores, all sages who live in their forest groves, be good and kind to the bride. May none on way hurt the bride and none obstruct the bridal procession conducting Surya to her new home.

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    Translation

    O men, listen attentively to my this blessing whereby the married couples obtain delight. May the sustainers of the earth (gandharvas), and the divinities moving within the waters (apsaras), who rule over these forests, be gracious to this bride. May they not harm the bridal chariot as it is driven.

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    Translation

    O Ye men! hear of me this through whatever benediction the married couple attain pleasure and proserity. In these forests who soever house-holding men and pious ladies abide may be auspicious for this bride and may not destroy the nuptial pomp, when it advances.

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    Translation

    Hear these my words, ye men, the benediction through which the wedded pair have found high fortune. May the Vedic scholars and noble women, who reside in forests full, of hermits, regard this bride with their auspicious favor, nor harm the nuptial dowry as it is being conveyed.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(इदम्) इदानीम् (सु) सुविचारेण (मे) ममवाणीम् (नरः) हे नेतारः (शृणुत) आकर्णयत (यया) (आशिषा) आशीर्वादेन (दम्पती)जायापती (वामम्) श्रेष्ठं पदार्थम् (अश्नुतः) प्राप्नुतः (ये) (गन्धर्वाः) गांवेदवाणीं धरन्ति ते विद्वांसः (अप्सरसः) अपः कर्मनाम-निघ० २।१।सर्तेरप्पूर्वादसिः। उ–० ४।२३७। अपः+सृ गतौ-असि। अपांसि कर्माणि सरन्तिप्राप्नुवन्ति यास्ताः। कर्मकुशलाः स्त्रियः (देवीः) उत्तमगुणवत्यः (एषु)प्रसिद्धेषु (वानस्पत्येषु) वन्यते सेव्यते स वनः, तस्य पतिर्वनस्पतिः। [वनस्पते] वनस्य संभजनीयस्य शास्त्रस्य पालक-दयानन्दभाष्ये, यजु० २७।२१। ततः।दित्यदित्यादित्य०। पा० ४।१।८५। ण्य। संभजनीयस्य शास्त्रस्य पालकस्य जनस्यसम्बन्धिषु पुरुषेषु (ये) (अधि) उपरि (तस्थुः) तिष्ठन्ति (स्योनाः) सुखदायकाः (ते) तुभ्यम् (अस्यै) प्रसिद्धायै (वध्वै) पत्न्यै (भवन्तु) (मा हिंसिषुः) मानाशयन्तु (वहतुम्) वहनसाधनं रथतुल्यं गृहकार्यम् (उह्यमानम्) गम्यमानम् ॥

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