अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 16
ऋषिः - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
99
उद्व॑ ऊ॒र्मिःशम्या॑ ह॒न्त्वापो॒ योक्त्रा॑णि मुञ्चत। मादु॑ष्कृतौ॒व्येनसाव॒घ्न्यावशु॑न॒मार॑ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । व॒: । ऊ॒र्मि: । शम्या॑: । ह॒न्तु॒ । आप॑: । योक्त्रा॑णि । मु॒ञ्च॒त॒ । मा । अदु॑:ऽकृतौ । विऽए॑नसौ । अ॒घ्न्यौ । अशु॑नम् । आ । अ॒र॒ता॒म् ॥१.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
उद्व ऊर्मिःशम्या हन्त्वापो योक्त्राणि मुञ्चत। मादुष्कृतौव्येनसावघ्न्यावशुनमारताम् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । व: । ऊर्मि: । शम्या: । हन्तु । आप: । योक्त्राणि । मुञ्चत । मा । अदु:ऽकृतौ । विऽएनसौ । अघ्न्यौ । अशुनम् । आ । अरताम् ॥१.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
[हे स्त्री-पुरुषो !] (वः) तुम्हारी (ऊर्मिः) उत्साहरूपी लहर (उत् हन्तु) ऊँची चले, (आपः) हे आप्तप्रजाओ ! (शम्याः) कर्मकुशल होकर तुम (योक्त्राणि) निन्दित कर्मों को (मुञ्चत)छोड़ो। (अदुष्कृतौ) दुष्ट आचरण न करनेवाले, (व्येनसौ) पापरहित, (अघ्न्यौ) नहींमारने योग्य [दोनों स्त्री-पुरुष] (अशुनम्) दुःख (मा आ अरताम्) कभी न पावें ॥१६॥
भावार्थ
सब कर्मकुशल स्त्री-पुरुष निन्दित कर्मों को छोड़कर शुभ कर्मों में अपना उत्साह बढ़ावें, जिन केअनुकरण से यह दम्पती पापों से मुक्त रहकर धर्मात्मा होते हुए उत्तम सन्तानों केसाथ सुख भोगें ॥१६॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−३।३३।१३ ॥
टिप्पणी
१६−(उत्) उपरि (वः) युष्माकम् (ऊर्मिः) ऋ गतौ-मि प्रत्ययः। उत्साहरूपतरङ्गः (शम्याः) कर्मनामनिघ० २।१। शमी-यत्। शमीषु कर्मसु कुशलाः (हन्तु) गच्छतु (आपः) हे आप्तप्रजाः (योक्त्राणि) युज निन्दायाम्−ष्ट्रन्प्रत्ययः, नित्स्वरः। निन्दितकर्माणि (मुञ्चत) त्यजत (मा) निषेधे (अदुष्कृतौ) अदुष्टकर्माणौ (व्येनसौ) विगतपापौ (अघ्न्यौ) हन्तुमनर्हौ स्त्रीपुरुषौ (अशुनम्) शुन गतौ-क। शुनं सुखनाम-निघ० ३।६।सुखरहितं दुःखम् (आ) समन्तात् (अरताम्) ऋ गतौ-लुङ्। प्राप्नुताम् ॥
विषय
अदुष्कृत् व्येनस् अघ्न्या
पदार्थ
१. हे मनुष्यो! (व:) = तुम्हारा (ऊर्मिः) = ऊपर ऊठने का उत्साह (उत्) = ऊपर और ऊपर (हन्तु) = गतिवाला हो, उन्नति के लिए उत्साह बढ़ता ही चले। (शम्या:) = शान्तगुणों से युक्त पुरुष (हन्तु) = सब बुराइयों का संहार करनेवाले हों। (आप:) = हे प्रजाओ। (योक्त्राणि) = [योजयते to censer] निन्दित कर्मों को (मुञ्चत) = छोड़ दो। २. हे स्त्रि-पुरुषो! आप (अदुष्कतौ) = दुष्ट कर्मों से रहित हुए-हुए विएनसौ विगत पापोंवाले-नष्ट पापोंवाले (अघ्न्यौ) = हिंसा से ऊपर उठे हुए होकर (अशुनम्) = दुःख को (मा आरताम्) = सर्वथा प्राप्त मत हो।
भावार्थ
गृहस्थ में मनुष्य उत्साह-सम्पन्न बनें। शान्तभाव से कर्म करते हुए बुराइयों को नष्ट करें। निन्दित कर्मों को छोड़ दें। दुष्कृत से दूर होते हुए निष्पाप बनकर अहिंसा धर्म का पालन करते हुए सुखी हों।
भाषार्थ
(आपः) जलवत् शीतल हे नारियों ! (वः) तुम में से प्रत्येक के [हृदय से] (शम्या) शान्ति प्राप्त कराने वाली (ऊर्मिः) आसक्ति की लहर (उद् हन्तु) उद्गत हो, उठे। इस प्रकार (योक्त्राणि) प्रेमबन्धनों को तुम (मुञ्चत) धारण करो। हे पति-पत्नी ! तुम दोनों (अदुष्कृतौ) दुष्कर्मों से रहित (व्येनसौ) पापों से रहित, (अघ्न्यौ) और पाप की मार से हनन के अयोग्य हो कर (अशुनम्) प्रमुख को (मा) न (आ अरताम्) प्राप्त होओ।
टिप्पणी
[शम्या = शम् (शान्ति) + या (प्रापणे), शान्ति प्राप्त कराने वाली। उद् हन्तु= उद् + हन् (गतौ) = उद्गच्छतु= उठे। हन् हिंसा और गति। आपः = आपः वै योषा (श० ब्रा० १।१।१।१।८)। शान्तिर्वा आपः (ऐ० ब्रा० ७।५)। आपो हि शान्तिः (तां० ब्रा० ८।७।८)। योक्त्राणि, योक्त्रम्१ = The rope by which an animal is tied to the pole of carriage (आप्टे), अर्थात् रस्सी के बन्धन। मुञ्चत= धारण करो, यथा "प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः" में मुञ्च का अर्थ है धारण करना। मुच्= To put on (आप्टे), अर्थात् धारण करना। आ अरताम् = ऋ गति प्रापणयोः (भ्वादि)। व्याख्या-मन्त्र में "आपः और शम्या उर्मिः" द्वारा जल वाले नद या समुद्र की लहरों का तथा "उद्हन्तु" द्वारा उन लहरों के उठने का निर्देश मिलता है। वेद में हृदय को भी "समुद्र" कहा है, यथा-हृद्यात्समुद्रात् (यजुः १७।९३) तथा "सिन्धु" सिन्धुसृत्याय (अथर्व १०।१।११)। इसलिये मन्त्रार्थ में ऊर्मि का सम्बन्ध हृदय के साथ किया है। "वः" बहुवचन है और "ऊर्मिः" एकवचन है। इसलिये "प्रत्येक के हृदय से"-ऐसा अर्थ किया गया है। आपः अर्थात् जल शान्त और शान्तिदायक होते हैं, इस लुप्तोपमा द्वारा, नारियों को भी जल के सदृश शान्ति सम्पन्न तथा शान्तिदायक होना चाहिये, यह भाव द्योतित किया है। मन्त्र के पूर्वार्ध द्वारा नारियों को, तथा उत्तरार्ध द्वारा वर-वधू या पति-पत्नी को उपदेश दिया है। "योक्त्राणि" पद द्वारा प्रेम-बन्धनों का निर्देश हुआ है। पत्नी के हृदय से यदि पति आदि के प्रति प्रेममयी लहरें उठती रहें तो ये प्रेममयी लहरें पति आदि के लिये बन्धन रूप हो जाती हैं। यथा “पतिर्बन्धेषु बध्यते" (अथर्व १४।१।२६) में भी बन्धनों का वर्णन हुआ है। प्रेम, सहानुभूति, सेवा आदि प्रेम-बन्धन हैं। पति-पत्नी को विशेष उपदेश दिया गया है, अर्थात दुष्कर्मों से रहित होना, पापों से रहित होना, अवध्य हो जाना, तथा अशुभ को प्राप्त न होना। अशुन= अ+शुनम् (सुखनाम, निघं० ३।६)। इन में परस्पर कार्य कारणभाव का सम्बन्ध है। दुष्कर्मों से पृथक् हो जाने पर पाप भावनाओं से मुक्त हो जाना, अनुभव और युक्ति से सिद्ध है। पाप भावनाओं से मुक्त हो जाने पर व्यक्ति अबध्य हो जाता है, उस का चारित्रिक विनाश नहीं होता, वह पूर्ण आयु भोग कर मृत्यु को प्राप्त करता है, और अन्त में जन्म-मरण के बन्धन से छूट जाता है। अशुन अर्थात् असुख के दो स्वरूप हैं। एक "सुख का न होना", और दूसरा "दुःख का होना"। "सुख का न होना" और "दुःख का होना"-ये दोनों अवस्थाएं उपादेय नहीं। मनुष्य दुःख से तो सदा रहित होना चाहता है, परन्तु सुखाभाव को भी वह नहीं चाहता। वह तो साक्षात् सुख का अभिलाषी है, केवल अशुन-अवस्था का नहीं।] [१. योक्त्रम् = yoke = रथ का जुआ। पति-पत्नी को गृहस्थ-रथ के जुए में बन्धने का वर्णन यथा "समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि" (अर्थव० ३।३०।६) द्वारा भी किया गया है अर्थात् गृहस्थ के सब व्यक्ति परस्पर ऐसे बन्धे रहें जैसे दो बैल रथ के जुए में बन्धे रहते हैं।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
हे (शम्याः आपः) शान्त गुणों से युक्त, शम साधन से सम्पन्न, शान्तिकारक आप्त पुरुषो ! (वः) आप लोगों का (ऊर्भिः) ऊपर उठने का उत्साह (उत्-हन्तु) ऊपर को बढ़े। आप लोग (योक्त्राणि) निन्दित कार्यों को (प्रमुञ्चत) छोड़ दो या छुड़ाओ। हे स्त्री पुरुष तुम दोनों (अदुष्कृतौ) दुष्ट कर्मों से रहित (वि-एनसौ) पाप से रहित निष्पाप रहते हुए (अघ्न्यौ) कभी भी मारने या दण्ड देने योग्य न होकर (अशुनम्) असुख, दुःखदायी क्लेश को (मा आ अरताम्) कभी प्राप्त न होओ।
टिप्पणी
(च०) ‘व्येनाघ्न्यौशूनमारताम्’ इति ऋ०। ऋग्वेदे विश्वामित्र ! ऋषिर्नद्यो देवता।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
O women, let vibrations of love and peace emanate from you. Take over the reins of the home and give up whatever is undesirable. O man and wife, do nothing evil, avoid sin, be unassailable, and may you never suffer any loss or harm.
Translation
O waters, may your wave strike the pins upwards; may you release the yoke-ropes, May not these two inviolables (bullocks), well-behaved and innocent, come to unpleasant harm. (Rg. X.85.13; Variation).
Translation
Let the wave of these waters break the calmness of atmosphere let them remove the yokes and let not the pair who are sinless, righteous and innocent suffer from harm.
Translation
Ye, tranquil learned persons, may your perseverance advance. May you renounce ignoble deeds. Never may the holy pair, sinless, and innocent suffer harm.
Footnote
See Rig, 3-33-13. Pair: Husband and wife.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(उत्) उपरि (वः) युष्माकम् (ऊर्मिः) ऋ गतौ-मि प्रत्ययः। उत्साहरूपतरङ्गः (शम्याः) कर्मनामनिघ० २।१। शमी-यत्। शमीषु कर्मसु कुशलाः (हन्तु) गच्छतु (आपः) हे आप्तप्रजाः (योक्त्राणि) युज निन्दायाम्−ष्ट्रन्प्रत्ययः, नित्स्वरः। निन्दितकर्माणि (मुञ्चत) त्यजत (मा) निषेधे (अदुष्कृतौ) अदुष्टकर्माणौ (व्येनसौ) विगतपापौ (अघ्न्यौ) हन्तुमनर्हौ स्त्रीपुरुषौ (अशुनम्) शुन गतौ-क। शुनं सुखनाम-निघ० ३।६।सुखरहितं दुःखम् (आ) समन्तात् (अरताम्) ऋ गतौ-लुङ्। प्राप्नुताम् ॥
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