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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 70
    ऋषिः - आत्मा देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    129

    सं त्वा॑नह्यामि॒ पय॑सा पृथि॒व्याः सं त्वा॑ नह्यामि॒ पय॒सौष॑धीनाम्। सं त्वा॑ नह्यामिप्र॒जया॒ धने॑न॒ सा संन॑द्धा सनुहि॒ वाज॒मेमम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । त्वा॒ । न॒ह्या॒मि॒ । पय॑स । पृ॒थि॒व्या: । सम् । त्वा॒ । न॒ह्या॒मि॒ । पय॑सा । ओष॑धीनाम । सम् । त्वा॒ । न॒ह्या॒मि॒ । प्र॒ऽजया॑ । धने॑न । सा । सम्ऽन॑ध्दा । स॒नु॒हि॒ । वाज॑म् । आ । इ॒मम् ॥२.७०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं त्वानह्यामि पयसा पृथिव्याः सं त्वा नह्यामि पयसौषधीनाम्। सं त्वा नह्यामिप्रजया धनेन सा संनद्धा सनुहि वाजमेमम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । त्वा । नह्यामि । पयस । पृथिव्या: । सम् । त्वा । नह्यामि । पयसा । ओषधीनाम । सम् । त्वा । नह्यामि । प्रऽजया । धनेन । सा । सम्ऽनध्दा । सनुहि । वाजम् । आ । इमम् ॥२.७०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 70
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहआश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे प्रजा !] (त्वा)तुझे (पृथिव्याः) पृथिवी के (पयसा) ज्ञान से (सं नह्यामि) मैं कवचधारी करता हूँ, (त्वा) तुझे (ओषधीनाम्) ओषधियों [अन्न सोमलता आदि] के (पयसा) ज्ञान से (संनह्यामि) कवचधारी करता हूँ। (त्वा) तुझे (प्रजया) प्रजा [सन्तान सेवक आदि] से और (धनेन) धन से (सं नह्यामि) मैं कटिबद्ध करता हूँ, (सा) सो तू [हे प्रजा !] (सन्नद्धा) सन्नद्ध [कटिबद्ध] होकर (इमम्) यह (वाजम्) बल (आ) सब ओर से (सनुहि)दे ॥७०॥

    भावार्थ

    राजा को योग्य है ऐसे-ऐसे विद्यालयों को बनावे, जिन में प्रजागण भूगर्भविद्या, भूतलविद्या, अन्नविद्या, ओषधिविद्या आदि प्राप्त करके सन्तान और धन से बढ़ती करें और राजा कोभी यथायोग्य सहायता देकर समर्थ बनावें ॥७०॥

    टिप्पणी

    ७०−(त्वा) त्वां प्रजाम् (संनह्यामि) सन्नद्धां धृतकवचां कटिबद्धां करोमि (पयसा) पय गतौ-असुन्। ज्ञानेन (पृथिव्याः) (त्वा) (सं नह्यामि) (पयसा) (ओषधीनाम्) अन्नसोमलतादीनाम् (त्वा) (संनह्यामि) (प्रजया) सन्तानसेवकादिना (धनेन) सम्पत्त्या (सा) सा त्वं प्रजे (सन्नद्धा) कटिबद्धा सती (सनुहि) षणु दाने। देहि (वाजम्) बलम्-निघ० २।९। (आ)समन्तात् (इमम्) प्रसिद्धम् ॥

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    विषय

    संनहन

    पदार्थ

    १. पति कहता है कि हे मेरे जीवन के साथी! (त्वा) = तुझे (पृथिव्याः) = पृथिवी के-पृथिवी से उत्पन्न (पयसा) = आप्यायन के साधनभूत पदार्थों से (संनह्यामि) = सम्यक् बद्ध करता हूँ। मैं (ओषधिनाम् पयसा) = ओषधियों की आप्यायन-शक्ति से (संनह्यामि) = सन्नद्ध करता हूँ। मैं अपने पास पार्थिव पदार्थों व ओषधि-वनस्पतियों की कमी नहीं होने देता। २. (त्वा) = तुझे (प्रजया धनेन) = उत्तम सन्तानों व धनों से (संनह्यामि) = इस कुल से सम्यक् बद्ध करता हूँ। इस प्रकार सब आवश्यक पदार्थों से (सन्नद्धा) = सन्नद्ध हुई-हुई (सा) = वह तू (इमं वाजम्) = इस शक्ति को (आसनुहि) = समन्तात् अंग-प्रत्यंग में संभजन करनेवाली हो। घर-सञ्चालन के लिए आवश्यक वस्तुओं की कमी होने पर चिन्ता के कारण शक्ति में कमी आ जाती है। सब आवश्यक पदार्थों से परिपूर्ण गृह चिन्ता का विषय न बनकर शक्तिवृद्धि का हेतु होता है।

    भावार्थ

    पति का कर्तव्य है कि घर में सब आवश्यक पदार्थों को प्राप्त करने की व्यवस्था करे। इससे पत्नी का जीवन चिन्ता से दूर होता हुआ सशक्त बना रहेगा।

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    भाषार्थ

    हे पत्नी! (पृथिव्याः) पृथिवी की (पयसा) सारभूत वस्तुओं के प्रदान द्वारा (त्वा) तुझे (सं नह्यामि) अपने साथ मैं बान्धता हूं, (ओषधीनाम्) ओषधियों की (पयसा) सारभूत वस्तुओं के प्रदान द्वारा (त्वा) तुझे (सं नह्यामि) अपने साथ मैं बान्धता हूं, (प्रजया) प्रजा द्वारा, (धनेन) और धन के प्रदान द्वारा (त्वा) तुझे (सं नह्यामि) अपने साथ मैं बान्धता हूं, (संनद्धा) मेरे साथ बन्धी हुई (सा) वह तू (इमम्) इस (वाजम्) बलकारी अन्न को (आ सनुहि) मुझे दिया कर।

    टिप्पणी

    [वाजम्=बलनाम (निघं० २।९), तथा अन्ननाम (निघं० २।७)। सनुहि=षणु दाने। नह्यामि=नह बन्धने] [व्याख्या–विवाह संस्कार पत्नी को पति के साथ, तथा पति को पत्नी के साथ बान्ध देता है। यह सांस्कारिक-बन्धन है। इस सांस्कारिक बन्धन के होते हुए भी गृहस्थ जीवन में यदि पत्नी को पति के साथ बान्धने के अन्य साधन नहीं हैं तो यह सांस्कारिक बन्धन ढीला भी पड़ जाता है। सांस्कारिक बन्धन के अतिरिक्त मन्त्र में ४ और बन्धन दर्शाएं हैं। पृथिवी द्वारा बन्धन ओषधियों द्वारा बन्धन, प्रजा द्वारा बन्धन तथा धन द्वारा बन्धन। पृथिवी की जो सारभूत अर्थात् उत्तमोत्तम वस्तुएं हैं वे पृथिवी के पयोरूप हैं। इन पार्थिव वस्तुओं के प्रदान द्वारा पति, पत्नी को अपने साथ बान्धे। इसी प्रकार ओषधियों की पयोरूप वस्तुएं हैं- नानाविध खाद्य तथा पेय पदार्थ। गृहस्थ-जीवन में इन के अभाव द्वारा भी, पति-पत्नी का पारस्परिक बन्धन ढीला पड़ जाता है। प्रजा अर्थात् सन्तानों का होना बन्धन का सर्वोत्तम साधन है। सन्तानों पर माता और पिता का एक जैसा प्रेम होता है। इस कारण पति-पत्नी परस्पर बन्धे रहते हैं। इसी प्रकार ऐश्वर्य, पशु सम्पत् तथा मकान आदि सम्पत् भी परस्पर के बन्धन में सहायक होते हैं। धन के अभाव में एक बन्धु दूसरे का परित्याग भी कर सकता है। इस लिये पति धनोपार्जन में सदा यत्नवान् रहे। मन्त्र में प्रजा द्वारा बन्धन का एक और भी अभिप्राय है। सांस्कारिक बन्धन के रहते भी यदि सन्तान नहीं हुई, और इस से यदि पति में नपुंसकता और पत्नी में वन्ध्यता प्रमाणित हो जाय, तो यह सम्बन्ध शास्त्रविधि या कानून के द्वारा विच्छिन्न भी हो सकता है। इस लिये भी, प्रजा का होना, पारस्परिक बन्धन में विशेष कारण है।]

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    विषय

    पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे वधू ! (त्वा) तुझको मैं (पृथिव्याः पयसा) पृथिवी के पुष्टिकारक पदार्थ, अन्न से (सं नह्यामि) भली प्रकार बांधता हूं। और (ओषधीनाम् पयसा) घोषधियों के पुष्टिकारक रस से (त्वा सं नह्यामि) तुझे भली प्रकारक बांधता हूं। (त्वा) तुझे (प्रजया) प्रजा और (धनेन) धन के बल से (सं नह्यामि) बांधता हूं। (सा) वह तू (सं नद्धा) खूब उत्तम रीति से मेरे संग बद्ध होकर (इमम्) इस (वाजम्) वीर्य को (सुनुहि) धारण कर उत्पन्न कर। विवाह की उत्तर विधि में ‘अन्नपाशेन मणिना’ इत्यादि तीन मन्त्रों से भात वरवधू क्रम से खाते हैं उससे परस्पर एक दूसरे को बांधते हैं।

    टिप्पणी

    ‘सं त्वा नह्यामि पयसा घृतेन सं त्वा नह्यामि अप ओषधीभिः’। ‘सं त्वा नह्यामि प्रजयाहमद्य सा दीक्षितासनवो वाजमस्ये।’ इति तै० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    O bride, O bridegroom, O couple, I join you, strengthen you, and guard you with the armour of the earth’s milk of nourishment, I join, strengthen and guard you with the milk and nourishment of the herbs, I join, strengthen and bless you with the joy of progeny and prosperity of wealth. O bride, thus joined, strengthened and armoured, obtain and enjoy this strength, prosperity and life’s achievement.

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    Translation

    I harness you well with the essence of the earth. I harness you with the essence of the herbs. I harness with progeny and wealth. So harnessed, attain to this vigour.

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    Translation

    O bride! I gird you with all the milk available on the earth, I enrich you united with all the juice of herbaceous plants, I unite you with children and wealth around and that you enriched thus increase this wealth and vigor.

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    Translation

    I gird thee with all the nourishing products of the Earth, with all the juice the plants contain I provide thee. I bless thee with children and riches. Do thou, thus girt, receive the offered wealth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७०−(त्वा) त्वां प्रजाम् (संनह्यामि) सन्नद्धां धृतकवचां कटिबद्धां करोमि (पयसा) पय गतौ-असुन्। ज्ञानेन (पृथिव्याः) (त्वा) (सं नह्यामि) (पयसा) (ओषधीनाम्) अन्नसोमलतादीनाम् (त्वा) (संनह्यामि) (प्रजया) सन्तानसेवकादिना (धनेन) सम्पत्त्या (सा) सा त्वं प्रजे (सन्नद्धा) कटिबद्धा सती (सनुहि) षणु दाने। देहि (वाजम्) बलम्-निघ० २।९। (आ)समन्तात् (इमम्) प्रसिद्धम् ॥

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