अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 17
ऋषिः - आत्मा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
114
अघो॑रचक्षु॒रप॑तिघ्नी स्यो॒ना श॒ग्मा सु॒शेवा॑ सु॒यमा॑ गृ॒हेभ्यः॑।वी॑र॒सूर्दे॒वृका॑मा॒ सं त्वयै॑धिषीमहि सुमन॒स्यमा॑ना ॥
स्वर सहित पद पाठअघो॑रऽचक्षु: । अप॑तिऽघ्नी । स्यो॒ना । श॒ग्मा । सु॒ऽशेवा॑। सु॒ऽयमा॑ । गृ॒हेभ्य॑: । वी॒र॒ऽसू: । दे॒वृऽका॑मा ।सम् । त्वया॑ । ए॒धि॒षी॒म॒हि॒ । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑ना ॥२.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
अघोरचक्षुरपतिघ्नी स्योना शग्मा सुशेवा सुयमा गृहेभ्यः।वीरसूर्देवृकामा सं त्वयैधिषीमहि सुमनस्यमाना ॥
स्वर रहित पद पाठअघोरऽचक्षु: । अपतिऽघ्नी । स्योना । शग्मा । सुऽशेवा। सुऽयमा । गृहेभ्य: । वीरऽसू: । देवृऽकामा ।सम् । त्वया । एधिषीमहि । सुऽमनस्यमाना ॥२.१७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
[हे वधू !] तू (गृहेभ्यः) घरवालों के लिये (अघोरचक्षुः) प्रिय दृष्टिवाली, (अपतिघ्नी) पति को नसतानेवाली, (स्योना) सुखदायिनी (शग्मा) कार्यकुशला, (सुशेवा) सुन्दर सेवा योग्य, (सुयमा) अच्छे नियमोंवाली, (वीरसूः) वीरों की उत्पन्न करनेवाली, (देवृकामा)देवरों [पति के छोटे-बड़े भाइयों] से प्रीति रखनेवाली और (सुमनस्यमाना) प्रसन्नचित्तवाली [रह], (त्वया) तेरे साथ (सम् एधिषीमहि) हम मिलकर बढ़ते रहें ॥१७॥
भावार्थ
गृहपत्नी कर्मकुशलहोकर शुद्ध अन्तःकरण से सदा सबका हित करे, जिससे सब घर वृद्धि करता जावे ॥१७॥यहऔर आगे का मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।८५।४४, और यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में वधू-वर के यज्ञकुण्ड की प्रदक्षिणाकरने में और फिर वर के घर पहुँचकर उनके आज्याहुति देने में व्याख्यात है॥
टिप्पणी
१७−(अघोरचक्षुः) अभयङ्करनेत्री (अपतिघ्नी) पत्युरहिंसित्री (स्योना) सुखप्रदा (शग्मा) युजिरुचितिजां कुश्च। उ० १।१४९। शक्लृ शक्तौ-मक्, कस्य गः, अर्शआद्यच्, टाप्। शक्म शग्म कर्मनाम-निघ० १।२। कर्मकुशला (सुशेवा) सुसेवनीया (सुयमा)सुनियमवती (गृहेभ्यः) गृहपुरुषेभ्यः (वीरसूः) वीराणां प्रसवित्री (देवृकामा)देवृषु पतिभ्रातृषु प्रीतियुक्ता (सम्) सम्यक् (एधिषीमहि) वर्धिषीमहि (सुमनस्यमाना) प्रसन्नचित्ता ॥
विषय
अघोरचक्षुः
पदार्थ
१. हे नववधु ! तू (अघोरचक्षुः) = आँख में क्रूरतावाली न होकर प्रिय, सौम्य दृष्टिवाली होना। (अपतिघ्नी) = किसी भी प्रकार पति के कष्टों का कारण बनकर पति के आयुष्य को नष्ट करनेवाली न होना। (स्योना) = सुख देनेवाली होना, (शग्मा) = निरन्तर उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होना। (गहेभ्यः) = घर में रहनेवालों के लिए (सुशेवा) = उत्तम सेवावाली तथा (सुयमा) = उत्तम नियन्त्रणवाली बनना। २. (वीरसू:) = वीर सन्तानों को जन्म देनेवाली हो, (देवृकामा) = पति के छोटे भाइयों के साथ भी मधुर, प्रीतियुक्त व्यवहारवाली होना। इसप्रकार तू सदा (सुमनस्यमाना) = सौमनस्यवाली होना-सदा प्रसन्नचित्त रहना, मनःप्रसाद को अपनाना। ऐसी जो तू है, उस (त्वया) = तेरे साथ (सम्ऐधिषीमहि) = हम सम्यक् वृद्धि को प्राप्त करें।
भावार्थ
पत्नी सदा प्रसन्नचित्त, कार्यव्यस्त, पति के दीर्घायु का कारण, सेवा की वृत्तिवाली व गृह को व्यवस्था में रखनेवाली हो। पति व घर के अन्य सब व्यक्ति इसके व्यवहार से प्रसन्न हों और घर में फूलें-फलें।
भाषार्थ
(अघोरचक्षुः) क्रूरतारहित आंखों वाली, (अपतिघ्नी) पति को कष्ट न पहुँचाने वाली, (गृहेभ्यः) गृहवासियों के लिये (स्योना) सुखदायिनी, (शग्मा) शान्ति देनेवाली, (सुशेवा) उत्तम सेवा करनेवाली, (सुयमा) यम-नियमों का उत्तमविधि से पालन करनेवाली, (वीरसूः) वीर सन्तानें पैदा करनेवाली (देवृकामा) देवरों की शुभ कामना करनेवाली,और (सुमनस्यमाना) सुप्रसन्न मन वाली तू हो। (त्वया) इन गुणों से युक्त तेरे संग द्वारा (सम्,एधिषीमहि) हम सब वृद्धि प्राप्त करें, बढ़ें।
टिप्पणी
[स्योना, स्योनम् सुखनाम (निघं० ३।६)। शग्मा=शं गमयति प्रापयति। सुशेवा= सु शेवृ (सेवने)। देवृकामा="तू देवर की कामना करती हुई अर्थात् नियोग की भी इच्छा करनेहारी°°° सदा हो (संस्कारविधि, महर्षि दयानन्द)]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
हे नववधु ! तू (गृहेभ्यः) हमारे गृहवासियों के लिये (अघोरचक्षुः) घोर=कूर चचक्षु से रहित, सौम्य दृष्टि से सम्पन्न (अपतिघ्नी) पति को नाश न करनेहारी, पति के प्रति प्रेमयुक्त (स्योना) सुखदायिनी (सुशेवा) उत्तम सेवा करनेहारी, (सुयमा) उत्तम रूप से नियम व्यवस्था में रहने और गृह को उत्तम नियम व्यवस्था में रखनेहारी (वीरसूः) वीर बालकों को उत्पन्न करने वाली (देवृकामा) पति से उतर कर देवर को सन्तान निमित्त चाहने वाली (सुमनस्यमाना) उत्तम चित्त वाली हो। (त्वया) तुझ से हम लोग (सम् एधिषीमहि) अच्छी प्रकार प्रजा, धन और सुख से सम्पन्न हो।
टिप्पणी
(च०) ‘स्योनान्त्वेधिषीमहि सुमनस्यमानाः’ इति पैप्प० सं०। ‘अघोरचक्षुरपतिघ्नि एधि शिवापशुभ्यः सुमनाः सुवर्चाः’। ‘वीरसूर्देवृकामा स्योना शंनो भवद्विपदे शं चतुष्पदे’। इति ऋ०। (तृ०) ‘देवृकामा, देवकामा’ इत्युभमथा पाठौ। गृह्यसूत्रेषु ऋग्वेदगतः पाठः प्रापिकः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
Of kind eye, unhurtful to the husband, gentle, efficient, gracious, self-regulated for inmates of the home, mother of the brave, loving to brother-in-law, happy at heart you are, may we rise and advance with you.
Translation
May you not be evil-eyed, or killer of your husband. May you be delighting, kind, helpful, disciplined to the (member of the) household, bearer of brave children and pleasing to your brothers-in-law. With you, may we prosper well in friendly happiness. (Rg. X.85.44; Variation).
Translation
O bride, for the people of my house you be uncruel eyed, non-slayer of your husband, pleasure-giving, auspicious, of good service, strict observer of rules. bearing good offspring desiring Devara, the second husband of Niyaga (if emergency arises out) and endowed with sound mental attitude. May I prosper with you.
Translation
Not evil-eyed, no slayer of thy husband, be consoling, kind, serviceable and law-abiding to thy household. Mother of heroes, wish for the welfare of thy husband’s brother; be happy, and through thee may we too prosper.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७−(अघोरचक्षुः) अभयङ्करनेत्री (अपतिघ्नी) पत्युरहिंसित्री (स्योना) सुखप्रदा (शग्मा) युजिरुचितिजां कुश्च। उ० १।१४९। शक्लृ शक्तौ-मक्, कस्य गः, अर्शआद्यच्, टाप्। शक्म शग्म कर्मनाम-निघ० १।२। कर्मकुशला (सुशेवा) सुसेवनीया (सुयमा)सुनियमवती (गृहेभ्यः) गृहपुरुषेभ्यः (वीरसूः) वीराणां प्रसवित्री (देवृकामा)देवृषु पतिभ्रातृषु प्रीतियुक्ता (सम्) सम्यक् (एधिषीमहि) वर्धिषीमहि (सुमनस्यमाना) प्रसन्नचित्ता ॥
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