अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 44
ऋषिः - आत्मा
देवता - प्रस्तार पङ्क्ति
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
57
नवं॒ वसा॑नःसुर॒भिः सु॒वासा॑ उ॒दागां॑ जी॒व उ॒षसो॑ विभा॒तीः। आ॒ण्डात्प॑त॒त्रीवा॑मुक्षि॒विश्व॑स्मा॒देन॑स॒स्परि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनव॑म् । वसा॑न: । सु॒र॒भि: । सु॒ऽवासा॑: । उ॒त्ऽआगा॑म् । जी॒व: । उ॒षस॑: । वि॒ऽभा॒ती: । आ॒ण्डात् । प॒त॒त्रीऽइ॑व । अ॒मु॒क्षि॒ । विश्व॑स्मात् । एन॑स: । परि॑॥२.४४॥
स्वर रहित मन्त्र
नवं वसानःसुरभिः सुवासा उदागां जीव उषसो विभातीः। आण्डात्पतत्रीवामुक्षिविश्वस्मादेनसस्परि ॥
स्वर रहित पद पाठनवम् । वसान: । सुरभि: । सुऽवासा: । उत्ऽआगाम् । जीव: । उषस: । विऽभाती: । आण्डात् । पतत्रीऽइव । अमुक्षि । विश्वस्मात् । एनस: । परि॥२.४४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
(नवम्) स्तुति को (वसानः) धारण करता हुआ, (सुरभिः) ऐश्वर्यवान् (सुवासाः) सुन्दर निवासवाला, (जीवः) जीव [जीवता हुआ] मैं (विभातीः) सुन्दर प्रकाशयुक्त (उषसः) प्रभातवेलाओंमें (उदागाम्) उदय होता रहूँ। (आण्डात्) अण्डे से (पतत्री इव) पक्षी से समान (विश्वस्मात्) सब (एनसः) कष्ट से (परि) सर्वथा (अमुक्षि) छूट जाऊँ ॥४४॥
भावार्थ
मनुष्य गृहाश्रम मेंप्रवेश करके प्रयत्न करे कि वह प्रभात के सूर्य के समान उदय होता हुआ तेजस्वी, प्रशंसित, बलवान्, धनवान्, चिरजीवी होकर सुख भोगता रहे ॥४४॥
टिप्पणी
४४−(नवम्) णुस्तुतौ-अप्। स्तवम्। स्तुतिम् (वसानः) धारयन् (सुरभिः) अ० १२।१।२३। षुरऐश्वर्यदीप्त्योः-अभिच्। ऐश्वर्यवान् (सुवासाः) सुनिवासयुक्तः (उदागाम्) उदयंप्राप्नुयाम् (जीवः) प्राणान् धारयन् (उषसः) प्रभातवेलाः (विभातीः)विविधप्रकाशयुक्ताः (आण्डात्) स्वार्थे-अण्। अण्डात् (पतत्री) पक्षी (इव) यथा (अमुक्षि) मुक्तो भवानि (विश्वस्मात्) सर्वस्मात् (एनसः) कष्टात् (परि) पृथग्भावे ॥
विषय
नवं वसान: सुरभिः सुवासा:
पदार्थ
१. एक गृहस्थ प्रार्थना करता है कि मैं (नवं वसान:) = [नु स्तुतौ] स्तुति को धारण करता हुआ-प्रभु स्मरण को-प्रणवजप को अपना कवच बनाता हुआ (सुरभिः) = सुगन्धित, पापशून्य, यशस्वी जीवनवाला सुवासा:-उत्तम वस्त्रों को धारण किये हुए जीव:-जीवनशक्ति से परिपूर्ण मैं विभाती: उषसा: देदीप्यमान उषाओं में उत् आगाम्-शैय्या से उठ खड़ा होऊँ-बिछौनों को छोड़कर कर्त्तव्यकर्मों में तत्पर होऊँ। २. इसप्रकार सदा उषाकाल में जागता हुआ मैं विश्वस्मात् एनस:-सब पापों से इसप्रकार परि अमुक्षि-दूर होऊ इव-जैसेकि आण्डात्पतत्री-अण्डे से पक्षी मुक्त हो जाता है।
भावार्थ
प्रणवजप करते हुए हम सुगन्धित जीवनवाले बनें, उषाकाल में प्रबुद्ध हों। पाप से सर्वथा मुक्त होकर दीसजीवनवाले हों।
भाषार्थ
(नवम्) नये वस्त्र (वसानः) धारण करता हुआ, (सुरभिः) सुगन्ध लगा कर या यश के कारण प्रिय, (सुवासाः) वस्त्रों द्वारा सुशोभित (जीवः) चिरञ्जीव मैं, (उद्) उत्कृष्ट भावनाओं को धारण कर, (विभातीः) विविध वर्णों में चमकती हुई (उषसः) उषाओं को लक्ष्य कर के (अगाम्) भ्रमणार्थ गया हूं, और (विश्वस्मात्) सब (एनसः) दुःखप्रदरोगों से (आ अमुक्षि) सर्वथा मुक्त हो गया हूं, (इव) जैसे कि (पतत्री) पक्षी (आण्डात्) अण्डे से मुक्त हो जाता है, छूट जाता है।
टिप्पणी
[सुरभिः= यशोभिः सुरभिः, या सुगन्ध लगाया हुआ। एनसः= ईयते प्राप्यते दुःखमनेन तत् एनः (उणा० ४।१९९; महर्षि दयानन्द)]। [व्याख्या-गृहस्थी को, उषा के काल में भ्रमण के लाभ पर विश्वास दिलाने के लिए, अनुभूत घटना के रूप में वर्णन मन्त्र में हुआ है। उषा के प्रकाश में भ्रमण के लिए नए, स्वच्छ तथा सुन्दर वस्त्र धारण करने चाहियें, जो कि सुगन्ध द्वारा सुवासित होने चाहिये। इस भ्रमण द्वारा शुद्ध वायु के सेवन, तथा उषा की नानावर्णी शोभा से, प्राण वायु तथा शारीरिक-तत्त्वों के पवित्र हो जाने से, दुःखदायक रोगों से छुटकारा प्राप्त होता है।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
मैं गृह का स्वामी (नवं वसानः) नये वस्त्र पहन कर (सुरभिः) सुगन्धित पदार्थों से युक्त (सुवासाः) उत्तम वस्त्रों से सुशोभित होकर (जीवः) सुख से जीवन धारण करता हुआ (विभातीः उषसः) विशेषरूप से प्रकाश वाली उषाओं में नित्य प्रतिदिन (उद् अगाम्) उठा करूं। और (पतत्री) पक्षी (आण्डात् इव) अण्ड से निकल कर जिस प्रकार बाहर आ जाता है और अण्डे से मुक्त हो जाता है उसी प्रकार में (विश्वस्मात् एनसः) समस्त पाप से (परि अमुक्षि) ऊपर होकर उससे मुक्त हो जाऊं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
Living life ever anew, fragrant, wearing smart clothes, bubbling with pranic energy, I rise by the bright dawns and, like a bird emerging from the egg, I break through all limitations and rise over sins and evils of life.
Translation
Clothed in new garments, fragrant and well-dressed, spirited I have risen up to the splendours of dawn. Like a bird coming out of the egg, may I be freed completely from all the sin.
Translation
I the bride-groom, dressed in new cloth, having fragrance, nicely clad rise up at the time of resplendent dawns. I am free from all the evils as a bird is freed from egg.
Translation
Clad in new garments, flagrant, well-apparelled, to meet effulgent Dawns do I rise, passing life happily. I, like a bird that quits the egg, am freed from sin and purified.
Footnote
I: Husband
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४४−(नवम्) णुस्तुतौ-अप्। स्तवम्। स्तुतिम् (वसानः) धारयन् (सुरभिः) अ० १२।१।२३। षुरऐश्वर्यदीप्त्योः-अभिच्। ऐश्वर्यवान् (सुवासाः) सुनिवासयुक्तः (उदागाम्) उदयंप्राप्नुयाम् (जीवः) प्राणान् धारयन् (उषसः) प्रभातवेलाः (विभातीः)विविधप्रकाशयुक्ताः (आण्डात्) स्वार्थे-अण्। अण्डात् (पतत्री) पक्षी (इव) यथा (अमुक्षि) मुक्तो भवानि (विश्वस्मात्) सर्वस्मात् (एनसः) कष्टात् (परि) पृथग्भावे ॥
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