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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
    ऋषिः - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    87

    स्यो॒ना भ॑व॒श्वशु॑रेभ्यः स्यो॒ना पत्ये॑ गृ॒हेभ्यः॑। स्यो॒नास्यै॒ सर्व॑स्यै वि॒शे स्यो॒नापु॒ष्टायै॑षां भव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्यो॒ना । भ॒व॒ । श्वशु॑रेभ्य: । स्यो॒ना । पत्ये॑ । गृ॒हेभ्य॑: । स्यो॒ना । अ॒स्यै । सर्व॑स्यै । वि॒शे । स्यो॒ना । पु॒ष्टाय॑ । ए॒षा॒म् । भ॒व॒ ॥२.२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्योना भवश्वशुरेभ्यः स्योना पत्ये गृहेभ्यः। स्योनास्यै सर्वस्यै विशे स्योनापुष्टायैषां भव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्योना । भव । श्वशुरेभ्य: । स्योना । पत्ये । गृहेभ्य: । स्योना । अस्यै । सर्वस्यै । विशे । स्योना । पुष्टाय । एषाम् । भव ॥२.२७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 27
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहआश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे वधू !] तू (श्वशुरेभ्यः) ससुर आदि के लिये (स्योना) सुख देनेवाली, (पत्ये) पति के लिये और (गृहेभ्यः) घरवालों के लिये (स्योना) सुख देनेवाली (भव) हो। (अस्यै) इस (सर्वस्यै विशे) सब प्रजा के लिये (स्योना) सुख देनेवाली और (एषाम्) इनके (पुष्टाय) पोषण के लिये (स्योना) सुख देनेवाली (भव) हो ॥२७॥

    भावार्थ

    उत्तम वधू पालन-पोषणकरके सब कुटुम्बियों को प्रसन्न रक्खे ॥२७॥मन्त्र २६ देखो ॥

    टिप्पणी

    २७−(स्योना) सुखप्रदा (भव) (श्वशुरेभ्यः) श्वशुरादिभ्यः (स्योना) (पत्ये) स्वामिने (गृहेभ्यः)गृहपुरुषेभ्यः (स्योना) (अस्यै) (सर्वस्यै) (विशे) प्रजायै (पुष्टाय) पोषणाय (एषाम्) पूर्वोक्तानाम् (भव) ॥

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    विषय

    सुमंगली-स्योना

    पदार्थ

    १. हे नववधु! (सुमंगली) = पर का उत्तम मंगल साधनेवाली, (गृहाणां प्रतरणी) = घरों को दुःख से पार लगानेवाली (पत्ये सुशेवा) = पति के लिए उत्तम सुख देनेवाली (श्वशुराय शंभूः) = श्वसुर के लिए शान्ति प्राप्त करानेवाली तथा (श्वश्र्वै स्योना) = सास के लिए भी सुख देनेवाली तू (इमान् गृहान् प्रविश) = इन घरों में प्रवेश कर। २. (श्वशुरेभ्य:) = घर में श्वसुर-तुल्य बड़ों के लिए तू (स्योना भव) = सुख देनेवाली हो। (पत्ये गृहेभ्यः) = पति के लिए तथा पति की माता के लिए (स्योना) = सुख देनेवाली हो। (अस्यै सर्वस्यै विशे) = घर में स्थित इस सारी प्रजा के लिए-पति के भाइयों के लिए व उनकी सन्तानों के लिए (स्योना) = तू सुख ही देनेवाली हो। (स्योना) = सुख देनेवाली होती हुई (एषां पुष्टाय भव) = इन सबके पोषण के लिए हो। गृह में कलह सबके अकल्याण व कष्टों का कारण बनती है। यह गृहपत्नी सभी के लिए सुखकर होती हुई सबके कल्याण का ही कारण बने।

    भावार्थ

    गृहपत्नी ने घर में सबके मंगल व सुख को साधनेवाली बनना है। उसके कारण घर में कलह उत्पन्न न हो और सबका समुचित पोषण हो।

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    भाषार्थ

    हे वधु ! (श्वशुरेभ्यः) श्वशुरों के लिए (स्योना) सुखस्वरूपा (भव) तु हो, (पत्ये) पति के लिए, (गृहेभ्यः) और अन्य गृहवासियों के लिए (स्योना) तू सुखस्वरूपा हो। (अस्यै) इस (सर्वस्यै) सब (विशे) प्रजा के लिए (स्योना) सुखस्वरूपा हो (स्योना) सुखस्वरूपा तू (एषाम्) इन सब को (पुष्टाय) पुष्टि के लिए (भव) हो।

    टिप्पणी

    [श्वशुरेभ्यः= पति का पिता, चाचा, ताऊ- ये सब वधू के श्वशुर है] [व्याख्या-पति के अन्य गृहवासियों के, तथा भृत्य, पशु आदि के सुखों तथा पुष्टि की चिन्ता पत्नी को सदा करनी चाहिये। मनुष्य समाज तथा समग्र प्रजा के लिए पत्नी को सुखमयी होना चाहिये। पत्नी के उदार तथा विशाल हृदय के बिना अतिथियज्ञ, पितृयज्ञ तथा भूतयज्ञ आदि गृहकर्मों का पालन सम्भव नहीं। प्राणि-मात्र के प्रति ऐसी उदार भावनाएँ प्रत्येक गृहस्थ की प्रत्येक गृहिणी के हृदय में होनी चाहिये।]

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    विषय

    पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे नववधु ! (श्वशुरेभ्यः) श्वशुरों के लिये (स्योना भव) सुखकारिणी हो (पत्ये गृहेभ्यः) पति के अन्य गृहजनों के लिये (स्योना) सुखकारिणी हो (अस्यै) इस (सर्वस्यै) समस्त (विशे) प्रजा के लिये (स्योना भव) सुखकारिणी हो। और (एषां) इन सब के (पुष्टाय) पुष्टि समृद्धि के लिये (भव) हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    Be gentle to the father-in-law and other seniors, be loving to the husband and agreeable to the members of the family, be good and pleasant to all these people of the family, be good for the health and growth of all this family and all these people.

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    Translation

    May you be delightful to the fathers-in-law; delightful to husband and to the household; delightful to all this clan; be delightful in their prosperity.

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    Translation

    O bride, you be pleasant for husband's fathers, be sweet to your house-hold and your husband, be gentle and genial for all these subjects and favor their prosperity.

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    Translation

    Be pleasant to thy fathers-in-law, sweet to thy householders and thy lord. To all this clan be gentle, and favor these men’s prosperity.

    Footnote

    (26, 27) Both these verses have been explained by Maharshi Dayananda in Sanskar Vidhi in the chapter on Grihastha Ashrama (Domestic life).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २७−(स्योना) सुखप्रदा (भव) (श्वशुरेभ्यः) श्वशुरादिभ्यः (स्योना) (पत्ये) स्वामिने (गृहेभ्यः)गृहपुरुषेभ्यः (स्योना) (अस्यै) (सर्वस्यै) (विशे) प्रजायै (पुष्टाय) पोषणाय (एषाम्) पूर्वोक्तानाम् (भव) ॥

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