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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 62
    ऋषिः - आत्मा देवता - पथ्यापङ्क्ति छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    42

    यत्ते॑प्र॒जायां॑ प॒शुषु॒ यद्वा॑ गृ॒हेषु॒ निष्ठि॑तमघ॒कृद्भि॑र॒घं कृ॒तम्।अ॒ग्निष्ट्वा॒ तस्मा॒देन॑सः सवि॒ता च॒ प्र मु॑ञ्चताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ते॒ । प्र॒ऽजाया॑म् । प॒शुषु॑ । यत् । वा॒ । गृ॒हेषु॑ । निऽस्थि॑तम् । अ॒घ॒कृत्ऽभि॑: । अ॒घम् । कृ॒तम् । अ॒ग्नि:। त्वा॒ । तस्मा॑त् । एन॑स: । स॒वि॒ता । च॒ । प्र । मु॒ञ्च॒ता॒म् ॥२.६२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्तेप्रजायां पशुषु यद्वा गृहेषु निष्ठितमघकृद्भिरघं कृतम्।अग्निष्ट्वा तस्मादेनसः सविता च प्र मुञ्चताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । ते । प्रऽजायाम् । पशुषु । यत् । वा । गृहेषु । निऽस्थितम् । अघकृत्ऽभि: । अघम् । कृतम् । अग्नि:। त्वा । तस्मात् । एनस: । सविता । च । प्र । मुञ्चताम् ॥२.६२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 62
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहआश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे गृहस्थ !] (यत्)यदि (ते) तेरी (प्रजायाम्) प्रजा [जनपद के लोगों] में, (पशुषु) पशुओं में, (वा)अथवा (यत्) यदि (गृहेषु) घरों में (अघकृद्भिः) दुःख करनेवाले [रोगों वामनुष्यों] करके (कृतम्) किया गया (अघम्) दुःख (निष्ठितम्) स्थित कर दिया गया है। (अग्निः) तेजस्वी (च) और (सविता) प्रेरक पुरुष (त्वा) तुझे (तस्मात् एनसः) उसकष्ट से (प्र) सर्वथा (मुञ्चताम्) छुड़ावे ॥६२॥

    भावार्थ

    यदि प्रजा के लोगों, पशुओं वा शिल्पशाला आदि घरों में रोगों से वा दुष्ट मनुष्यों से कष्ट उपस्थितहो, विद्वान् लोग विद्याबल से और परमेश्वर के सहाय से उस कष्ट को हटावें॥६२॥

    टिप्पणी

    ६२−(यत्) यदि (ते) तव (प्रजायाम्) जनपदपुरुषेषु (पशुषु) गवादिषु (यत्) यदि (वा) अथवा (गृहेषु) शिल्पादिस्थानेषु (निष्ठितम्) स्थापितम् (अघवृद्भिः)दुःखकर्तृभिः (अघम्) दुःखम् (कृतम्) सम्पादितम्। अन्यत् पूर्ववत्-म० ५९ ॥

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    विषय

    अघ-निवारक 'अग्नि व सविता'

    पदार्थ

    १. (यदि) = यदि (इमे) = ये (केशिनाः जनाः) = बिखरे हुए बालोंवाले लोग (ते गृहे) = तेरे घर में (अघं कृण्वन्ति) = [अध: pain, grief, distress] शोक करते हुए (रोदेन समनर्तिषुः) = नाच-कूद करने लगें-बिलखें तो (तस्मात् एनसः) = उस [एनस् unhappiness], निरानन्दता से-दुःखमय वातावरण से (अग्निः सविता च) = अग्नि और सविता-वह अग्रणी, सवोत्पादक प्रभु (त्वा प्रमुञ्चताम्) = तुझे मुक्त करें। तुम्हारे अन्दर आगे बढ़ने की भावना हो तथा निर्माण के कार्यों में लगे रहने की प्रवृत्ति हो। ऐसा होने पर घर में इसप्रकार बिलख-बिलखकर रोने के दृश्य उपस्थित न होंगे। २. (यदि इयम्) = यदि यह (तव दुहिता) = तेरी दूरेहिता-बिवाहिता कन्या विकेशी = बालों को खोले हुए (गृहे अरुदन्) = घर में रोती है और (रोदेन) = अपने रोने से (अपं कृण्वती) = दुःख के वातावरण को उपस्थित कर देती है और इसीप्रकार (यत्) = जो (जामय:) = तेरी विवाहिता बहिनें, (यत् युवतयः) = और युवति कन्याएँ (ते गृहे समनर्तिषु:) = तेरे घर में नाच-कूद मचा देती है और रोदेन (अघं कृण्वति) = रोने के द्वारा दुःखमय वातावरण बना देती हैं, इसीप्रकार (यत्) = जो (ते प्रजायाम्) = तेरी सन्तानों में, (पशुषु) = गवादि पशुओं में (यत् वा) = अथवा (गृहेषु) = पत्नी में (अघकृद्भिः) = किन्हीं पापवृत्तिवालों ने (निष्ठितम् अरघं कृतम्) = [निष्ठितम्-firm, certain] निश्चितरूप से स्थाई कष्ट उत्पन्न कर दिया है तो अग्नि और सविता तुझे उस कष्ट से मुक्त करें। वस्तुत: आगे बढ़ने की भावना से और घर में सबके निर्माण कार्यों में लगे रहने से इसप्रकार के कष्टों में रोने के अवसर उपस्थित ही नहीं होते। सामान्यत: घरों में शान्ति बनी रहती है। अग्नि व सविता की उपासना के अभाव में अज्ञान की वृद्धि होती है, दु:खद घटनाएँ उपस्थित हो जाती हैं और रोने-धोने के दृश्य उपस्थित हुआ करते हैं।

    भावार्थ

    यदि घरों में सब आगे बढ़ने की भावना से युक्त हों और निर्माण के कार्यों में प्रवृत्त रहें तो व्यर्थ के कलहों के कारण रोने-धाने के दृश्य उपस्थित ही न हों।

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    भाषार्थ

    हे वधु! (ते) तेरी (प्रजायाम्) सन्तान में, (पशुषु) पशुओं में, (वा) अथवा (गृहेषु) गृहवासियों में (यत्-यत्) जो जो (अघम्) मृत्यु-कारक रोग, (अघकृद्धिः) मृत्युकारी कीटाणुओं द्वारा (निष्ठितम्) स्थिर (कृतम्) कर दिया है, (तस्मात्) उस (एनसः) आ गये पापमय रोग से (अग्निः) अग्नि (च) और (सविता) सूर्य (त्वा) तुझे (प्र मुञ्चताम्) छुड़ाए।

    टिप्पणी

    [सविता=सूर्य, अर्थात् उषा के प्रयाण के समकाल में उदीयमान सूर्य। उदीयमान तथा अस्तकाल के सूर्य का प्रकाश रोगजनक क्रिमियों का हनन करता है। यथा “उद्यन् आदित्यः क्रिमीन् हन्तु निम्रोचम् हन्तु रश्मिभिः” (अथर्व० २।३२।१), “उदय होता हुआ तथा अस्त होता हुआ सूर्य रश्मियों द्वारा क्रिमियों का हनन करे”। ऐसे सूर्य का प्रकाश जब घरों में चमके तब घर के रोगजनक क्रिमियों के हनन हो जाने के कारण रोग और रोग द्वारा होने वाली मृत्युएं नहीं होती। साथ ही अग्नि में अग्निहोत्र तथा ऋतुयज्ञों के करते रहने से भी रोग-क्रिमियों का हनन होता रहता है। रोग-क्रिमियों के लिए देखो (अथर्व० २।३१, ३२, ३३, तथा ५।२३)]। “सूर्य रश्मि चिकित्सा” द्वारा भी रोगों का हनन होता है। “कश्यपस्य वीबर्हेण” (अथर्व० २।३३।७) में, सूर्य की रश्मियों द्वारा "यक्ष्मं त्वचस्यं ते वयं विष्वञ्चं वि वृहामसि१” (अथर्व० २।३३।७) त्वचा आदि के यक्ष्म रोग के हनन का भी विधान किया है। कश्यप=सूर्य। “कश्यपस्य ज्योतिषा वर्चेसा च” (अथर्व० १७।२७)। वीवर्ह=रश्मिसमूह (सम्भवतः)।] [१. वीवर्हेण और विवृहामसि में “वि” उपसर्ग और “वृह्” धातु का प्रयोग है। वृह् का अर्थ है,-उद्यम्। और वि + वृह् का अर्थ है उद्यम-रहित करना। रोगों को उद्यम-रहित या निश्चेष्ट करने का अभिप्राय है, उन्हें शक्तिरहित कर उन का विनाश करना। कश्यप शब्द ज्योतिर्मय तेजस्वी सूर्यार्थक है। इस लिये प्रतीत होता है कि वीवर्ह सम्भवतः सूर्य की रश्मियां हों, जो कि रोगों को निरुद्यम कर देती है।]

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    विषय

    पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे गृहपते ! (यत्) जो (प्रजायाम्) तेरी प्रजा में (यद् वा पशुषु गृहेषु) और जो तेरे पशुओं और गृहों में (अघकृद्भिः) उपद्रवकारियों से (कृतम्) किया गया (अघम्) उपद्रव (निष्ठितम्) उठ खड़ा हो (अग्निः त्वा० इत्यादि) ज्ञानी आचार्य और सविता पिता और परमेश्वर उस पापरूप उपद्रव से करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    If among your people and animals, or in homes and families, sin and evil committed by unrighteous and criminal elements stay on and persist, then may Agni and Savita save you and release you from that sin and unrighteousness.

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    Translation

    What evil the evil-doers have set in your progeny, in your cattle, or in your homes, may the Lord adorable and inspirer, free you from that nuisance.

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    Translation

    Whatever evil wrong by mischief-mongers has got place in your children, animals or in your houses let......evil.

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    Translation

    If any evil has been wrought by mischief-makers that affects thy progeny, cattle or house, may the learned Acharya free thee from that woe, may God deliver thee from that.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६२−(यत्) यदि (ते) तव (प्रजायाम्) जनपदपुरुषेषु (पशुषु) गवादिषु (यत्) यदि (वा) अथवा (गृहेषु) शिल्पादिस्थानेषु (निष्ठितम्) स्थापितम् (अघवृद्भिः)दुःखकर्तृभिः (अघम्) दुःखम् (कृतम्) सम्पादितम्। अन्यत् पूर्ववत्-म० ५९ ॥

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