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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 37
    ऋषिः - आत्मा देवता - भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    94

    संपि॑तरा॒वृत्वि॑ये सृजेथां मा॒ता पि॒ता च॒ रेत॑सो भवाथः। मर्य॑ इव॒ योषा॒मधि॑रोहयैनां प्र॒जां कृ॑ण्वाथामि॒ह पु॑ष्यतं र॒यिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । पि॒त॒रौ॒ ‍। ऋत्वि॑ये॒ इति॑ । सृ॒जे॒था॒म् । मा॒ता । पि॒ता । च॒ । रेत॑स: । भ॒वा॒थ॒: ।मर्य॑:ऽइव । योषा॑म् । अधि॑ । रो॒ह॒य॒ । ए॒ना॒म् प्र॒ऽजाम् । कृ॒ण्वा॒था॒म् । इ॒ह । पु॒ष्य॒त॒म् । र॒यिम् ॥२.३७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संपितरावृत्विये सृजेथां माता पिता च रेतसो भवाथः। मर्य इव योषामधिरोहयैनां प्रजां कृण्वाथामिह पुष्यतं रयिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । पितरौ ‍। ऋत्विये इति । सृजेथाम् । माता । पिता । च । रेतस: । भवाथ: ।मर्य:ऽइव । योषाम् । अधि । रोहय । एनाम् प्रऽजाम् । कृण्वाथाम् । इह । पुष्यतम् । रयिम् ॥२.३७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 37
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहआश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    (पितरौ) हे [होनेवाले]माता-पिता ! (ऋत्विये) ऋतुकाल [गर्भाधानयोग्य समय] को प्राप्त दो वस्तु [केसमान] (संसृजेथाम्) तुम दोनों मिलो, (च) और (रेतसः) वीर्य से [वीर्य और रज केमेल से] तुम दोनों (माता पिता) माता-पिता (भवाथः) होओ। (मर्यः इव) नर के समान [हे पति !] (एनाम्) इस (योषाम्) अपनी पत्नी के (अधि रोहय) ऊपर हो, और (प्रजाम्)सन्तान को (कृण्वाथाम्) तुम दोनों उत्पन्न करो, और (इह) यहाँ [गृहाश्रम में] (रयिम्) धन को (पुष्यतम्) बढ़ाओ ॥३७॥

    भावार्थ

    जैसे वृक्ष आदि के बीजके मिले हुए दो टुकड़े वर्षा ऋतु में पृथिवी के संयोग से अङ्कुर उत्पन्न करतेहैं, वैसे ही युवा पति-पत्नी गर्भाधानविधि के अनुसार रतिक्रिया करके वीर्य औररज के संयोग से सन्तान उत्पन्न करें और धनी होकर सुखी होवें ॥३७॥मन्त्र ३७ और ३८महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि गृहाश्रमप्रकरण में व्याख्यात हैं ॥

    टिप्पणी

    ३७−(पितरौ) भाविनौ मातापितरौ (ऋत्विये) अ० १२।३।२९।छन्दसि घस्। पा० ५।१।१०६। ऋतु-घस्। द्विवचनान्तः प्रयोगोऽयं नपुंसके। ऋतुंगर्भाधानयोग्यकालं प्राप्ते द्वे द्रव्ये यथा (संसृजेथाम्) युवां संयुक्तौ भवतम् (माता) (पिता) (च) (रेतसः) वीर्यात्। वीर्यरजःसंयोगात् (भवाथः) युवां भवतम् (मर्यः इव) नरो यथा (योषाम्) सेवनीयांपत्नीम् (अधि रोहय) उपरि गच्छ (एनाम्)गुणवतीम् (प्रजाम्) सन्तानम् (कृण्वाथाम्) जनयतम् (इह) गृहाश्रमे (पुष्यतम्)वर्धयतम् (रयिम्) धनम् ॥

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    विषय

    ऋत्विये संसृजेथाम्

    पदार्थ

    १. (पितरौ) = समीप भविष्य में माता-पिता बननेवाले तुम दोनों (ऋत्विये) = ऋतुकाल के प्रास होने पर (संसृजेथाम्) = परस्पर संसृष्ट होओ (च) = और आप दोनों (रेतस:) = इस रेतस् के द्वारा [रज वीर्य के द्वारा] (माता पिता भवाथ:) = माता-पिता बनते हो। इस रज-वीर्य के मेल से सन्तान होती है और यह सन्तान तुम्हें माता-पिता की पदवी प्राप्त कराती है। २. हे विवाहित होनेवाले युवक! तू (मर्यः इव) = एक शक्तिशाली मनुष्य की भौति (एनां योषाम् अधिरोहय) = इस स्त्री को अपनी शैय्या पर आरूढ़ कर । तुम दोनों (प्रजां कृण्वाथाम्) = उत्तम सन्तान का निर्माण करो और (इह) = यहाँ-इस जीवन में (रयिं पुष्यतम्) = धन का पोषण करो।

    भावार्थ

    ऋतुकाल में परस्पर संगत होते हुए ये वर-वधू बीजवपन के द्वारा उत्तम सन्तान को जन्म देकर माता व पिता बनें। ये जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक धन का पोषण करनेवाले हों|

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    भाषार्थ

    हे होने वाली सन्तान के (पितरौ) माता-पिता तुम दोनों (ऋत्विये) ऋतु कर्म के निमित्त (सं सृजेथाम्) संसर्ग करो, और (रेतसः) रेतस् से उत्पन्न होने वाली सन्तान के (माता, पिता, च) माता और पिता (भवाथः) होओ। (मर्य इव) जैसे सर्वसाधारण पति (योषाम्) निज पत्नी को, वैसे हे आादित्य-ब्रह्मचारिन् ! तू (एनाम्) इस सूर्या-ब्रह्मचारिणी को (अधि रोहय) तल्प पर [१४।२।३१] या चर्म पर [१४।२।२४] चढ़ा, (प्रजाम, कृण्वाथाम्) सन्तान उत्पन्न करो, (इह) और इस गृहस्थ में रहते हुए (रयिम्) धन तथा शारीरिक सम्पत्ति को (पुष्यतम्) परिपुष्ट करते रहो।

    टिप्पणी

    [पितरौ = माता च पिता च, एकशेष। रेतसः षष्ठ्येकवचन-सन्तान के कार्य में कारण शब्द का प्रयोग हुआ है। यथा "अन्नं वे प्राणिनां प्राणः"; अन्न कारण है और प्राण कार्य है, परन्तु अन्न को प्राण कहा है]। [व्याख्या-पत्नी ऋतुदर्शन पर, ऋतुकर्म के निमित्त, पति-पत्नी को परस्पर संसर्ग करना चाहिये, अन्यथा नहीं। पति-पत्नी को चाहिये कि वे माता-पिता बनने के लिये परस्पर संसर्ग करें, केवल भोगेच्छा के लिये नहीं। सन्तानोत्पादन के लिये ही रेतस् का उपयोग होना चाहिये। उत्पादनेच्छा न होते रेतस् की परिपुष्टि करते रहना चाहिये, इसका दुरुपयोग न करना चाहिये। इस से शारीरिक पुष्टि भी होती है।]

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    विषय

    पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (पितरौ) माता और पिताओ ! (ऋत्विये*) ऋतुकाल के अवसर पर तुम परस्पर (संसृजेथाम्) संगत हुआ करो, परस्पर मिला करो। (माता च पिता च) तुम माता पिता ही (रेतसः) अपने वीर्य से पुत्र रूप में (भवाथः) उत्पन्न हुआ करते हो। हे पुरुष ! (एनाम् योषाम्) इस अपनी पत्नी को (मर्य इव) मर्द के समान (अधि रोहय) अपने सेज पर चढ़ा। हे स्त्री पुरुषो ! (इह) इस लोक में (प्रजाम् कृण्वाथाम्) प्रजा को उत्पन्न करो और (रयिम् पुष्यतम्) वीर्य को पुष्ट किये रहो।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘पितरा वृद्धये’ इति पैप्प० सं०। (तृ०) ‘अधिरोहय शेष एना’ मिति लैन्मनकामितः स्पष्टार्थः। * ‘ऋत्विये’ इति पदपाठः। तत्र पितरौ इत्यस्य विशेषणं ‘ऋत्विये’ इति स्त्रीलिंगप्रयोगश्चिन्त्यः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    O man and wife, father and mother to be, meet together at the proper time for procreation, and by the union of the seed and the egg, be father and mother of the progeny. O man, meet the woman, overwhelm her like a youthful lover with passion and communion, and thus alone both of you would beget the progeny and augment your wealth and prosperity here. (The laws of nature are sacred and inviolable, and the operation and observance of those laws at the human level is a serious affair as a matter of duty and self-fulfilment within the laws and dictates of Dharma. The fulfilment of this duty is both joy and self-realisation in life in the state of matrimony at proper time of age and season. The state of health, the state of mind, and the state of the home and family, every thing is important: Sex, marriage, procreation, raising of children and management of the home and family as an institution, all is sacred and serious, and the sanctity of this all must not be desecrated as mere fun and sensual pleasure. This is the comprehensive Vedic view of the united life of man and woman.)

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    Translation

    O you two, parents, unite in your due season. You will become mother and father of your progeny. As a male mounts a female, so mount her. Bring forth, your offsprings here and accumulate wealth.

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    Translation

    O women and men, you are the protector of children so you produce good progeny observing the rules of timely impregnation. You are to be mothers and fathers, so you the procedure of timely impregnation in mixing your semen’s through cohabitation. O man! you as the husband of this woman like the other husband who have wives promote her position with progeny and you both procreate children in this house-hold life, bring up them and acquire wealth with perseverance.

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    Translation

    In your due season, parents! come together. Mother and sire be ye of future children. Embrace this woman like a happy lover. Raise ye up off¬ spring. Increase your riches here.

    Footnote

    Here: In domestic life, or in this world. Verses 37, 38 have been explained by Swami Dayananda in the Sanskar Vidhi in the chapter on Grihastha Ashrama.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३७−(पितरौ) भाविनौ मातापितरौ (ऋत्विये) अ० १२।३।२९।छन्दसि घस्। पा० ५।१।१०६। ऋतु-घस्। द्विवचनान्तः प्रयोगोऽयं नपुंसके। ऋतुंगर्भाधानयोग्यकालं प्राप्ते द्वे द्रव्ये यथा (संसृजेथाम्) युवां संयुक्तौ भवतम् (माता) (पिता) (च) (रेतसः) वीर्यात्। वीर्यरजःसंयोगात् (भवाथः) युवां भवतम् (मर्यः इव) नरो यथा (योषाम्) सेवनीयांपत्नीम् (अधि रोहय) उपरि गच्छ (एनाम्)गुणवतीम् (प्रजाम्) सन्तानम् (कृण्वाथाम्) जनयतम् (इह) गृहाश्रमे (पुष्यतम्)वर्धयतम् (रयिम्) धनम् ॥

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