अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 42
ऋषिः - आत्मा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
69
यं मे॑ द॒त्तोब्र॑ह्मभा॒गं व॑धू॒योर्वाधू॑यं॒ वासो॑ व॒ध्वश्च॒ वस्त्र॑म्। यु॒वं ब्र॒ह्मणे॑ऽनु॒मन्य॑मानौ॒ बृह॑स्पते सा॒कमिन्द्र॑श्च द॒त्तम् ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । मे॒ । द॒त्त: । ब्र॒ह्म॒ऽभा॒गम् । व॒धू॒ऽयो: । वाधू॑ऽयम् । वास॑: । व॒ध्व᳡: । च॒। वस्त्र॑म् । यु॒वम् । ब्र॒ह्मणे॑ । अ॒नु॒ऽमन्य॑मानौ । बृह॑स्पते । सा॒कम् । इन्द्र॑: । च॒ । द॒त्तम् ॥२.४२॥
स्वर रहित मन्त्र
यं मे दत्तोब्रह्मभागं वधूयोर्वाधूयं वासो वध्वश्च वस्त्रम्। युवं ब्रह्मणेऽनुमन्यमानौ बृहस्पते साकमिन्द्रश्च दत्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । मे । दत्त: । ब्रह्मऽभागम् । वधूऽयो: । वाधूऽयम् । वास: । वध्व: । च। वस्त्रम् । युवम् । ब्रह्मणे । अनुऽमन्यमानौ । बृहस्पते । साकम् । इन्द्र: । च । दत्तम् ॥२.४२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
(यम्) जो (ब्रह्मभागम्) ब्रह्मा [वेदवेत्ता] का भाग [अर्थात्] (वाधूयम्) विवाह का (वासः)पहिरने योग्य (वस्त्रम्) वस्त्र [योग्यता का चिह्न] (वधूयोः=वधूयवे) वधू केकामना करनेवाले (मे) मुझ (ब्रह्मणे) ब्रह्मा [वेदवेत्ता वर] को (च) और (वध्वः=वध्वै) वधू को (दत्तः) वे दोनों [वर और वधू के पक्षवाले] देते हैं। (बृहस्पते)हेबृहस्पति ! [बड़ी विद्या के रक्षक आचार्य] (च) और (इन्द्रः) हे बड़ेऐश्वर्यवाले राजन् ! (साकम्) साथ-साथ (अनुमन्यमानौ) अनुमति देते हुए (युवम्)तुम दोनों [वह वस्त्र] (दत्तम्) देओ ॥४२॥
भावार्थ
जब वधू-वर के पक्षवालेयुवा-युवती का विवाह निश्चित करें, तब वे राजव्यवस्था और गुरुकुल आदि की शिक्षाके अनुसार दोनों की आयु, विद्या, स्वस्थता, सुशीलता आदि योग्यता को अवश्य विचारलेवें ॥४२॥
टिप्पणी
४२−(यम्) (मे) मह्यम् (दत्तः) प्रयच्छतः, तौ वधूवरपक्षौ (ब्रह्मभागम्)ब्रह्मणा वेदज्ञेन सेवनीयं पदार्थम् (वधूयोः) चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि। पा०२।३।३२। इति षष्ठी। वधूयवे। वधूकामाय वराय (वासः) परिधानीयम् (वध्वः) म० ४१।वध्वै (च) (वस्त्रम्) योग्यतासूचकं वसनम् (युवम्) युवाम् (ब्रह्मणे) वेदवत्त्रेपुरुषाय (अनुमन्यमानौ) अनुमतिं ददमानौ (बृहस्पते) बृहत्या विद्यायाः पालक आचार्य (साकम्) (इन्द्रः) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (दत्तम्) प्रयच्छतम् ॥
विषय
वाधूयं वासः, वध्व: च वस्त्रम्
पदार्थ
१. हे बृहस्पते और इन्द्र! आप विवाह की कामनावाले एक युवक के लिए (देवैः) = दिव्यगुणों के साथ तथा (मनुना साकम्) = ज्ञान के साथ (एतत्) = इस (वाधूयं वासः) = वधू के लिए उपयुक्त गृह को (च) = तथा (वध्य: वस्त्रम्) = वधू के वस्त्र को (दत्तम्) = देते हो। यहाँ प्रभु को बृहस्पति और इन्द्र नाम से स्मरण करते हुए यह संकेत हुआ है कि एक युवक को ज्ञान प्राप्त करना है और जितेन्द्रियता द्वारा दिव्यगुण-सम्पन्न [देवराट् इन्द्र] बनना है, तभी वह उत्तम पति बन पाएगा। गृहस्थ के सम्यक् विवाह के लिए यह भी आवश्यक है कि निवास के लिए एक गृह हो और उसमें वस्त्रादि की कमी न हो। २. इस घर को (यः) = जो (चिकितुषे ब्रह्मणे) = ज्ञानी ब्राह्मण के लिए (ददाति) = देता है, (सः इत्) = वही (तल्पानि रक्षांसि) = शैय्या-सम्बन्धी राक्षसीभावों को, अर्थात् भोगविलास की वृत्तियों को विनिष्ट कर डालता है। घर को ब्राह्मण के लिए देने का भाव यह है कि घर में ज्ञानी ब्राह्मण के आने पर घर को आपका ही है', ऐसा कहकर उस ज्ञानी अतिथि के प्रति अर्पित करते हैं। वे ज्ञानी भी स्नेहपूर्वक घर को उत्तम बनाने की प्रेरणा देते हैं। इसप्रकार इस घर में उस ज्ञानी के सम्पर्क के कारण पवित्र भावना बनी रहती है। ३. हे (बृहस्पते) = ज्ञान के पति प्रभो! (च इन्द्रः साकम्) = और परमेश्वर्यशाली प्रभु साथ-साथ (युवम्) = आप दोनों (वधूयो:) = वधू की कामनावाले-गृहस्थ में प्रवेश की कामनावाले (मे) = मेरे लिए (यं ब्रह्मभागम्) = जिस ज्ञान के अंश को (वाधूयं वास:) = वधू के निवास के योग्य गृह को (च) = और (वध्वः वस्त्रम्) = वधू के वस्त्र को (दत्तः) = देते हो, आप उसको (ब्रह्मणे) = ज्ञानी ब्राह्मण के लिए (अनुमन्यमानौ) = अनुमति देते हुए ही (दत्तम्) = देते हो। आप मुझे यह अनुकूल मति भी प्राप्त कराते हो कि मैं उस घर को ज्ञानी ब्राह्मण के लिए अर्पित करनेवाला बनूं। यह ब्राह्मण-सत्कार ही इस घर को पवित्र बनाए रक्खेगा।
भावार्थ
'बृहस्पति व इन्द्र' नाम से प्रभु-स्मरण करता हुआ युवक ज्ञानी व जितेन्द्रिय बनकर दिव्यगुणों को धारण करे। गृहस्थ के निर्वाह के लिए गृहसामग्री को जुटाने के लिए यत्नशील हो। अपने घर को वह ज्ञानी ब्राह्मण के प्रति अर्पित करने की वृत्तिवाला बनकर घर को विलास का शिकार होने से बचा लेता है।
भाषार्थ
(वधूयोः) वधू की इच्छा वाले के (यम्) जिस, (ब्रह्मभागम्) ब्रह्मा के प्रति देय भाग को, अर्थात् (वाधूयम्) वधूयु-सम्बन्धी (वासः) वस्त्र या सहवास (च) और (वध्वः) वधू के (वस्त्रम्) वस्त्र को (दत्तः) [देव और मनु; मन्त्र १४।२।४१] दिया करते हैं, उसे (बृहस्पति) बृहती वेदवाणी के पति हे पुरोहित! तू (च) और (इन्द्र) सम्राट (साकम्) परस्पर मिलकर (अनुमन्यमानौ) अनुमति देते हुए (युवम्) तुम दोनों (मे, ब्रह्मणे) मुझ ब्रह्मापदवी वाले के लिए (दत्त) प्रदान करो।
टिप्पणी
[बृहस्पति र्बे देवानां पुरोहितः (ऐ० ब्रा० ८।२६)। अर्थात् दोनों का पुरोहित बृहस्पति है। इन्द्रः = सम्राट् "इन्द्रश्च सम्राट्" (यजु० ८।३७)] [व्याख्या- वैदिक विवाह में पुरोहित है विवाह कराने वाला, तथा विवाह का साक्षी, और इन्द्र है विवाह-बन्धन का नियन्त्रण करने वाला सम्राट्। विवाह राजकीय-नियमों के अनुसार होना चाहिये, पुरोहित उन नियमों के अनुसार विवाह कराएं। वर और वधू में विवाह के लिए परस्पर इच्छा का होना आवश्यक है। यह 'वधूयु' शब्द द्वारा निर्दिष्ट किया है। (मन्त्र १४।१।९)। ब्रह्मा का ब्रह्मभाग है (१) उस की योग्यता तथा गुण कर्मों के सदृश योग्या ब्राह्मणी, अर्थात् वेदज्ञा-वधू (२) और ब्रह्मा तथा वधू के वस्त्र (३) तथा उन के सहवास का अधिकार। मन्त्र का अभिप्राय यह है कि गुणकर्मानुसार सदृशों के विवाह, राजकीय व्यवस्था द्वारा नियन्त्रित होने चाहिये।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
हे (बृहस्पते !) बृहस्पते, बड़े बड़े लोकों के पालक और (इन्द्रः च) ऐश्वर्यशील परमेश्वर ! तुम दोनों (वधूयोः) वधू की कामना करने हारे वर का (वाधूयम्) कन्या को वरण करने के समय का (वासः) वस्त्र और उसी समय का (वध्वः च वस्त्रम्) वधू का वस्त्र इन दोनों के बने (यम्) जिस (ब्रह्मभागम्) ब्राह्मण के भाग को तुम दोनों आप (मे) मुझ ब्राह्मण को (दत्तः) प्रदान करते हो यह एक प्रकार से (युवम्) तुम दोनों (अनुमन्यमानौ) परस्पर अनुमति करते हुए ही (ब्रह्मणे) ब्राह्मण को (दत्तम्) प्रदान करते हो।
टिप्पणी
(प्र० द्वि०) ‘यो नोदिति ब्रह्मभागं वधूयोर्वासो वध्वश्च वस्त्रम्’ (च०) ‘धत्ताम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
Whatever wedding gift, i.e., the rightful share of the enlightened bridegroom marrying by choice, e.g., wedding garments for the bridegroom, wedding garments for the bride, and conjugal rights for both, that has been given to me, the bridegroom, O Brhaspati, master of knowledge and Dharma, and O Indra, lord of power and law, both of you having approved it in favour of the bridegroom, pray now confirm that it has been given to me by the ruler and the high priest of law under the seal of power.
Translation
What nuptial dress of the wooer and the bride’s garment, which is an intellectual person's share, you give to me, that O Lord supreme along with the resplendent Lord, both of you assentingly give to an intellectual person.
Translation
O Brihaspati (the great man, father of bride groom) and Indra (the man of might, the father of bride) You both together give me the garment of bride-groom and the dress of the bride as the part of Brahmanas(to give them respectively) in-deed you both do so, accepting ths tenet of the Vedas for the sake of Brahman, the pious deed and knowledge.
Translation
The nuptial garment, fit to be worn as a mark of learning, which the twain have presented to me, longing for the bride, and my wife as award for scholarship,—this do ye both, learned Acharya and king bestow with loving kindness on me a Vedic scholar.
Footnote
Twain: The parents of the bride and bridegroom.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४२−(यम्) (मे) मह्यम् (दत्तः) प्रयच्छतः, तौ वधूवरपक्षौ (ब्रह्मभागम्)ब्रह्मणा वेदज्ञेन सेवनीयं पदार्थम् (वधूयोः) चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि। पा०२।३।३२। इति षष्ठी। वधूयवे। वधूकामाय वराय (वासः) परिधानीयम् (वध्वः) म० ४१।वध्वै (च) (वस्त्रम्) योग्यतासूचकं वसनम् (युवम्) युवाम् (ब्रह्मणे) वेदवत्त्रेपुरुषाय (अनुमन्यमानौ) अनुमतिं ददमानौ (बृहस्पते) बृहत्या विद्यायाः पालक आचार्य (साकम्) (इन्द्रः) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (दत्तम्) प्रयच्छतम् ॥
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