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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 69
    ऋषिः - आत्मा देवता - त्र्यवसाना षट्पदा अतिशाक्वरी छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    54

    अङ्गा॑दङ्गाद्व॒यम॒स्या अप॒ यक्ष्मं॒ नि द॑ध्मसि। तन्मा प्राप॑त्पृथि॒वीं मोतदे॒वान्दिवं॒ मा प्राप॑दु॒र्वन्तरि॑क्षम्। अ॒पो मा प्राप॒न्मल॑मे॒तद॑ग्नेय॒मं मा प्राप॑त्पि॒तॄंश्च॒ सर्वा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अङ्गा॑त्ऽअङ्गात् । व॒यम् । अ॒स्या: । अप॑ । यक्ष्म॑म् । नि । द॒ध्म॒सि॒ । तत् । मा । प्र । आ॒प॒त् । पृ॒थि॒वीम् । मो । उ॒त । दे॒वान । दिव॑म् । मा । प्र । आ॒प॒त् । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒प: । मा । प्र । आ॒प॒त् । मल॑म् । ए॒तत् । अ॒ग्ने॒ । य॒मम् । मा । प्र । आ॒प॒त् । पि॒तॄन् । च॒ । सर्वा॑न् ॥२.६९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अङ्गादङ्गाद्वयमस्या अप यक्ष्मं नि दध्मसि। तन्मा प्रापत्पृथिवीं मोतदेवान्दिवं मा प्रापदुर्वन्तरिक्षम्। अपो मा प्रापन्मलमेतदग्नेयमं मा प्रापत्पितॄंश्च सर्वान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अङ्गात्ऽअङ्गात् । वयम् । अस्या: । अप । यक्ष्मम् । नि । दध्मसि । तत् । मा । प्र । आपत् । पृथिवीम् । मो । उत । देवान । दिवम् । मा । प्र । आपत् । उरु । अन्तरिक्षम् । अप: । मा । प्र । आपत् । मलम् । एतत् । अग्ने । यमम् । मा । प्र । आपत् । पितॄन् । च । सर्वान् ॥२.६९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 69
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहआश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    (अस्याः) इस [प्रजाअर्थात् स्त्री-पुरुषों] के (अङ्गादङ्गात्) अङ्ग-अङ्ग से (वयम्) हम (यक्ष्मम्)क्षय रोग को (नि) निश्चय करके (अप दध्मसि) बाहिर डालते हैं। (तत्) वह (देवान्)नेत्र आदि इन्द्रियों में (मा प्र आपत्) न पहुँचे, (उत) और (मा)(पृथिवीम्)भूमि में, (मा)(दिवम्) धूप में और (उरु) चौड़े (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष में (प्र आपत्) पहुँचे। (अग्ने) हे विद्वान् ! (एतत्) यह (मलम्) मल (अपः) जलों में (मा प्र आपत्) न पहुँचे, और (यमम्) वायु में (च) और (सर्वान्) सब (पितॄन्) ऋतुओंमें (मा प्र आपत्) न पहुँचे ॥६९॥

    भावार्थ

    विद्वान् राजा और सबलोग हवन और अन्नशोधन क्रियाओं से नगर-ग्राम आदि में से रोगजनक दुर्गन्ध आदिदोषों को हटाकर अपने प्रजाजनों को नीरोग स्वस्थ रक्खें ॥६९॥

    टिप्पणी

    ६९−(अङ्गादङ्गात्)सर्वस्मादङ्गात् (वयम्) (अस्याः) प्रजायाः (अप) दूरीकरणे (यक्ष्मम्) राजरोगम् (नि) निश्चयेन (दध्मसि) धारयामः (तत्) मलम् (मा प्रापत्) मा प्राप्नुयात् (पृथिवीम्) (मा) निषेधे (उत) अपि च (देवान्) चक्षुरादीनीन्द्रियाणि, यथामहीधरस्य दयानन्दस्य च भाष्ये-यजुः० ४०।९। (दिवम्) प्रकाशम् (मा प्रापत्) (उरु)विस्तृतम् (अन्तरिक्षम्) (अपः) जलानि (मा प्रापत्) (मलम्) मालिन्यम् (एतत्) (अग्ने) हे विद्वन् (यमम्) वायुलोकम्। यमो यच्छतीति सतः-इति मध्यस्थानदेवतासुपाठः-निरु० १०।१९। यमः। मध्यस्थानो वायुः-इति देवराजयज्वा निघण्टुटीकायाम् (माप्रापत्) (पितॄन्) ऋतून्, यथा दयानन्दभाष्ये-यजुः–० ८।६०। (सर्वान्) समस्तान् ॥

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    विषय

    नीरोगता का रहस्य

    पदार्थ

    १. (वयम्) = हम शुद्धता व अग्रिहोत्रादि द्वारा (अस्या:) = इस युवति के (अङ्गात् अङ्गात्) = प्रत्येक अंग से (यक्ष्मं अपनिदध्मसि) = रोग को सुदूर निवारित करते हैं। (तत्) = वह रोग (पृथिवीं मा प्रापत्) = इस शरीररूप पृथिवी को मत प्राप्त हो (उत) = और (देवान् मा) = विषयों की प्रकाशक इन इन्द्रियों को मत प्राप्त हो। (दिवं मा प्रापत्) = मस्तिष्करूप धुलोक में न प्राप्त हो तथा (उरु अन्तरिक्षम्) = इस विशाल हृदयान्तिरक्ष में मत प्राप्त हो। २. (अग्ने) = यज्ञिय अग्ने! (एतत्) = यह रोगजनक (मलम्) = मल (अपः मा प्रापत्) = रेत:कणों में मत प्राप्त हो जाए। (यम मा प्रापत्) = यह मल इस दम्पतीरूप जोड़े को मत प्राप्त हो (उ) = तथा (सर्वान् पितृन्) = सब पितरों को भी मत प्राप्त हो। वस्तुत: रोगजनक मल से बचने का साधन भी 'यम तथा पितन्' शब्द से संकेतित हो रहा है। हमें संयमी बनना है तथा रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त रहना है, रोगों से बचने का यही मार्ग है।

    भावार्थ

    इस नवविवाहित युवति के शरीर में नीरोगता हो, इसमें रोगकृमियों का प्राबल्य न हो जाए। इसके 'शरीर, इन्द्रियों, मस्तिष्क, हृदय, रेत:कण' रोगजनक मलों से प्रभावित न हों। इस घर में सब संयमी बने रहें व रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त रहें। इसप्रकार यहाँ सब नीरोग रहें।

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    भाषार्थ

    (अस्याः) इस वधू के (अङ्गात्, अङ्गात्) प्रत्येक अङ्ग से (वयम्) हम (यक्ष्मम्) यक्ष्म-रोग को (अप, नि दध्मसि) दूर करते हैं। (तत्) वह यक्ष्मा (पृथिवीम्) शरीर और पृथिवी को (मा, प्रापत्) न प्राप्त हो, (उत) और (मा)(देवान्) इन्द्रियों को और विद्वानों को प्राप्त हो, (दिवम्) मस्तिष्क को और द्युलोक को, तथा (उरु) विस्तृत (अन्तरिक्षम्) उदर को और आकाश को (मा, प्रापत्) न प्राप्त हो। (अपः) शरीर के रस-रक्त को और जलों को (अग्ने) हे अग्नि! (एतत्) यह (मलम्) यक्ष्म रूपी मल (मा, प्रापत्) न प्राप्त हो, (यमम्) पति-पत्नी रूपी जोड़े को और वायु को, (च) तथा (सर्वान् पितॄन्) सब बुजुर्गों को और सब ऋतुओं को (मा, प्रापत्) न प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    [पृथिवीम्=पृथिव्याः शरीरम् (अथर्व० ५।१०।८), तथा प्रसिद्ध पृथिवी। देवान्=इन्द्रियां “नैतद्देवा आप्नुवन्” (यजु० ४०।४), तथा “विद्वांसो वै देवाः” (शतपथ ३।७।३।१०), दिवम् = मूर्धा, सिर, मस्तिष्क, “दिवं यश्चके मूर्धानम्” (अथर्व० १०।७।३२), “शीर्ष्णोः द्यौः समवर्तत (यजु० ३१।१३), तथा प्रसिद्ध द्युलोक। अन्तरिक्षम्=उदर, “अन्तरिक्षमुतोदरम्” (अथर्व० १०।७।३२), “नाभ्या आसीदन्तरिक्षम्” (यजु० (३१। १३), तथा प्रसिद्ध अन्तरिक्ष। अपः=रस-रक्त (अथर्व० १०।२।११), तथा प्रसिद्ध जल। यमम्=जोड़ा अर्थात् पति-पत्नी, तथा वायु (यमेन वायुना१)। पितॄन्=माता-पिता आदि, तथा “ऋतवः पितरः” (शतपथ ६।४।३।८)]। [व्याख्या—स्त्रियों के कर्तव्यों का केन्द्र घर होता है। घर का वायुमण्डल यदि मलिन तथा दूषित हो तो इस का प्रभाव स्त्रियों पर अधिक सम्भावित होता है। इस लिये मन्त्र में यक्ष्म को मल कहा है। रोग-कीटाणु भी मल के ही परिणाम होते हैं। यक्ष्मरोग भयानक रोग है। यह शरीर के किसी भी अङ्ग में उत्पन्न हो सकता है। किसी भी इन्द्रिय, मस्तिष्क, उदर, या समग्र शरीर को तथा शरीर के रस-रक्त को प्राप्त होकर उसे दूषित कर देता है। यक्ष्मरोग संक्रामक है। पति-पत्नी के जोड़े में से किसी को भी यह रोग हो जाने पर दूसरे को भी इस रोग की प्राप्ति की सम्भावना बनी रहती है। संक्रामक होने के कारण यह रोग घर के अन्य निवासियों में भी फैल सकता है। इस रोग को दूर करने का उपाय मन्त्र में दर्शाया है, वह है,-अग्नि तथा गार्हपत्य, आहवनीय अग्नियां घर में गार्हपत्याग्नि के रहने और उसके द्वारा अग्निहोत्र तथा ऋतु यज्ञों के करते रहने से, तथा ऋत्वनुकूल औषधियों की आहुतियां देने से यक्ष्मा आदि रोगों का विनाश किया जा सकता है। सूर्य के उदयकाल तथा अस्तकाल की रश्मियों के सेवन से भी यक्ष्मरोग दूर किया जा सकता है (अथर्व० २।३२, ३३।--)। सूर्य भी अग्निरूप है। मन्त्र का यह भी अभिप्राय है कि रोगो के मल, अर्थात् मल-मूत्र, बलगम आदि को इधर-उधर न बखेर कर, अग्नि में जला देने पर, यक्ष्म-रोग पृथिवी के अन्यभागों, द्युलोक, अन्तरिक्षलोक तथा जल आदि में फैल नहीं सकता।] [१. सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास ९; पृष्ठ ३९१, रामलाल कपूर ट्रस्ट।]

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    विषय

    पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।

    भावार्थ

    (वयम्) हम लोग (अस्याः) इस वधू के (अङ्गात् अङ्गात्) एक एक अङ्ग से (यचमम्) रोगांश को (अप निदध्मसि) दूर करें। (तत्) वह मल (पृथिवीम् मा प्रापत्) पृथिवी को न प्राप्त हो, (मा उत देवान्) देवों, विद्वानों एवं दिव्य पदार्थों को भी प्राप्त न हो (उरु अन्तरिक्षम्) विशाल अन्तरिक्ष और (दिवम्) द्यौ को भी (मा प्रापत्) प्राप्त न हो। हे अग्ने (एतत् मलम्) यह मल (अपः मा प्रापत्) जलों में भी न जाय। (यमं मा प्रापत्) यम ब्रह्मचारी और व्यवस्थापक और (सर्वान् च पितॄन्) समस्त प्रजा के पालकों को भी (मा प्रापत्) प्राप्त न हो। प्रत्युत तुझ में ही भस्म हो जाय। वेद के सिद्धान्त से मल को अग्नि में ही जलाना चाहिये। गृह्यसूत्रों में कन्या के सर्वाङ्ग दोषों को शमन करती हुई आहुतियां देते हैं।

    टिप्पणी

    (प्र० द्वि०) ‘योऽयमस्यामुप यक्ष्मं निधत्त नः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    We remove all cancerous and consumptive diseases from every part of this bride’s body system. Let disease never affect the earth, never affect the divinities of nature and the nobilities of humanity, never the sun light and never the heavens, never the vast skies, never the waters. O Agni, let not this dirt and infection affect the air, nor all the nourishing powers and parental seniors. Note: According to Shatapatha Brahmana, words such as: apah, divam, antariksham, yamam, at the human life level mean: blood flow, head and brain, the middle region of the body, the wedded couple. So the prayer in this mantra means that the dirt and infection should not affect the regions of nature only, it should also not affect any part of the body of the bride and of the couple and their homely atmosphere.

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    Translation

    From each and every limb of hers, we take away the wasting disease. May that not go to the earth, not to the bounties of Nature; may that not go to the sky, nor to the vast midspace. May this malignity not go to the waters, O adorable Lord; neither may it go to the controller Lord, nor to all the elders.

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    Translation

    We drive away disease from each limb and the member, let not that disease spread on the land, let it not go to learned ones', let it not affect the life in heaven and in vast space below it, let not this dirt go to and infect to water, O wise, and let it not make virus into yama, the air and seasons.

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    Translation

    We take away disease from each and every limb of this bride. Let not this reach Earth, nor our organs like eye, ear, etc. Let it not reach the sky or air’s wide region. Let not this dirty disease reach the Waters, O learned person!, nor air, nor all the seasons.

    Footnote

    पितृन् =Seasons, vide Dayananda commentary on Yajur, 8-60.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६९−(अङ्गादङ्गात्)सर्वस्मादङ्गात् (वयम्) (अस्याः) प्रजायाः (अप) दूरीकरणे (यक्ष्मम्) राजरोगम् (नि) निश्चयेन (दध्मसि) धारयामः (तत्) मलम् (मा प्रापत्) मा प्राप्नुयात् (पृथिवीम्) (मा) निषेधे (उत) अपि च (देवान्) चक्षुरादीनीन्द्रियाणि, यथामहीधरस्य दयानन्दस्य च भाष्ये-यजुः० ४०।९। (दिवम्) प्रकाशम् (मा प्रापत्) (उरु)विस्तृतम् (अन्तरिक्षम्) (अपः) जलानि (मा प्रापत्) (मलम्) मालिन्यम् (एतत्) (अग्ने) हे विद्वन् (यमम्) वायुलोकम्। यमो यच्छतीति सतः-इति मध्यस्थानदेवतासुपाठः-निरु० १०।१९। यमः। मध्यस्थानो वायुः-इति देवराजयज्वा निघण्टुटीकायाम् (माप्रापत्) (पितॄन्) ऋतून्, यथा दयानन्दभाष्ये-यजुः–० ८।६०। (सर्वान्) समस्तान् ॥

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