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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
    ऋषिः - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    151

    सोम॑स्य जा॒याप्र॑थ॒मं ग॑न्ध॒र्वस्तेऽप॑रः॒ पतिः॑। तृ॒तीयो॑ अ॒ग्निष्टे॒ पति॑स्तु॒रीय॑स्तेमनुष्य॒जाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सोम॑स्य । जा॒या । प्र॒थ॒मम् । ग॒न्ध॒र्व: । ते॒ । अप॑र: । पति॑: । तृ॒तीय॑: । अ॒ग्नि: । ते॒ । पति॑: । तु॒रीय॑: । ते॒ । म॒नु॒ष्य॒ऽजा: ॥२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोमस्य जायाप्रथमं गन्धर्वस्तेऽपरः पतिः। तृतीयो अग्निष्टे पतिस्तुरीयस्तेमनुष्यजाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सोमस्य । जाया । प्रथमम् । गन्धर्व: । ते । अपर: । पति: । तृतीय: । अग्नि: । ते । पति: । तुरीय: । ते । मनुष्यऽजा: ॥२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहआश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    १−सामान्य अर्थ ॥[हेवधू !] (सोमस्य) सोम [शान्ति आदि शुभ गुण] की (जाया) उत्पत्तिस्थान (प्रथमम्)पहिले [पहिली अवस्था में] [तू है], (गन्धर्वः) गन्धर्व [वेदवाणी का धारणकरनेवाला गुण] (ते) तेरा (अपरः) दूसरा (पतिः) पति [रक्षक] है। (अग्निः) अग्नि, [अर्थात् विद्या और शरीर का तेज] (ते) तेरा (तृतीयः) तीसरा (पतिः) पति [रक्षक]है, और (मनुष्यजाः) मनुष्य [अर्थात् मननशीलों में उत्पन्न विद्वान् युवा पुरुष] (ते) तेरा (तुरीयः) चौथा [पति] है ॥३॥ २−नियोगविषयक अर्थ ॥ [हे स्त्री ! तू] (सोमस्य) सोम [अर्थात् ऐश्वर्यवान् विवाहितपुरुष] की (जाया) पत्नी (प्रथमम्) पहिली बार [होती है], (गन्धर्वः) गन्धर्व [अर्थात् वेदवाणी का धारण करनेवाला नियुक्त पुरुष] (ते) तेरा (अपरः) दूसरा (पतिः) पति अर्थात् रक्षक [होता है], (अग्निः) अग्नि [अर्थात् ज्ञानी नियुक्तपुरुष] (ते) तेरा (तृतीयः) तीसरा (पतिः) पति [होता है] और (मनुष्यजाः) मनुष्य [मननशीलों में उत्पन्न नियुक्त पुरुष] (ते) तेरा (तुरीयः) चौथा [पति होता है]॥३॥

    भावार्थ

    जब कन्या ब्रह्मचर्यसे पहिली, दूसरी और तीसरी अवस्था में क्रम से माता, पिता और आचार्य से सुशिक्षापाकर और शरीर से स्वस्थ युवती होकर तेजस्विनी हो, तब अपने सदृश मातृमान्पितृमान् और आचार्यवान् नीरोग ब्रह्मचारी पुरुष से विवाह करे ॥३॥इस मन्त्र काअर्थ श्रीमान् पण्डित कालीप्रसाद शर्मा आचार्य की सम्मति से किया गया है, जिन कोबहुत धन्यवाद देता हूँ ॥३॥ स्त्री को योग्य है कि विपत्तिकाल में अर्थात् विवाहित पति के रोगी होने वामर जाने पर अन्य तीन पतियों तक एक-दूसरे के पीछे नियोग करके सन्तान उत्पन्न करे, पहिले विवाहित पति का नाम सोम होता है और अन्य तीन जो नियोग के पति हैं, क्रम सेगन्धर्व, अग्नि और मनुष्य कहाते हैं। इसी प्रकार विवाहित स्त्री सोम्या, औरनियोग की तीनों स्त्रियाँ क्रम से गन्धर्वी, आग्नेयी और मानुषी कहाती हैं ॥३॥यहमन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।४०। और महर्षिदयानन्दकृतसत्यार्थप्रकाश चतुर्थ समुल्लास नियोगविषय और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका नियोगविषयमें व्याख्यात है। इस मन्त्र का पाठ और शब्दार्थ इस प्रकार है−सोमः॑ प्रथ॒मो वि॑विदे गन्ध॒र्वो वि॑विद॒उत्त॑रः। तृतीयो॑ अ॒ग्निष्टे॒ पति॑स्तु॒रीय॑स्ते मनुष्य॒जाः ॥[हे स्त्री !] (सोमः) सोम [अर्थात् शान्दि आदि शुभ गुण, वा ऐश्वर्यवान् पुरुष] (प्रथमः) पहिला (ते) तेरा (पतिः) पति [रक्षक] (विविदे) [विद सत्तायाम्-लडर्थे लिट्] होता है, (उत्तरः) दूसरा (गन्धर्वः) गन्धर्व [अर्थात् वेदवाणी का धारण करनेवाला गुण वापुरुष], (तृतीयः) तीसरा (अग्निः) अग्नि [अर्थात् विद्या और शरीर का तेज वाज्ञानी पुरुष], और (मनुष्यजाः) मनुष्य [मननशीलों में उत्पन्न हुआ पुरुष] (ते)तेरा (तुरीयः) चौथा [पति] (विविदे) होता है ॥

    टिप्पणी

    ३−(सोमस्य) शान्त्यादिगुणस्य ऐश्वर्यवतः पुरुषस्य (जाया) जायते यस्यां सा जाया। उत्पत्तिस्थानम्। पत्नी (प्रथमम्) प्रथमवारम् (गन्धर्वः) गोर्वेदवाण्या धारको गुणः पुरुषो वा (ते) तव (अपरः) द्वितीयः (पतिः)रक्षको भर्त्ता (तृतीयः) (अग्निः) विद्याप्राप्तिशरीरपुष्टिजन्यं तेजः।ज्ञानवान् पुरुषः (ते) तव (पतिः) (तुरीयः) चतुर्थः (ते) (मनुष्यजाः) अ० १२।४।४३।मनुष्य+जनी प्रादुर्भावे-विट्, मनुष्येषु मननशीलेषूत्पन्नः ॥

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    विषय

    सोमः, गन्धर्वः, अग्निः, मनुष्यजाः

    पदार्थ

    १. (प्रथमम्) = सबसे पहले यह (युवति सोमस्य जाया) = सोम की पत्नी होती है। कन्या के माता-पिता सबसे प्रथम यह विचार करते हैं कि पति सौम्यस्वभाव का हो, कटु स्वभाव का न हो। (ते) = तेरा (अपरः पतिः) = दूसरा पति (गन्धर्वः) = वेदवाणी का धारण करनेवाला है। सौम्यता' यदि पति का प्रथम गण है तो 'ज्ञान की वाणियों का धारण' उसका दूसरा गुण है। पति का ज्ञानी व ज्ञानचिवाला होना आवश्यक है। २. (तृतीयः) = तीसरे स्थान पर (अग्नि:) = प्रगतिशील मनोवृत्तिवाला (ते पतिः) = तेरा पति है। पति में तीसरा गुण यह होना चाहिए कि वह प्रगतिशील हो, जिसमें कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं, उसने क्या उन्नति करनी? तुरीय-चौथा (ते पतिः) = तेरा पति वह है जोकि (मनुष्यजा:) = मनुष्य की सन्तान है, अर्थात् जिसमें मानवता है, जो दयालु है, न कि क्रूर।

    भावार्थ

    पति में क्रमश: "सौम्यता, ज्ञानरुचिता, प्रगतिशीलता व मानवता' का होना आवश्यक है।

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    भाषार्थ

    हे सूर्या! तू (प्रथमम्) पहिले (सोमस्य) सोम की (जाया) पत्नी होती है, (ते) तेरा (अपरः) दूसरा (पतिः) पति (गन्धर्वः) गन्धर्व होता है। (ते) तेरा (तृतीयः) तीसरा (पतिः) पति (अग्निः) अग्नि होता है, (ते) तेरा (तुरीयः) चौथा पति (मनुष्यजाः) मनुष्य से जन्मा हुआ पुरुष होता है।

    टिप्पणी

    [तुरीय=चतुर् + ईय= तुर् + ईय= तुरीय] [व्याख्या-मन्त्र के चतुर्थ पाद में चतुर्थ पति को मनुष्यजाः कहा है। इस से स्पष्ट है कि मनु यज-पति से पूर्व के पति अर्थात् "सोम, गन्धर्व और अग्नि" मनुष्यरूप नहीं, ये केवल प्राकृतिक शक्तिरूप हैं। अतः एक पत्नी के चार-मनुष्यज-पतियों की आशंका इन मन्त्रों में न करनी चाहिये। साथ ही यह भी जानना चाहिये कि वेद में पठित पतिशब्द यौगिकार्थक है। पति का अर्थ है रक्षक। पति का अर्थ केवल वह रक्षक ही नहीं कि जिस के साथ विवाह हुआ है, अपितु जाया की रक्षा करने वाले पति के समीप के बन्धुओं को भी मन्त्रों में पति कहा है। पति शब्द यौगिकार्थक है यथा "अश्विना शुमस्पती" अथर्व० ६।३।३ में अश्वियों को शोभा या शुभकर्मों के पति अर्थात् रक्षक कहा है।

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    विषय

    पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।

    भावार्थ

    (प्रथमम्) पहले (जाया) स्त्री (सोमस्य) सोम की होती है। हे जाये ! (ते) तेरा (अपरः) दूसरा (पतिः) पति (गन्धर्वः) गन्धर्व है। और (ते) तेरा (तृतीयः पतिः) तीसरा पति (अग्निः) अग्नि है। और (मनुष्यजाः) मनुष्यों से उत्पन्न पति (तुरीय) चौथे नम्बर पर हैं। महर्षि दयानन्द के मत में—स्त्री का प्रथम पति ‘सोम’, दूसरा नियोगज ‘गन्धर्व’, तीसरा नियोगज ‘अग्नि’ और शेष सब चौथे से लेकर ११ , वें तक नियुक्तपति ‘मनुष्य’ नाम से कहाते हैं [ सत्यार्थ समु० ४ ] याज्ञवल्क्यस्तु—सोमः शौचं ददावासां गन्धर्वश्व शुभां गिरम्। पावकः सर्वमेध्यत्वम् मेध्या वै योषितो ह्यतः ॥ तत्र मिताक्षरा—परिणयनात् पूर्वं सोमगन्धर्ववह्नयः स्त्रीर्भुक्त्वा तासां शौचमधुरवचनसर्वमेध्यत्वानि दत्तवन्तः। तस्मात्स्त्रियः स्पर्शा लिङ्गनादिषु मेध्याः शुद्धाः स्मृताः। वसिष्ठस्मृतिश्च—पूर्वं स्त्रियः सुरैर्भुक्ताः सोमगन्धर्ववह्निभिः। गच्छन्ति मानुषान् पश्चात् नैता दुष्यन्ति धर्मतः॥ तासां सोमो ददच्छौचं गन्धर्वः शिक्षितां गिरम्। अग्निश्च सर्वभक्षत्वं तस्मान्निष्कल्मषाः स्त्रियः॥ (३०। ५,६।) आठ वर्ष तक सोम भोगता है, रजोदर्शन के पूर्व तक गन्धर्व और रजोदर्शन में अग्नि भोगता है। फलतः स्त्री शरीर में जल, वायु, अग्नि तीनों तत्वों के विशेष भोग को सोम, गन्धर्व और अग्नि देवों का भोग कहा है। नियोग पक्ष में—महर्षि दयानन्द का अभिप्राय भी स्पष्ट है।

    टिप्पणी

    (प्र० द्वि०) ‘सोमः प्रथमो विविदे गन्धर्वो विविद उत्तरः’ इति ऋ०। तत्रैव सू० (च०) ‘तुरीयोहं मनुष्यजः’ इति पा० गृ० सू०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    Surya is first the care of Soma. Your second protector, O Surya, is Gandharva. Agni is the third protector, and the fourth protector, your husband, is the son of man. (Reference may be made to Rgveda, 10, 85, 40: “O bright girl, your first protective and promotive gurdian is Soma, divine nature’s energy which leads you to puberty. The next is Gandharva which energises you with fertility. The third is Agni which inspires you to love and passion, and your fourth guardian is your husband, son of man for the continuance of humanity.” Since the fourth is called ‘the son of man’, it is clear that the previous three are other than the man, they being forces of nature as explained. It has to be stressed and clarified that the guardians in successive order have all the qualities of the previous ones. Therefore the fourth, son of man, has all the other three: health, energy, enlightened passion, and all-inclusive humanity. In other words, he has to be cool yet energetic as soma, bright as sun, enlightened as well as enthusiastic as agni, and human as the concept of man in Rgveda, 10, 53, 6. Reference may also be made to Gita 9, 20 and 15, 13; 10, 26; 4, 37; 10, 36; and 10, 28 and 7, 11.)

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    Translation

    First of all you are the wife of some (virility); next the Sustainer of the earth is your husband; your third husband is the firè divine; your fourth (husband) is one born of men (i.e., human being). (Rg, X.85.40; Variation).

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    Translation

    O bride! at first you are the wife of Soma, the most powerful force of the child-hood, Gandharva, the force working in the body in the age when menstruation begins and desire of being in house-hold life takes its initiation, is the next husband of yours, the third husband of yours is Agni, the heat of the body and fourth is your husband who is born amongst men.

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    Translation

    O woman, mental peace or equilibrium is thy first guardian, observance of Vedic law is thy second guardian, knowledge and strength of character are thy third guardians. One born of woman is thy fourth guardian.

    Footnote

    See Rig, 10-85-40. Pt. Jaidev Vidyalankar interprets Soma as water, Gandharva as air, and Agni as fire.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(सोमस्य) शान्त्यादिगुणस्य ऐश्वर्यवतः पुरुषस्य (जाया) जायते यस्यां सा जाया। उत्पत्तिस्थानम्। पत्नी (प्रथमम्) प्रथमवारम् (गन्धर्वः) गोर्वेदवाण्या धारको गुणः पुरुषो वा (ते) तव (अपरः) द्वितीयः (पतिः)रक्षको भर्त्ता (तृतीयः) (अग्निः) विद्याप्राप्तिशरीरपुष्टिजन्यं तेजः।ज्ञानवान् पुरुषः (ते) तव (पतिः) (तुरीयः) चतुर्थः (ते) (मनुष्यजाः) अ० १२।४।४३।मनुष्य+जनी प्रादुर्भावे-विट्, मनुष्येषु मननशीलेषूत्पन्नः ॥

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