अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 45
ऋषिः - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
48
शुम्भ॑नी॒द्यावा॑पृथि॒वी अन्ति॑सुम्ने॒ महि॑व्रते। आपः॑ स॒प्त सु॑स्रुवुर्दे॒वीस्ता नो॑मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठशुम्भ॑नी॒ इति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अन्ति॑सुम्ने॒ इत्यन्ति॑ऽसुम्ने । महि॑व्रते॒ इति॒ महि॑ऽव्रते । आप॑: । स॒प्त । सु॒स्रु॒व॒: । दे॒वी: । ता: । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ अंह॑स: ॥२.४५॥
स्वर रहित मन्त्र
शुम्भनीद्यावापृथिवी अन्तिसुम्ने महिव्रते। आपः सप्त सुस्रुवुर्देवीस्ता नोमुञ्चन्त्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठशुम्भनी इति । द्यावापृथिवी इति । अन्तिसुम्ने इत्यन्तिऽसुम्ने । महिव्रते इति महिऽव्रते । आप: । सप्त । सुस्रुव: । देवी: । ता: । न: । मुञ्चन्तु अंहस: ॥२.४५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
(शुम्भनी) शोभायमान (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवीलोक (अन्तिसुम्ने) [अपनी] गतियों से सुखदेनेवाले और (महिव्रते) बड़े व्रत [नियम] वाले हैं। (देवीः) उत्तम गुणवाली (सप्त) सात (आपः) व्यापनशील इन्द्रियाँ [दो कान, दो नथने, दो आँखें और एक मुख] (सुस्रुवुः) [हमें] प्राप्त हुई हैं, (ताः) वे (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चन्तु) छुड़ावें ॥४५॥
भावार्थ
जैसे सूर्य औरपृथिवीलोक ईश्वरनियम से अपनी-अपनी गति पर चलकर वृष्टि अन्न आदि से उपकार करतेहैं, वैसे ही मनुष्य इन्द्रियों को नियम में रखकर अपराधों से बचें ॥४५॥यह मन्त्रऊपर आ चुका है-अ० ७।११२।१ ॥
टिप्पणी
४५−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ७।११२।१ ॥
विषय
ज्ञान व पवित्रता
पदार्थ
१. (द्यावापृथिवी) = हमारे मस्तिष्क व शरीर (शुम्भनी) = ज्ञान और शक्ति-सम्पन्न होते हुए जीवन को शोभायमान करें। (अन्तिसुम्ने) = ये हमें प्रभु के सामीप्य में सुख प्रास करानेवाले हों। (महिव्रते) = महनीय व्रतोंवाले हों। 'धौरहं पृथिवी त्वम्', वर से उच्चारण किये जानेवाले इस वाक्य के अनुसार प्रकाशमय जीवनवाला 'वर' द्यौ है तथा पृथिवी के समान अपने व्रतों पर दृढ़ रहनेवाली वधू पृथिवी है। ये अपने जीवन को शोभायुक्त करें, प्रभु सामीप्य का आनन्द अनुभव करें और महनीय व्रतोंवाले हों। २. हमारे जीवनों में (सप्त देवी: आपः सुनुवु:) = 'दो कान, दो नासिका-छिद्र, दो आँख व मुख' इन सप्त ऋषियों से प्रवाहित होनेवाले दिव्यज्ञानजल बहें। (ताः) = वे दिव्यज्ञानजल (न:) = हमें (अहसा मुञ्चन्तु) = पाप से छुड़ाएँ। ज्ञान हमारे जीवनों को पवित्र करे।
भावार्थ
हमारे मस्तिष्क व शरीर शोभासम्पन्न हों। हमारे जीवनों में 'दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें व मुख' इन सप्त ऋषियों से उद्भूत हुए ज्ञानजल पवित्रता लानेवाले हों।
भाषार्थ
(द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक (शुम्भनी) शोभायमान हैं (अन्तिसुम्ने) समीपता में सुखदाई तथा मन को सुप्रसन्न करते हैं, (महिव्रते) ये महाव्रती हैं, (सप्त) सात (आपः) जल या प्राण (देवीः) दिव्यगुणों से सम्पन्न हुए (सुस्रुवुः) प्रवाहित१ हुए हैं, (ताः) वे (नः) हमें (अंहस ) दुःखप्रद रोगों से (मुञ्चुन्तु) छुड़ा दें।
टिप्पणी
[अन्ति=In the vicinity of (आप्टे)=अन्तिक। सुम्नम् सुखनाम (निघं० ३।६); सु+मनस्=मन को सुप्रसन्न करने वाले। सप्त आपः१= शारीरिक द्रव२ ७। यथा (१) Cerebro-Spinal fluid (मस्तिष्क-सुषुम्णा में प्रवाहित होने वाला द्रव। (२) मुखलाला, Saliva। (३)औदर्यरस, अर्थात् पेट का रस, पाचकरस (४) Pancreatic juice, अर्थात् Pancreas का रस जोकि पाचन में सहायक होता है। Pancreas=क्लोमग्रन्थि। (५) Liver bile=पित्त रस। (६) रक्त, खून। (७) Lymph रस, यह कुछ पीतवर्ण का और स्वाद में नमकीन होता है। सप्त आपः= सप्त प्राणाः= षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी (निरु० १२।४।३७)। अर्थात् ५ ज्ञानेन्द्रियां, १ मन, १ विद्या अर्थात् बुद्धि आपः व्यापनानि। ये सात शरीर को व्याप्त किये हुए हैं, इस लिये आपः हैं] [व्याख्या – उषाकाल में द्युलोक और पृथिवीलोक की अद्भुत शोभा होती है। इस काल में भ्रमण से मन प्रसन्न होता तथा शारीरिक स्वास्थ्य बढ़ता है। इस लिये भ्रमण द्वारा, गृह्य वायुमण्डल से पृथक् हो कर, उषा के दिव्यप्रकाश से रञ्जित द्युलोक तथा विस्तृत पृथिवी की समीपता प्राप्त करनी चाहिये। भ्रमण में प्रकृति से शिक्षाग्रहण भी करनी चाहिये। भ्रमण में यह भी अनुभव करना चाहिये कि द्युलोक तथा पृथिवीलोक अपने व्रतों के पालन में किंतने दृढ़ हैं, जिससे कि दिन-रात, तथा उषाकाल आदि नियम पूर्वक होते रहते हैं। इन महाव्रतियों द्वारा हमें अपने व्रतों के पालन में शिक्षा लेनी चाहिये। उषा काल में भ्रमण द्वारा शारीरिक सात द्रव भी दिव्यगुणों से सम्पन्न हो जाते हैं। बाहर की शुद्ध प्राण वायु इन द्रवों को शुद्ध कर, नीरोग करती, जिस से रोग दूर हो जाने पर स्वास्थ्य तथा दीर्घायु प्राप्त होती है। आपः का अर्थ प्राण भी होता है। यथा “आपो वै प्राणाः” (शत० ब्रा० ३।८।२४), तथा “सप्त वै शीर्षन् प्राणाः” (ऐ० ब्रा० १।१७; ता० ब्रा० १।२।३।३)। इन प्राणों की शुद्धि भी उषा काल में भ्रमण द्वारा होती है।] [१. इन्द्रियों को भी स्रोत कहा है। यथा “स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि” (श्वेता० उप० २।८)। २. “आपः” द्वारा शारीरिक द्रव्यों या रसों का भी ग्रहण होता है, इस सम्बन्ध में निम्नलिखित मन्त्र प्रमाण है यथा “को अस्मिन्नापो व्यदधात्विषूवृतः पुरूवृतः सिन्धुसृत्याय जाताः। तीव्रा अरुणा लोहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा अवाचीः पुरुषे तिरश्चीः ॥ अथर्व० १०।२।११)।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
(शुम्भनी) सुहावने, मनभावने, शुभचिन्तक (द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी के समान रक्षक और आश्रयभूत माता पिता (अन्तिसुम्ने) समीप रहकर सदा सुख देने हारे (महिव्रते) बड़े बड़े कार्य करने वाले हैं। (सप्त) सातों प्रकार की (देवीः) ज्ञान दर्शन कराने वाली (आपः) जलधाराओं के समान स्वच्छ ज्ञानधाराएं (सुस्रुवुः) सदा बहें। (ताः) बे सब (नः) हमें (अंहसः) पाप से (मुञ्चन्तु) मुक्त करें।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘यन्तु सुम्ने’ (तृ०) ‘आपः सप्त स्रवन्तीः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
May the heaven and earth, both bright and beautiful, kind and closest at heart, relentlessly great observers of the divine laws of nature, and the seven streams of life that flow through senses, mind and pranas and through all our actions, keep us away and save us from sin and suffering.
Translation
Seven rays of the sun make the waters of the ocean to descend down in streams from the sky. May those (waters) loosen the iron-headed weapon (lodged in your body) and remove it. (Av. VII.112.1)
Translation
Let the heaven, and earth which are the source of happiness, which are stable under laws and which are full of beauteous luster’s, be source of our pleasure. Let shining and whole some seven waters flow for our happiness and let them be the source of driving away dirt from us.
Translation
Father and mother, like the Sun and Earth are our well-wishers, reveling near us they afford us joy, and are the performers of mighty deeds. We have been equipped with seven divine organs. May they free us from sin.
Footnote
See Atharva, 7-112-1. Seven organs. Two eyes, two ears, two nostrils, and mouth.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४५−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ७।११२।१ ॥
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