अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 50
ऋषिः - आत्मा
देवता - उपरिष्टात् निचृत बृहती
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
45
या मे॑प्रि॒यत॑मा त॒नूः सा मे॑ बिभाय॒ वास॑सः। तस्याग्रे॒ त्वं व॑नस्पते नी॒विंकृ॑णुष्व॒ मा व॒यं रि॑षाम ॥
स्वर सहित पद पाठया । मे॒ । प्रि॒यऽत॑मा । त॒नू: । सा । मे॒ । बि॒भा॒य॒ । वास॑स: । तस्य॑ । अग्ने॑ । त्वम् । व॒न॒स्प॒ते॒ । नी॒विम् । कृ॒णु॒ष्व॒ । मा । व॒यम् । रि॒षा॒म॒ ॥२.५०॥
स्वर रहित मन्त्र
या मेप्रियतमा तनूः सा मे बिभाय वाससः। तस्याग्रे त्वं वनस्पते नीविंकृणुष्व मा वयं रिषाम ॥
स्वर रहित पद पाठया । मे । प्रियऽतमा । तनू: । सा । मे । बिभाय । वासस: । तस्य । अग्ने । त्वम् । वनस्पते । नीविम् । कृणुष्व । मा । वयम् । रिषाम ॥२.५०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
[हे वीर !] (या) जो (मे) मेरा (प्रियतमा) अत्यन्त प्रिय (तनूः) शरीर है, (सा) वह (मे) मेरा शरीर (वाससः) हिंसा कर्म से (बिभाय) डरता है। (वनस्पते) हे सेवनीय व्यवहार के रक्षक ! (त्वम्) तू (अग्रे) पहिले से (तस्य) उस [हिंसा कर्म] का (नीविम्) बन्धन (कृणुष्व) कर, (वयम्) हम लोग (मा रिषाम) कभी न कष्ट पावें ॥५०॥
भावार्थ
विद्वान् गृहस्थों काकर्तव्य है कि दूसरों को सताकर अपनों को दूषित न करें और उस का पहिले से विचारकरके राजदण्ड आदि के पश्चात्ताप से बचकर सुखी रहें ॥५०॥
टिप्पणी
५०−(या) (मे) मम (प्रियतमा) अतिशयेन प्रिया (तनूः) शरीरम् (सा) तनूः (मे) मम (बिभाय) बिभेति (वाससः) वसेर्णित्। उ० ४।२१८। वस हिंसायाम्-असुन्, णित्। हिंसाकर्मणः सकाशात् (तस्य) हिंसाकर्मणः (अग्रे) आदौ (त्वम्) (वनस्पते) वननीयस्य सेवनीयव्यवहारस्यरक्षक (नीविम्) नौ व्यो यलोपः पूर्वस्य च दीर्घः। उ० ४।१३६। नि+व्येञ्संवरणे-इण् डित्, यलोपः, उपसर्गस्य दीर्घः। कटिबन्धनम्। प्रबन्धम् (कृणुष्व)कुरु (वयम्) (मा रिषाम) दुःखिता न भवेम ॥
विषय
पवित्र यज्ञमय सम्बन्ध
पदार्थ
१. 'कन्धे पर बोझ पड़ना' एक शब्दप्रयोग है, जिसका भाव कन्धे पर एक उत्तरदायित्व का आ जाना है। एक युवक के कन्धे पर अब एक युवति का यह वस्त्र आ पड़ा है तो वह 'उसके उत्तरदायित्व की वृद्धि हो जाती है', इतना ही नहीं अपितु उसके भोगविलास में डूब जाने की आशंका भी बढ़ जाती है, अतः युवक कहता है कि या-जो (मे प्रियतमा तनूः) = मेरा यह (प्रियतम) = प्यारा व सुन्दर प्रतीत होनेवाला शरीर है, (मे सा) = मेरा वह शरीर (वाससः बिभाय) = इस मेरे कन्धे पर आ जानेवाले वस्त्र से भयभीत होता है। मुझे भय प्रतीत होता है कि कहीं विलास में पड़कर मैं इस प्रियतम तनू को बिकृत न कर बैहूँ। हे (वनस्पते) = यज्ञस्तम्भ [sacrificial post] (त्वम्) = तू (अग्ने) = पहले (तस्य) = उसके वस्त्र की (नीविं कृणुष्व) = ग्रन्थि [Knat] को कर। पहले वह वस्त्र तेरे साथ बँधे और बाद में मेरे साथ। यज्ञस्तम्भ के साथ युवति के वस्त्र-बन्धन का भाव यह कि इस युवक-युवति का सम्बन्ध मिलकर यज्ञ करने के लिए हो। यज्ञीय वृत्ति के होने पर हम विलासमय जीवन में न डूबेंगे और इसप्रकार (वयम्) = हम (मा रिषाम) = हिंसित न होंगे। पति-पत्नी तो यज्ञमय जीवन होने पर हिंसित होंगे ही नहीं, ऐसा होने पर उनके सन्तान भी उत्तम होंगे। यही भाव 'वयम्' इस बहुचनान्त शब्द से संकेतित हो रहा है।
भावार्थ
एक युवति का वस्त्र एक युवक के कन्धे पर पड़ता है तो उस समय यह सम्बन्ध की पवित्रता को बनाये रखने के लिए इस वस्त्र-ग्रन्थि को पहले यज्ञस्तम्भ से करता है, अर्थात् प्रभु से यही प्रार्थना करता है कि हमारा यह सम्बन्ध यज्ञिय हो। हम मिलकर यज्ञ करते हुए विलासी वृत्ति से बचे रहें। इसप्रकार हम स्वस्थ हों और उत्तम सन्तानों को प्राप्त करें। इसी उद्देश्य से अगले मन्त्र में कहेंगे कि स्त्रियाँ अपने अतिरिक्त समय को वस्त्रों को कातने व बुनने में व्यतीत करें।
भाषार्थ
हे पत्नी! (या) जो (मे) मेरी (प्रियतमा) अत्यन्त प्रिय (तनूः) देह है, (सा) वह (मे) मेरी देह (बिभाय) सरदी तथा गरमी से भय करती है, इस लिये (वनस्पते) वनों और खेतों की स्वामिनी हे पत्नी! (त्वम्) तू (अग्रे) पहिले (तस्य वाससः) उस वस्त्र के (नीविम्) मूलधन अर्थात् वल्कल-कपास आदि को (कुणुष्व) एकत्रित कर, ताकि (वयम्) हम (मा) न (रिषाम) कष्ट भोगें तथा विनष्ट हों।
टिप्पणी
[नीविम्=मूलधनम् (उणा० ४।१३७); तथा Capital, Principal stock (आप्टे)। वनस्पते= वन की पत्नी। उपवनरूप में खेतों की पत्नी अर्थात् स्वामिनी। वनस्पतिः= वनानां पाता वा पालयिता वा (निरु० ८।२।३), अर्थात् वनों का रक्षक या पालक। मन्त्र में वस्त्र निर्माण की सामग्री को एकत्रित करने का वर्णन है। अगले मन्त्र में वस्त्र निर्माण का वर्णन हुआ है।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
(या) जो (मे) मेरी (प्रियतमा) अति प्रिय (तनूः) देह है (सा) वह मेरी देह (वाससः) इस वस्त्र से (बिभाय) भय खाती है। इसलिये हे (वनस्पते) वृक्ष (अग्रे) पहले (तस्य) उस वस्त्र को (त्वं) तू (नीविम् कृणुष्व) अपने तेड़ में बांध ले। जिससे (वयम्) हम (मा रिषाम) कभी पीड़ित न हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
My body which is dearest and most delicate feels uncomfortable, even hurt, by the rough cloth, therefore, first, O Vanaspati, master of the field and forest, first arrange to refine the base of the cloth, cotton, so that we may not feel hurt or uncomfortable.
Translation
This body, which is dearest to me, is frightened of the garment. (Therefore) O Lord of vegetation, may you first make yourself an inner wrap. May we not suffer harm.
Translation
Let this herbaceous plant make a tie on the core of this cloth from which my most dear body feels terrified. We never be in trouble.
Translation
My body that I hold most dear is afraid of violence. O guardian of noble conduct, put a ban on violence in the very beginning! Let no misfortune fall on us.
Footnote
My refers to the bride. Guardian—conduct: Husband
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५०−(या) (मे) मम (प्रियतमा) अतिशयेन प्रिया (तनूः) शरीरम् (सा) तनूः (मे) मम (बिभाय) बिभेति (वाससः) वसेर्णित्। उ० ४।२१८। वस हिंसायाम्-असुन्, णित्। हिंसाकर्मणः सकाशात् (तस्य) हिंसाकर्मणः (अग्रे) आदौ (त्वम्) (वनस्पते) वननीयस्य सेवनीयव्यवहारस्यरक्षक (नीविम्) नौ व्यो यलोपः पूर्वस्य च दीर्घः। उ० ४।१३६। नि+व्येञ्संवरणे-इण् डित्, यलोपः, उपसर्गस्य दीर्घः। कटिबन्धनम्। प्रबन्धम् (कृणुष्व)कुरु (वयम्) (मा रिषाम) दुःखिता न भवेम ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal