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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 36
    ऋषिः - देवगण देवता - परानुष्टुप् त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    68

    रा॒या व॒यंसु॒मन॑सः स्या॒मोदि॒तो ग॑न्ध॒र्वमावी॑वृताम्। अग॒न्त्स दे॒वः प॑र॒मंस॒धस्थ॒मग॑न्म॒ यत्र॑ प्रति॒रन्त॒ आयुः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रा॒या । व॒यम् । सु॒ऽमन॑स: । स्या॒म॒ । उत् । इ॒त: । ग॒न्ध॒र्वम् । आ । अ॒वी॒वृ॒ता॒म॒ । अग॑न् । स: । दे॒व: । प॒र॒मम् । स॒धऽस्थ॑म् । अग॑न्म । यत्र॑ । प्र॒ऽति॒रन्ते॑ । आयु॑: ॥२.३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    राया वयंसुमनसः स्यामोदितो गन्धर्वमावीवृताम्। अगन्त्स देवः परमंसधस्थमगन्म यत्र प्रतिरन्त आयुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    राया । वयम् । सुऽमनस: । स्याम । उत् । इत: । गन्धर्वम् । आ । अवीवृताम । अगन् । स: । देव: । परमम् । सधऽस्थम् । अगन्म । यत्र । प्रऽतिरन्ते । आयु: ॥२.३६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 36
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहआश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    (राया) धन के साथ (वयम्) हम (सुमनसः) प्रसन्नचित्त (स्याम) होवें, (इतः) यहाँ से [अपने बीच से] (गन्धर्वम्) विद्याधारण करनेवाले पुरुष को (उत् आ अवीवृताम्) हम सब प्रकार ऊँचावर्तमान करें। (सः देवः) वह विद्वान् (परमम्) सबसे ऊँचे (सधस्थम्) सभास्थान को (अगन्) प्राप्त हो, (अगन्म) हम [उस पद पर] पहुँचें (यत्र) जहाँ [लोग] (आयुः)जीवन को (प्रतिरन्ते) अच्छे प्रकार पार करते हैं ॥३६॥

    भावार्थ

    सब विद्वान् लोग मिलकरआशीर्वाद देवें कि यह विद्वान् वर अपने उत्तम गुणों से बड़ा धनी और ऊँचे पदवालाहोकर महात्माओं के समान अपना उच्च जीवन बनावे ॥३६॥इस मन्त्र का चौथा पाद ऋग्वेदमें है−१।११३।१६ तथा ८।४८।११ ॥

    टिप्पणी

    ३६−(राया) धनेन (वयम्) (सुमनसः) प्रसन्नचेतसः (स्याम) (उत्) उत्कर्षेण (इतः) अस्मात् स्थानात् (गन्धर्वम्) विद्याधारकंपुरुषम् (आ) समन्तात् (अवीवृताम्) णिचि लुङि रूपम्। वर्तमानं कुर्याम् (अगन्)प्राप्नोतु (सः) (देवः) विद्वान् (परमम्) उत्कृष्टम् (सधस्थम्) सभास्थानम् (अगन्म) वयं गच्छेम (यत्र) यस्मिन् पदे (प्रतिरन्ते) प्रकर्षेण तरन्ति पारयन्ति (आयुः) जीवनम् ॥

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    विषय

    धन+सौमनस

    पदार्थ

    १. (वयम्) = हम (राया) = धन के साथ (सुमनसः स्याम) = उत्तम मनवाले भी हों। उत्तम मनोवृत्ति के न होने पर धन हमारे विनाश का ही कारण बनेगा। (इत: उत्) = इधर से ऊपर उठकर-संसार के भोगों से ऊपर उठे हुए (गन्धर्वम्) = हम उस ज्ञान के धारक प्रभु का (आवीवृताम्) = आवर्तन करनेवाले हों-प्रभु-नाम का निरन्तर स्मरण करें। २. (सः देवाः) = वह प्रकाशमय प्रभु परम (सधस्थम्) = सर्वोत्कृष्ट प्रभु के साथ मिलकर बैठने के स्थानभूत इस हृदयदेश में (अगन्) = प्राप्त हो। हम भी उस प्रभु के समीप (अगन्म) = प्राप्त हों, (यत्र) = जिसमें स्थित होते हुए (आयुः प्रतिरन्त) = जीवन को प्रकर्षेण पार कर पाते हैं, अत्युत्तम दीर्घजीवन प्राप्त करते हैं।

    भावार्थ

    धन के साथ हम प्रशस्त मनवाले हों, विषयों से ऊपर उठकर प्रभु का स्मरण करनेवाले हों, वे प्रभु हमें हृदयदेश में प्राप्त हों। प्रभु में स्थित हुए-हुए हम प्रकृष्ट दीर्घ जीवन को प्राप्त करें।

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    भाषार्थ

    (राया) धन द्वारा (वयम्) हम (सुमनसः) प्रसन्न चित्त तथा अन्यों को प्रसन्नचित्त करने वाले (स्याम) हों, (इतः) इस विधि से (उद्) उत्कृष्ट हो कर, (गन्धर्वम्) जगद्धारक परमेश्वर को (आवीवृताम) अपनी ओर हम ने आवर्तित किया है, आकृष्ट किया है। (सः) वह (देवः) दाता (परमम्) सर्वोत्कृष्ट (सधस्थम्) "सहस्थिति" वाले जगत्-गृहस्थ को (अगन्) प्राप्त है। (यत्र) जिस गृहस्थ में (आयुः) आयु (प्रतिरन्ते) बढ़ा लेते हैं उसे (अगन्म) हम गृहस्थी भी प्राप्त हुए हैं।

    टिप्पणी

    [राया = रै+तृतीया विभक्ति का एकवचन। रै= रा (दाने)। धन का नाम “रै” है, चूंकि धन का सदुपयोग है दान करना, नकि केवल स्वार्थसाधन। दान द्वारा सब के मनों को सुखी तथा प्रसन्न करने का उपदेश मन्त्र द्वारा दिया है। सात्त्विक दान से मानुषजीवन उत्कृष्ट बन जाता है और इस प्रकार जगद्धारक परमेश्वर दाता के प्रति आकृष्ट हो जाता है। दान देने से जीवन स्वर्ग का रूप धारण करता है। यथा “दातुं चेच्छिक्षान्त्स स्वर्ग एव" (अथर्व० ६।१२२।२), अर्थात् यदि मनुष्य दान देने में सशक्त हो, तो उसका जीवन स्वर्ग रूप ही है। परमेश्वर देव है, दानी है "देवो दानाद्वा" (निरु० ७।४।१५) उसका दिया संसार महादानरूप है। परमेश्वर महागृहस्थी है (मन्त्र १४।२।३५)। यह जगत् उस का सर्वोत्कृष्ट महागृहस्थ है, जिसमें परमेश्वर विना स्वार्थ के महादान कर रहा है। परमेश्वर के उदाहरण को संमुख रख कर, हम दानी-गृहस्थी बन कर, निज आयु को बढ़ाएं। सात्त्विक तथा सुखी गृहस्थ-जीवन आयु को बढ़ाता है। सधस्थ= सहस्थ; अर्थात् परस्पर साथ रहने का स्थान सूर्यासूक्त विवाह परक है। अतः इस में "सधस्थ" है गृहस्थ, जिस में कि गृहवासी साथ-साथ मिलकर रहते हैं। परमेश्वर का "सधस्थ" है- ब्रह्माण्ड अर्थात् समग्र संसार, जिसमें कि परमेश्वर अपने गृहवासियों अर्थात् सूर्य, चान्द, असंख्य तारागणों आदि के साथ निवास कर रहा है। यथा "यस्य ते उपरि गृहा१ यस्य वेह" (यजु० १८।४४); वेह= वा (च) +इह (भूमौ)।] [१. तेरे अपर भी [द्युलोक में भी] घर है, और यहां भूमि पर भी]

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    विषय

    पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।

    भावार्थ

    (वयम्) हम लोग (राया) धन-सम्पन्न होकर भी (सुमनसः) एक दूसरे के प्रति शुभ चित्त वाले, निष्कलह होकर प्रेम से (स्याम) रहें। और (इतः) यहां से (उत्) ऊर्ध्व स्थान पर (गन्धर्वम्) पुरुष को (अवीवृताम्) हम प्राप्त करें। (सः देवः) देव (परमम् सघस्थम्) परम उच्च समान स्थान गृहाश्रम में (अगन्) प्राप्त होता है (यत्र) जहां हम भी (आयुः) दीर्घ जीवन (प्रतिरन्तः) प्राप्त करते हुए (अगन्म) उस स्थान पर जावें।

    टिप्पणी

    (च०) ‘अगन्म वयम्’ इति पैप्प० सं०। ‘यत्र। प्रतिरन्तः। आयुः’ इति काश्मीरवैदिकाभिमतः पदपाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    Let us be happy at heart with wealth, honour and excellence. Rising from here, let us raise Gandharva, the married youth, with his partner, higher. May that noble youth reach the highest status in life. Let us too rise to the heights where noblest people enjoy the best of their life.

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    Translation

    May we be friendly with wealth. May we attain to -the sustainer of the earth from this place. That divine one has gone to the highest abode, where we reach by prolonging our life-span.

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    Translation

    May we be happy at heart with abundance of riches and we accept the house-hold life. That refulgent Divinity may be attained in the excellent life of house-hold where we go with prolonged life.

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    Translation

    May we be happy with abundant riches. May this learned bridegroom attain to an exalted position in the society. God occupies the loftiest position, we reach unto Him by prolonging our life.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३६−(राया) धनेन (वयम्) (सुमनसः) प्रसन्नचेतसः (स्याम) (उत्) उत्कर्षेण (इतः) अस्मात् स्थानात् (गन्धर्वम्) विद्याधारकंपुरुषम् (आ) समन्तात् (अवीवृताम्) णिचि लुङि रूपम्। वर्तमानं कुर्याम् (अगन्)प्राप्नोतु (सः) (देवः) विद्वान् (परमम्) उत्कृष्टम् (सधस्थम्) सभास्थानम् (अगन्म) वयं गच्छेम (यत्र) यस्मिन् पदे (प्रतिरन्ते) प्रकर्षेण तरन्ति पारयन्ति (आयुः) जीवनम् ॥

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