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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
    ऋषिः - आत्मा देवता - जगती छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    91

    आवा॑मगन्त्सुम॒तिर्वा॑जिनीवसू॒ न्यश्विना हृ॒त्सु कामा॑ अरंसत। अभू॑तं गो॒पामि॑थु॒ना शु॑भस्पती प्रि॒या अ॑र्य॒म्णो दुर्याँ॑ अशीमहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वा॒म् । अ॒ग॒न् । सु॒ऽम॒ति: । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । नि । अ॒श्वि॒ना॒ । ह॒त्ऽसु । कामा॑: । अ॒रं॒स॒त॒ । अभू॑तम् । गो॒पा । मि॒थु॒ना । शु॒भ॒: । प॒ती॒ इति॑ । प्रि॒या: । अ॒र्य॒म्ण: दुर्या॑न् । अ॒शी॒म॒हि॒ ॥२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आवामगन्त्सुमतिर्वाजिनीवसू न्यश्विना हृत्सु कामा अरंसत। अभूतं गोपामिथुना शुभस्पती प्रिया अर्यम्णो दुर्याँ अशीमहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । वाम् । अगन् । सुऽमति: । वाजिनीवसू इति वाजिनीऽवसू । नि । अश्विना । हत्ऽसु । कामा: । अरंसत । अभूतम् । गोपा । मिथुना । शुभ: । पती इति । प्रिया: । अर्यम्ण: दुर्यान् । अशीमहि ॥२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    गृहआश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    (वाजिनीवसू) हे बहुतवेगवाली वा अन्नवाली क्रियाओं में निवास करनेवाले दोनों [स्त्री-पुरुषो !] (वाम्) तुम दोनों को (सुमतिः) सुमति (आ) सब ओर से (अगन्) प्राप्त होवे, (अश्विना) हे विद्या को प्राप्त दोनों (हृत्सु) [तुम्हारे] हृदयों में (कामाः)शुभ कामनाएँ (नि) निरन्तर (अरंसत) रमण करें [रहें]। (शुभः पती) हे शुभ क्रियाके रक्षको ! (मिथुना) तुम दोनों (गोपा) रक्षक (अभूतम्) होओ, (प्रियाः) हम लोगप्रिय होकर (अर्यम्णः) श्रेष्ठों के मान करनेवाले पुरुष के (दुर्यान्) घरों को (अशीमहि) प्राप्त करें ॥५॥

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुषों कोचाहिये कि फुरती से सुमतिपूर्वक अन्न आदि सामग्री प्राप्त करके शुभ कामनाएँ सिद्ध करते हुए सबके रक्षक बनें, जिस से विद्वान् लोग प्रीति करके उनका आश्रयलेवें ॥५॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।४०।१२ ॥

    टिप्पणी

    ५−(आ) समन्तात् (वाम्)युवाभ्याम् (अगन्) प्राप्नुयात् (सुमतिः) सुबुद्धिः (वाजिनीवसू) वेगवतीषुअन्नवतीषु वा क्रियासु निवसतस्तौ (नि) निरन्तरम् (अश्विना) हे प्राप्तविद्यौस्त्रीपुरुषौ (हृत्सु) युवयोर्हृदयेषु (कामाः) शुभाभिलाषाः (अरंसत) रमन्ताम्।तिष्ठन्तु (अभूतम्) भवतम् (गोपा) गोपायितारौ। रक्षकौ (मिथुना) उभौ (शुभः)शुभक्रियायाः (पती) पालकौ (प्रियाः) हिता वयम् (अर्यम्णः) श्रेष्ठानां मानयितुःपुरुषस्य (दुर्यान्) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। दुर्वी हिंसायाम्-यक्, वकारलोपेदीर्घाभावश्च। हिंसन्ति दुःखम्। गृहान्-निघ० ३।४। (अशीमहि) प्राप्नुयाम ॥

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    विषय

    'न कामातुर न कृपण' गृहपति

    पदार्थ

    १. पति-पत्नी अश्विनीदेवों से प्रार्थना करते हैं कि (वाजिनीवसु) = अन्नरूप धनवाले (अश्विना) = प्राणापानो! (वाम्) = आप दोनों की (सुमति:) = कल्याणीमति (आ अगन्) = हमें सर्वथा प्रास हो। प्राणापान को 'अन-धनवाले' इसीलिए कहा है कि इन्हीं से अन्न का पाचन होता है। वैश्वनर अग्नि [जाठराग्नि] प्राणापान से युक्त होकर सब अन्नों का पाचन करती है। अन्न का ठीक पाचन होकर इस सात्विक अन्न से सात्विक ही बुद्धि प्रास होती है। हे प्राणापानो! आपकी कृपा से (कामा:) = वासनाएँ (हत्सु) = हृदयों में (नि अरंसत) = पूर्णरूप से नियमित हों। कामवासना का नियमन ही गृहस्थ का सर्वमहान् कर्तव्य है। इसके नियमन से सन्तान भी उत्तम होते हैं और पति पत्नी की शक्ति भी स्थिर रहती है, इसप्रकार इससे नीरोगता व दीर्घजीवन सिद्ध होते है। २. हे प्राणापानो! आप (गोपा अभूतम्) = हमारी इन्द्रियों का रक्षण करनेवाले होओ। आप (मिथुना) = द्वन्द्वरूप में मिलकर कार्य करनेवाले होते हुए (शुभस्पती) = सब शुभों के पति होते हो। 'शुभ' का अर्थ [Water] शरीरस्थ रेत:कण भी है। प्राणसाधना के द्वारा शरीर में इनकी ऊर्ध्वगति होकर शरीर में ही रक्षण होता है। ३. पत्नी प्रार्थना करती है कि (प्रिया:) = पतियों की प्रिय होती हुई हम अथवा प्रियरूपवाली होती हुई हम (अर्यम्णा:) = कामादि को वश में करनेवाले, नियन्त्रित वासनावाले [अरीन् यच्छति] तथा उदार [अर्थमेति तमाहुयों ददातीति] पति के (दुर्यान्) = घरों को (अशीमहि) = प्राप्त करें। हमें ऐसा पति प्राप्त हो जो न तो कामातुर हो और न ही कृपण।

    भावार्थ

    गृहस्थ में प्राणसाधना द्वारा हम 'अन्न के समुचित पाचनवाले, सुमति-सम्पन्न, नियमित वासनावाले, सुरक्षित इन्द्रियोंवाले व ऊयरतस्वाले' बनें। गृहपति न कामातुर हों, न कृपण।

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    भाषार्थ

    (वाजिनीवसू) उषा-और-सूर्य के सदृश वर्तमान (अश्विना) हे शुभ कर्मों में व्याप्त माता-पिता (हृत्सु) हमारे हृदयों में (कामाः) कामनाएं (नि अरंसत) नितरां रमण कर रही हैं - (१) (वाम्) तुम दोनों की (सुमतिः) सुमति (आ अगन्) हमें प्राप्त हो; (२) (शुभस्पती) हे शुभकर्मों के रक्षकों! या स्वामियों ! (मिथुना) तुम दोनों एक-दूसरे के आश्रय में रहते हुए (गोपा) हमारे रक्षक (अभूतम्) होओ; (३) (अर्यम्णः) न्यायकारी परमेश्वर के (प्रियाः) हम प्रेमपात्र बनें; (४) (दुर्यान्) घरों को (अशीमहि) हम प्राप्त करें।

    टिप्पणी

    [वाजिनीवसू = वाजिनी उषोनाम (निघं० १।८) + वसु (सूर्य)। ८ वसु है, यथा "अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं च, आदित्यश्च द्यौश्च, चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि च, एते वसवः" (श० ब्रा० १२।६।३।३)। इस प्रमाण के अनुसार आदित्य अर्थात् सूर्य भी वसु है। अश्विना = माता पिता (अथर्व १४।१।१४)। मिथुना="मिथुनौ कस्मान्मिनोतिः श्रयतिकर्मा, थु, इति नामकरणः" (निरु० ७।७।२९)। अर्यम्णः = अर्यमा "योऽर्यान् स्वामिनो न्यायाधीशान् मिमीते मान्यान् करोति”, “जो सत्यन्याय के करने हारे मनुष्यों का मान्य, और पाप तथा पुण्य करने वालों को पाप और पुण्य के फलों का यथावत् सत्य-सत्य नियमकर्त्ता है, इसी से उस परमेश्वर का नाम अर्यमा" है। (सत्यार्थप्रकाश, प्रथम समुल्लास)। दुर्याः गृहनाम् (निघं० ३।४)] [व्याख्या - मन्त्र में वृद्ध माता-पिता को "वाजिनीवसू" और "अश्विना" कहा है। वाजिनी का अर्थ है उषा, और वसु का अर्थ है सूर्य। माता उषा है और पिता सूर्य है। उषा और सूर्य का जो पारस्परिक सम्बन्ध है वह पत्नी और पति के लिए आदर्श सम्बन्ध है। उषा के विना सूर्य और सूर्य के विना उषा की स्थिति नहीं। इसी प्रकार का सम्बन्ध पत्नी और पति का होना चाहिए। एक-दूसरे से पृथक् रहना पत्नी और पति के लिए उचित नहीं। उषा का स्वरूप सुन्दर तथा कोमल है, और सूर्य का प्रखर। इसलिए पत्नी में रमणीयता तथा कोमलता का निवास होना चाहिए, और पति में पौरुषशक्ति का। माता-पिता का पारस्परिक सम्बन्ध यदि उषा और सूर्य के सम्बन्ध के सदृश होगा तो नए वर-वधू पर भी उनके पारस्परिक सम्बन्ध का उत्तम तथा क्रियात्मक प्रभाव पड़ेगा। माता-पिता, वर-वधू के लिए, सच्चे मार्गदर्शक होने चाहिए। इसी आशा से वर-वधू माता-पिता से कहते हैं कि हे अश्वियो ! सद्गुणों से व्याप्त हे माता-पिता ! हमारे हृदयों में निम्नलिखित कामनाएँ हैं, आप इनकी पूर्ति में हमारे सहायक बनें। यथा (१) आप दोनों की सुमति अर्थात् उत्तममति- आप दोनों के उपदेशों द्वारा, हमें सदा प्राप्त होती रहे। (२) आप दोनों हमारे रक्षक बने रहें। हम पर आप की छत्रछाया सदा बनी रहे (गोपा= गोपौ, गुप् रक्षणे)। (३) आप हमें आस्तिक बनाइये। ताकि न्यायकारी परमेश्वर प्रदर्शित नियमों के अनुसार जीवनों को ढाल कर, हम उस के प्रेमपात्र बन सकें। (४) तथा हे माता-पिता ! आप स्वयं हमें दायविभागानुसार गृहों के उत्तराधिकार भी प्रदान कीजिये।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    O wedded couple, man and wife, rich in food, energy and settled life, may noble understanding and wisdom come and abide with you. May love, faith and trust, and noble ambitions be and abide in your hearts. May both of you as wedded couple mutually be guardians of each other and upholders of your common ideals and responsibilities as masters of noble living, and may Aryama, lord divine of familial well being, be kind and gracious path maker so that we all may enjoy good homes and happy family life.

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    Translation

    Your friendly grace has come (to us), O you two full of vigour and wealth. O twins divine, desires have filled our hearts. O Lords of benignancy, may you become our twin protectors. May we reach the pleasant dwellings of the ordainer Lord (Rg.X.85.12; Variant)

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    Translation

    O Ye. wife and husband may, by God's grace, good wisdom down to you, you both are blessed with the wealth of physical force, beautiful and the preservers of organic strength. You unite your body together and we including you, being dear devotees of Aryaman, the just God attain the happiness of homes.

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    Translation

    O husband and wife, may ye be blessed with nice determination may ye be the masters of strength and riches. Preserving your physical beauty and controlling your organs, with mutual cooperation perform the duties of domestic life. May we, the friends of God enjoy home comforts!

    Footnote

    See Rig, 10-40-12

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(आ) समन्तात् (वाम्)युवाभ्याम् (अगन्) प्राप्नुयात् (सुमतिः) सुबुद्धिः (वाजिनीवसू) वेगवतीषुअन्नवतीषु वा क्रियासु निवसतस्तौ (नि) निरन्तरम् (अश्विना) हे प्राप्तविद्यौस्त्रीपुरुषौ (हृत्सु) युवयोर्हृदयेषु (कामाः) शुभाभिलाषाः (अरंसत) रमन्ताम्।तिष्ठन्तु (अभूतम्) भवतम् (गोपा) गोपायितारौ। रक्षकौ (मिथुना) उभौ (शुभः)शुभक्रियायाः (पती) पालकौ (प्रियाः) हिता वयम् (अर्यम्णः) श्रेष्ठानां मानयितुःपुरुषस्य (दुर्यान्) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। दुर्वी हिंसायाम्-यक्, वकारलोपेदीर्घाभावश्च। हिंसन्ति दुःखम्। गृहान्-निघ० ३।४। (अशीमहि) प्राप्नुयाम ॥

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