अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 49
ऋषिः - आत्मा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
50
याव॑तीः कृ॒त्याउ॑प॒वास॑ने॒ याव॑न्तो॒ राज्ञो॒ वरु॑णस्य॒ पाशाः॑। व्यृद्धयो॒ या अस॑मृद्धयो॒या अ॒स्मिन्ता स्था॒णावधि॑ सादयामि ॥
स्वर सहित पद पाठयाव॑ती: । कृ॒त्या: । उ॒प॒ऽवास॑ने । याव॑न्त: । राज्ञ॑: । वरु॑णस्य । पाशा॑: । विऽऋ॑ध्दय: । या: । अस॑म्ऽऋध्दय: । या: । अ॒स्मिन् । ता: । स्था॒णौ । अधि॑ । सा॒द॒या॒मि॒ ॥२.४९॥
स्वर रहित मन्त्र
यावतीः कृत्याउपवासने यावन्तो राज्ञो वरुणस्य पाशाः। व्यृद्धयो या असमृद्धयोया अस्मिन्ता स्थाणावधि सादयामि ॥
स्वर रहित पद पाठयावती: । कृत्या: । उपऽवासने । यावन्त: । राज्ञ: । वरुणस्य । पाशा: । विऽऋध्दय: । या: । असम्ऽऋध्दय: । या: । अस्मिन् । ता: । स्थाणौ । अधि । सादयामि ॥२.४९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
(उपवासने) निवासस्थान [ग्राम आदि] में (राज्ञः) ऐश्वर्यवान् पुरुष की (वरुणस्य) रोक की (यावतीः) जितनी (कृत्याः) पीड़ाएँ और (यावन्तः) जितने (पाशाः) फन्दे हैं। और (याः) जो (व्यृद्धयः) निर्धनताएँ और (याः) जो (असमृद्धयः) असिद्धियाँ (अस्मिन्) इस (स्थाणौ) स्थिर चित्तवाले मनुष्य में हैं, (ताः) उन [सब बाधाओं] को (अधि) अधिकारपूर्वक (सादयामि) मैं मिटाता हूँ ॥४९॥
भावार्थ
ग्राम आदि देशों मेंजो विद्वानों की वृद्धि रोकनेवाले विघ्न उपस्थित होवें, उनका प्रतीकार शीघ्रकरना चाहिये ॥४९॥
टिप्पणी
४९−(यावतीः) यत्परिमाणाः (कृत्या) कृञ् हिंसायाम्-क्यप् तुक् च।हिंसाः। पीडाः (उपवासने) निवासस्थाने। उपवसथे। ग्रामे (यावन्तः) (राज्ञः)ऐश्वर्यवतः पुरुषस्य (वरुणस्य) आवरणस्य। रोधनस्य (पाशाः) बन्धाः (व्यृद्धयः)असम्पत्तयः (याः) (असमृद्धयः) असिद्धयः (याः) (अस्मिन्) (ताः) बाधाः (स्थाणौ)दृढस्वभावे पुरुषे (अधि) अधिकृत्य (सादयामि) षद्लृ अवसादने। नाशयामि ॥
विषय
व्यद्धि व असमृद्धि से दूर
पदार्थ
१. अग्निहोत्र की प्रज्वलित अग्नि में कई कृमियों का नाश तो होता ही है, अत: कहते हैं कि (उपवासने) = यज्ञादि की अग्नि के प्रज्वलन [Kindling a sacred fire] में (यावती: कृत्या) = जो भी हिंसाएँ हो जाती हैं, (यावन्त:) = जितने भी अनृतवादी के लिए (राज्ञः वरुणस्य पाशा:) = राजा वरुण के पाश हैं, (याः व्यूद्धयः) = जो भी अनेश्वर्य हैं, (याः असमृद्धयः) = [समृद्धि power] जो शक्तिशून्यताएँ हैं, (ता:) = उन सबको (अस्मिन् स्थाणौ) = इस स्थिर और अविचल प्रभु में स्थित होता हुआ मैं (अधिसादयामि) = विनष्ट करता हूँ।
भावार्थ
प्रभुस्मरण द्वारा 'हिंसा, असत्य, दौर्भाग्य व शक्तिशून्यता' को दूर करके हम उत्तम जीवनवाले बनते हैं। प्रभुस्मरण हमें अहिंसक, सत्यवादी, सौभाग्यसम्पन्न व समृद्ध बनाता है।
भाषार्थ
(उपवासने) उपवास-व्रत में (यावतीः) जितने (कृत्याः) मेरी कर्त्तव्य क्रियाएं अर्थात् कर्म है, (वरुणस्य राज्ञः) संसार के श्रेष्ठ तथा नियामक राजा के (यावन्तः) जितने (पाशाः) पाश अर्थात् बन्धन हैं, (याः) जो (व्यृद्धयः) ऋद्धियों का आना और जाना है, (याः) जो (असमृद्धयः) ऋद्धियों का कभी भी न आना है, (ताः) उन्हें (अस्मिन्) इस (स्थाणौ अधि) स्थिर, कूटस्थ, एकरस परमेश्वर में (सादयामि) मैं स्थापित करता हूं। उस के प्रति सौंपता हूं।
टिप्पणी
[व्याख्या-मन्त्र में निष्कामभाव की पराकाष्ठा का वर्णन है। लोग उपवास आदि व्रत तथा तदनुसार नाना प्रकार के कत्तव्य-कर्म करते हैं। इन के करते हुए आत्माभिमान तथा आत्मोत्कर्ष की भावनाओं के जागरित हो जाने की सम्भावना बनी रहती है। परमेश्वर ने-जो कि संसार का राजा तथा श्रेष्ठ नियामक है-जीवनों के लिए नानाविध नित्य-नैमित्तिक कर्मों का निर्देश किया है, जिन्हें कि मन्त्र में “पाशाः” द्वारा निर्दिष्ट किया है। पति-पत्नी में परस्पर अनुराग [१४।१।२६], सन्तानों के प्रति मोह, पञ्चमहायज्ञ, तथा वर्णाश्रम के धर्म,-ये नाना प्रकार के पाश हैं जिन में व्यक्ति बंधा हुआ है। इन कर्मों के करते व्यक्ति सुख तथा दुःख का अनुभव करता है। वैदिक सद्-गृहस्थी इन सुखों तथा दुःखों को धैर्यपूर्वक सहता हुआ, निष्काम भाव से निज कर्तव्य करता रहता है। वैदिक सद्गृहस्थी ऋद्धियों का स्वामी बने, या ऋद्धियां आ कर पुनः लौट जांय, इस से वह सुखों में प्रसन्न तथा दुःखों में व्यथित नहीं होता। उस के जीवन में चाहे कभी भी ऋद्धियों का दर्शन न हुआ हो वह तब भी दुःखी नहीं होता। उस की यह समावस्था उस के निष्काम जीवन का परिणाम होता है। क्योंकि उस ने अपने आप को तथा अपनी सम्पत्ति आदि, और कर्मों के फलों को, परमेश्वर के प्रति समर्पित कर दिया होता है। यह परम निष्काम भावना है।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
(यावतीः) जितने (कृत्याः) हिंसाकारी प्रयोग और हानिकारक क्रियाएं (उपवासने) वरवधू के वस्त्र में हैं और (यावन्तः) जितने (राज्ञः) राजा (वरुणस्य) वरुण परमात्मा के (पाशाः) पाश हैं। और (याः) जितनी (व्यृद्धयः) दरिद्रताएं और (याः) जो (असमृद्वयः) दुरवस्थाएं (अस्मिन्) इस वस्त्र में एवं संसार में हैं (ताः) उनको (स्थाणौ) वृक्ष में, एवं वृक्ष के समान दूरस्थ परमात्मा के आश्नय (अधि सादयामि) छोड़ता हूं।
टिप्पणी
(प्र०) ‘कृत्या पश्चाचाने’ (च०) ‘अस्मिन् ता स्ता नो मुञ्चामि सर्वम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
All those many performances essential to moral and spiritual discipline, all those bonds and limitations essential to the rule and law of Varuna, lord of universal justice, all those positive and negative flows of material well being, all these I surrender unto the central stability of the Lord eternal and immovable.
Translation
Whatever evil designs are there in the clothing, whatever the nooses of the venerable Lord, the sovereign, whatéver the poverties and miseries are there, them I fasten to this wooden post.
Translation
All the violent things found in starvation, all the entangling nooses taking place due to water, whatever are the poverties, whatever are calamities I deposit them ineffectuated on this eternal, infinitesimal.
Translation
All acts of violence in my birth-place, all injunctions of the mighty king, all sorts of poverty and all misfortunes in the world, I leave to God for disposal.
Footnote
I: Husband.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४९−(यावतीः) यत्परिमाणाः (कृत्या) कृञ् हिंसायाम्-क्यप् तुक् च।हिंसाः। पीडाः (उपवासने) निवासस्थाने। उपवसथे। ग्रामे (यावन्तः) (राज्ञः)ऐश्वर्यवतः पुरुषस्य (वरुणस्य) आवरणस्य। रोधनस्य (पाशाः) बन्धाः (व्यृद्धयः)असम्पत्तयः (याः) (असमृद्धयः) असिद्धयः (याः) (अस्मिन्) (ताः) बाधाः (स्थाणौ)दृढस्वभावे पुरुषे (अधि) अधिकृत्य (सादयामि) षद्लृ अवसादने। नाशयामि ॥
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